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Showing posts from August, 2020

✡️संस्कृत साहित्य प्रश्नोत्तरी ✡️ ,,भाग 15

 प्रश्न 1. लघुसिद्धान्तकौमुदी कस्य रचना अस्ति ? उत्तर-वरदराजस्य। प्रश्न 2. वरदराजस्य व्याकरण सम्बन्धी द्वितीय रचना का अस्ति ? उत्तर-मध्यसिद्धान्तकौमुदी। प्रश्न 3. "अष्टाध्यायी" केन विरचिता ? उत्तर-महर्षिपाणिना। प्रश्न 4. "ऐऔच्" तथा च "लण्" एतयोः सूत्रयोः मध्ये क: प्रत्याहार सूत्रः आगच्छति। उत्तर-हयवरट् । प्रश्न 5. अइउण्, ऋल्क् इत्यादि सूत्राणां सन्दर्भे अधोलिखितेषु किं नाम समीचीनं न अस्ति = (ख) वर्णसमाम्नायम् (घ) वरदराजसूत्राणि । (क) अक्षरसमाम्नायम् (ग) माहेश्वरसूत्राणि उत्तर-(घ) वरदराजसूत्राणि। प्रश्न 6. हलन्त अक्षराणि विहाय माहेश्वर सूत्रेषु क: वर्णः बारद्वयम् आगतः उत्तर-"ह" वर्ण: । प्रश्न 7. "अच्" प्रत्याहारान्गतं के वर्णा: आगच्छन्ति ? उत्तर-स्वरा: ! यथा-अ, इ, उ, ऋ, लू, ए, ओ, ऐ, औ। प्रश्न 8. "यण्" प्रत्याहारे के वर्णाः आपतन्ति ? उत्तर-य, व, र, ल, प्रश्न 9. माहेश्वरसूत्राणि कति सन्ति ? उत्तर  -चतुर्दश। 10.माहेश्वरसूत्रैः कति प्रत्याहाराणि निर्मीयन्ते ? उत्तर-द्विचत्वारिंशत् (42) प्रश्न 11."इत् संज्ञा" विधायकं सूत्र...

मंखक

मंख (मंखक)समय-सन 1120 से 1170। पिता-विश्ववर्त (या विश्वव्रत) । काश्मीर के निवासी । राजतरंगिणी के अनुसार ये काश्मीर के राजा जयसिंह (सन् 1127 से 1149) के संधिविग्रहिक मंत्री थे। सुप्रसिध्द अलंकारशास्त्री रुय्यक इनके गुरु थे। गुरु के आदेश पर इन्होंने 'श्रीकंठ-चरित' की रचना की। 25 सगों के इस महाकाव्य में शंकर द्वारा त्रिपुरासुर के वध की कथा है। महाकाव्य के 25 वें सर्ग में, कवि द्वारा उनके बंधु मंत्री अलंकार के यहां होने वाली विद्वत्सभा तथा उसमें भाग लेने वाले तीस विद्वद्वत्वों का विस्तृत वर्णन है। उसमें आनंद, कल्याण, गर्ग, गोविंद, जल्हण, पट, पद्मराज, भुड्ग, लोष्ठदेव, बागीश्वर, श्रीगर्भ तथा श्रीवत्स नामक कवियों का उल्लेख है। इन्होंने 'मंखकोश' नाम से एक शब्दकोश भी लिखा है। हेमचंद्र ने इसका उल्लेख अपने कोश में किया है। कोश में इन्होंने किसी भी विशिष्ट शब्द का उपयोग विशद करते समय अभिजात संस्कृत वाङ्मय के अवतरण उद्धृत किये हैं। यह इस कोश की विशेषता है। कोश अप्रकाशित है। श्रीकंठचरित' का प्रकाशन काव्यमाला से 1887 ई. में हो चुका है। इस महाकाव्य के कतिपय स्थल...

कात्यायन

 कात्यायन (वैयाकरण) - "अष्टाध्यायी" पर वार्तिक लिखने वाले प्रसिद्ध वैयाकरण जिन्हें "वार्तिककार कात्यायन" के नाम से ख्याति प्राप्त है। श्री. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार *महाभाष्य 3/2/118) में इनका स्थितिकाल वि. पू. 2700 वर्ष है। संस्कृत व्याकरण के मुनित्रय में पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि का नाम आता है। पाणिनीय व्याकरण को पूर्व बनाने के लिये ही कात्यायन ने अपने वार्तिकों की रचना की थी जिनमें अष्टाध्यायी के सूत्रों की भांति ही प्रौढता व मौलिकता के दर्शन होते हैं। इनके वार्तिक, पाणिनीय व्याकरण के महत्त्वपूर्ण अंग हैं जिनके बिना वह अपूर्ण लगता है। /p> प्राचीन वाङ्मय में कात्यायन के लिये कई नाम आते हैं।कात्य, कात्यायन, पुनर्वसु, मेधाजित् तथा वररुचि, और कई कात्यायनों का उल्लेख प्राप्त होता है-कात्यायन कौशिक, आंगिरस, भार्गव एवं काल्यायन द्वामुष्यायण । "स्कंदपुराण" के अनुसार इनके पितामह का नाम याज्ञवल्क्य, पिता का नाम-कात्यायन और इनका पूरा नाम वररुचि कात्यायन कात्यायन बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न व्यक्ति थे। इन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त काव्य, नाटक, धर्मशास्त्र व अ...

कल्हण

 कल्हण "राजतरंगिणी" नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य के रचयिता । काश्मीर के निवासो । आढ्यवंशीय कल्हण ब्राह्मण कुल में जन्म। इन्होंने अपने संबंध में जो कुछ अंकित किया है, वही उनके जीवनवृत्त का आधार है। "राज तरंगिणी"की प्रत्येक तरंग की समाप्ति में "इति काश्मीरिक महामात्य श्रीचम्पकप्रभुसूनोः कल्हणस्य कृतौ राजतरङ्गण्यां" यह वाक्य अंकित है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम चम्पक था और वे काश्मीर नरेश हर्ष के महामात्य थे। काश्मीर नरेश हर्ष का शासन काल 1089 से 1101 ई. तक था  चंपक के नाम का कल्हण ने अत्यंत आदर के साथ उल्लेख किया है। इससे उनके कल्हण के पिता होने में किसीभी प्रकार का संदेह नहीं रह पाता ।कल्हण ने चंपक के अनुज कनक का भी उल्लेख किया है जो हर्ष के कृपापात्रों में से थे। उन्होंने परिहारपुर को कनक का निवास स्थान कहा है और यह भी उल्लेख किया है कि जब राजा हर्ष बुद्ध प्रतिमाओं का विध्वंस कर रहे थे तब कनक ने अपने जन्मस्थान की बुद्धप्रतिमा की रक्षा की थी। (राजतरंगिणी 7/1097) । कल्हण के इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि इनका जन्मस्थान परिहारपुर था और ये...

कपिल,,,सांख्यदर्शन के आद्याचार्य।

 कपिल,,,सांख्यदर्शन के आद्याचार्य। जन्मस्थान- सिद्धपुर । कर्दम व देवहूति के पुत्र। भागवत पुराण में इन्हें विष्णु का 5 वां अवतार कहा गया है। इनके बारे में महाभारत, भागवत आदि ग्रंथों में परस्पर-विरोधी कथन प्राप्त होते हैं। स्वयं महाभारत में ही प्रथम कथन के अनुसार ये ब्रह्मा के पुत्र हैं, तो द्वितीय वर्णन में अग्नि के अवतार कहे गए हैं (महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय 218)। अतः कई देशी-विदेशी आधुनिक विद्वानों ने इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति नं मान कर काल्पनिक ही माना है पर प्राचीन परंपरा में आस्था रखने वाले विद्वान, इन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति एवं सांख्यदर्शन का आदि प्रवर्तक मानते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण, स्वयं को सिद्धों में कपिल मुनि बताते हैं। "सिद्धान्तों कपिलो मुनिः"(गीता 10-26)। ब्रह्मसूत्र के "शांकरभाष्य" में शंकर ने इन्हें सांख्य-दर्शन का आद्य उपदेष्टा और राजा सगर के 60 सहस्र पुत्रों को भस्म करने वाले कपिल मुनि से भिन्न स्वीकार किया है। [ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य (2-1-1)] । इन विवरणों के अस्तित्व में कपिल की वास्तविकता के प्रति संदेह नहीं किया जा सकता। प्रसिद्ध पाश्चात...

कणाद

 कणाद- वैशैषिक दर्शन के प्रवर्तक। उनके कणाद,  कणभक्ष,कणभुक्, उलूक, काश्यप, पाशुपत आदि विविध नाम  हैं।इनके आधार पर ये काश्यपगोत्री उलूक मुनि के पुत्र सिद्ध होते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार वे सड़क पर गिरे हुए या खेतों में बिखरे हुए अनाज के कणों का भोजन करते थे। इसलिये वे 'कणाद' कहलाये। सूत्रालंकार में उन्हें "उलूक" कहा गया है, क्योंकि वे रात्रि में आहार की खोज में श्रटकते थे। "वायुपुराण' के अनुसार कणाद का जन्म प्रभास क्षेत्र में हुआ था और वे अवतार तथा प्रभासनिवासी आचार्य सोमशमन  के शिष्य थे। उदयनाचार्य ने अपने "किरणावली" ग्रन्थ में उन्हें  कश्यप-पुत्र माना है। पाशुपत-सूत्र में कणाद को पाशुपत कहा ग है। एक जनुश्रति के अनुसार भगवान शिव से साक्षात्कार होने पर  उनकी कृपा और आदेश से कणाद ने वैशेषिक दर्शन की रचना  की। रचनाकाल बुद्ध से आठ सदी पूर्व माना जाता है। इसमें 10  अध्याय हैं, और हर अध्याय में दो आहनिक हैं। वैशेषिक दर्शन में  पदार्थ के सामान्य और विशेष गुणों की चर्चा एवं परमाणुवाद के  सिद्धान्त का प्रतिपादन है ।

उद्योतकार,, न्यायवार्तिक

 उद्योतकार,, न्यायवार्तिक ,,समय- ई. षष्ठ शताब्दी । शैव आचार्य । बौद्ध पंडित धर्मकीर्ति के समकालिक।वात्स्यायनभाष्य' पर 'न्यायवार्तिक' नामक टीका-ग्रंथ के रचयिता । इन्होंने अपने 'न्यायवार्तिक' ग्रंथ का प्रणयन, दिङ्नाग प्रभृति बौद्ध नैयायिकों के तको का खंडन करने हेतु या था। अपने इस ग्रंथ में बौद्ध-मत का पांडित्यपूर्ण निरास कर, ब्राह्मण-न्याय की निर्दुष्टता प्रमाणित की है । सुबंधु वन 'वासवदत्ता' में इनकी महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की गई है- 'न्यायसंगतिमिव उद्योतकरस्वरूपाम्' ।स्वयं उद्योतकर ने अपने ग्रंथ का उद्देश्य निम्न श्लोक में प्रकट किया है- "यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद। कुतार्विकाज्ञाननिवृत्तिहेतोः, करिष्यते तस्य मया प्रबंधः ।।" ये भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण तथा पाशुपत-संप्रदाय के अनुयायी थे- ('इति श्रीपरमर्षिभारद्वाज-पाशुपताचार्य श्रीमदुद्योतकरकृतौ न्यायवार्तिके पंचमोऽध्याय' ।) आप पाशुपताचार्य के नाम से भी जाने जाते थे। आपने दिङ्नाग के आक्रमण से क्षीणप्रभ हुए न्याय-विद्या के प्रकाश को पुनरपि उद्योतित कराते हुए,...

उद्भट्ट

 उद्भट- नाम से ये काश्मीरी ब्राह्मण प्रतीत होते हैं। इनका समय ई. 8 वीं शती का अंतिम चरण व 9 वीं शती का प्रथम चरण माना जाता है। कल्हण की 'राजतरंगिणी' से ज्ञात होता है कि ये काश्मीर- नरेश जयापीड के सभा-पंडित थे और उन्हें प्रतिदिन एक लाख दीनार वेतन के रूप में प्राप्त होते थे- विद्वान् दीनारलक्षेण प्रत्यहं कृतवेतनः । भट्टोऽभूदुद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः।। जयापीड का शासनकाल 779 ई. से 813 ई. तक माना जाता है। अभी तक उद्भट के 3 ग्रंथों का विवरण प्राप्त होता  है- काव्यालंकार-सारसंग्रह। उनमें भामह-विवरण भामहकृत 'काव्यालंकार' की टीका है, जो संप्रति अनुपलब्ध है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ इटाली से प्रकाशित हो गया है पर भारत में अभी तक नहीं आ सका है। इस ग्रंथ का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज ने अपनी 'लघुविवृति' में किया है। अभिनवगुप्त,रुय्यक तथा हेमचंद्र भी अपने ग्रंथों में इसका संकेत करते हैं। इनके दूसरे प्रंथ- कुमारसंभव का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज की 'विवृति' में है। इनमें महाकवि कालिदास के 'कुमारसंभव'के आधार पर उक्त घटना का वर्णन है 'कुमारसंभव' के कई श्लोक ...

उदयनाचार्य

उदयनाचार्य एक सुप्रसिद्ध मैथिल नैयायिक। इनका जन्म दरभंगा से 20 मील उत्तर कमला नदी के निकटस्थ मंगरौनी नामक ग्राम में एक संभ्रांत ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। 'लक्षणावली' नामक अपनी कृति का रचना-काल इन्होंने 906 शकाब्द दिया है। इनके अन्य ग्रंथ हैं- न्यायवार्तिक-तात्पर्य-टीका-परिशुद्धि, न्यायकुसुमांजलि तथा आत्मतत्व-विवेक । इन ग्रंथों की रचना इन्होंने बौद्ध दार्शनिकों द्वारा उठाये गए प्रश्नों के उत्तर-स्वरूप की थी। इन्होंने 'प्रशस्तपाद-भाष्य' (वैशेषिकदर्शन का ग्रंथ) पर 'किरणावली' नामक व्याख्या लिखी है। इसमें भी इन्होंने बौद्ध-दर्शन का खंडन किया है। 'न्याय-कुसुमांजलि' भारतीय दर्शन की श्रेष्ठ कृतियों में मानी जाती है और उदयनाचार्य की यह सर्व श्रेष्ठ रचना है। ईश्वर के अस्तित्व के लिये बौद्धों से विवाद के समय, अनुमांन-प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर पाने पर,एक ब्राह्मण और एक श्रमण को लेकर वे एक पहाडी पर चले गये दोनों को वहां से नीचे धकेल दिया। गिरते हुए ब्राह्मण चिल्लाया- 'मुझे ईश्वर का अस्तित्व मान्य है', तो श्रमण चिल्लाया 'उसे मान्य नहीं। ब...

ईश्वरकृष्ण,, सांख्यकारिका

 ईश्वरकृष्ण- सांख्य-दर्शन के एक आचार्य और 'सांख्यकारिका नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता । शंकराचार्यजी ने अपने शारीरकभाष्य' में 'सांख्यकारिका' के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं।अतः इनका शंकर से पूर्ववर्ती होना निश्चित है। विद्वानों ने इनका आविर्भाव-काल चतुर्थ शतक माना है, किंतु ये इससेभी अधिक प्राचीन हैं। 'अनुयोगद्वार-सूत्र' नामक जैन-ग्रंथ में 'कणगसत्तरी' नाम आया है जिसे विद्वानों ने 'सांख्यकारिका' के चीनी नाम 'सुवर्णसप्तति' से अभिन्न मान कर, इनका समय प्रथम शताब्दी के आस-पास निश्चित किया है। 'अनुयोगद्वार सूत्र का समय 100 ई. है। अतः ईश्वरकृष्ण का उससे पूर्ववर्ती होना निश्चित है। सांख्यकारिका' पर अनेक टीकाओं व व्याख्या-ग्रंथों की रचना हुई है। इनमें से वाचस्पति मिश्रकृत 'सांख्यत्त्व-कौमुदी' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका है। काशी के हरेराम शास्त्री शुक्ल ने इस कौमुदी पर सुषमा नामक टीका लिखी है। डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र के हिंदी अनुवाद के साथ सांख्यत्त्वकौमुदी प्रकाशित हो चुकी है।

आर्यभट्ट

आर्यभट्ट - ज्योतिष-शास्त्र के एक महान् आचार्ष। कुसुमपुर (पटना) के निवासी। भारतीय ज्योतिष का क्रमबद्ध इतिहास आर्यभट्ट (प्रथम) से ही प्रारंभ ह्यता है। इनके विश्वविख्यात ग्रंथ का नाम 'आर्यभटीय' है जिसकी रचना इन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर की है। जन्मकाल- 476 ई. ।इन्होंने 'तंत्र' नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की है। इनके ये दोनों ही ग्रंथ आज उपलब्ध हैं। इन्होंने सूर्य तथा तारों को स्थिर मानते हुए, पृथ्वी के घूमने से रात और दिन होने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ'आर्यभटीय' की रचना, पटना में हुई थी। इस ग्रंथ में आर्यभट्ट ने चंद्रग्रहण व सूर्यग्रहण के वैज्ञानिक कारणों का विवेचन किया है। 'आर्यभटीय' का अंग्रेजी अनुवाद डॉ. केर्न ने 1874 ई. लाइडेन (हॉलँड) में प्रकाशित किया था। इसका हिन्दी अनुवाद उदयनारायणसिंह ने सन् 1903 में किया था। संस्कृत में 'आर्यभटीय' की 4 टीकाएं प्राप्त होती हैं। सूर्यदेव यज्वा की टीका सर्वोत्तम मानी जाती है जिसका नाम है 'आर्यभट्ट-प्रकाश' । मूल ग्रंथ के चार पाद हैं- गातिकापाठ, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोल...

आपिशलि

 आपिशलि- पाणिनि के पूर्ववर्ती एक वैयाकरण । युधिष्ठिर मीमांसकजी के अनुसार इनका समय 3000 वि. पू. है। इनके  मत का उल्लेख 'अष्टाध्यायी', 'महाभाष्य', 'न्यास' एवं 'महाभाष्यप्रदीप' प्रभृति ग्रंथों में प्राप्त होता है। 'महाभाष्य' से  पता चलता है कि कात्यायन व पतंजलि के समय में ही इनके व्याकरण को प्रचार व लोकप्रियता प्राप्त हो चुकी थी। प्राचीन वैयाकरणों में सर्वाधिक सूत्र इनके ही प्राप्त होते हैं। इससे विदित होता है कि इनका व्याकरण, पाणिनीय व्याकरण के  समान ही प्रौढ व विस्तृत रहा होगा। इनके सूत्र अनेकानेक  व्याकरण-ग्रंथों में बिखरे हुए हैं। इन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त  'धातुपाठ', 'गणपाठ', 'उणादिसूत्र' एवं 'शिक्षा' नामक चार अन्य  ग्रंथों का भी प्रणयन किया है इनके 'धातुपाठ' के उध्दरण  'महाभाष्य', 'काशिका', 'न्यास' तथा 'पदमंजरी' में उपलब्ध होते हैं  तथा 'गणपाठ' का उल्लेख भर्तृहरि कृत 'महाभाष्य-दीपिका' में  किया गया है। 'उणादि-सूत्र' के वचन उपलब्ध नहीं होते। '...

आपस्तंब

आपस्तंब- भृगुकुलोत्पन एक सूत्रकार ब्रह्मर्षि कश्यप ऋषिने दिति से जब पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया, तब आपस्तंब उसके आचार्य थे। पत्नी का नाम अक्षसूत्रा एवं पुत्र का ककि था।तैत्तिरीय शाखा (कृष्णयजुर्वेद की 15 अध्वर्यु शाखाओं में से एक) की एक उपशाखा के सूत्रकार । याज्ञवल्क्य-स्मृति में स्मृतिकार के रूप में इनका उल्लेख है। सर्वश्री केतकर, काणे एवं डॉ. बूल्हर"के अनुसार, आपस्तंब आंध्र के रहे होंगे। ग्रंथरचना- 1. आपस्तंब श्रौतसूत्र, 2. आ.गृह्यसूत्र, 3. आ. ब्राह्मण, 4. आ. मंत्रसंहिता, 5. संहिता, 6.आ. सूत्र, 7. आ. स्मृति, 8. आ. उपनिषद्, 9. आ.अध्यात्मपटल, 10. आ. अन्त्येष्टिप्रयोग, 11. आ. अपरसूत्र,12. आ. प्रयोग, 13. आ. शुल्बसूत्र और 14. आ. धर्मसूत्र । आपस्तंब-धर्मसूत्र का रचनाकाल ई. पूर्व 6 से 3 शती है। इनके माता-पिता के नाम का पता नहीं चलता। निवास-स्थांन के बारे में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. बूलर प्रभृति के अनुसार ये दाक्षिणात्य थे, किंतु एक मंत्र में यमुनातीरवर्ती साल्वदेशीय स्त्रियों के उल्लेख के कारण इनका निवास-स्थान मध्यदेश माना जाता हैं।

आनंदवर्धन

 आनंदवर्धन आनन्दवर्धन- काश्मीर के निवासी । समय 9 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध । प्रसिद्ध काव्यशास्त्री व ध्वनि-संप्रदाय के प्रवर्तक।काव्यशास्त्र के विलक्षण प्रतिभासंपतन्न व्यक्ति। ध्वन्यालोक जैसे असाधारण ग्रंथ के. प्रणेता । 'राजतरंगिणी' में इन्हें काश्मीर नरेश अवंतिवर्मा का सभा-पंडित बताया गया है- मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः। प्रथां रत्नाकराश्चागात् साम्राज्येऽवन्तिवर्मणः।। (5-4) । -मुक्ताकण, शिवस्वामी, आनंदवर्धन एवं रत्नाकर अवंतिवर्मा के साम्राज्य में प्रसिद्ध हुए। अवंतिवर्मा का समय 855 से 884 ई. तक माना जाता है। आनंदवर्धन द्वारा रचित 5 ग्रंथ- विषमबाणलीला, अर्जुनचरित,देवीशतक, तन्लालोक और ध्वन्यालोक। सर्वाधिक महत्तवपूर्ण ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' में ध्वनि-सिद्धांत का विवेचन किया गया है, और अन्य सभी काव्यशास्त्रीय मतों का अंतर्भाव उसी में कर दिया गया है। देवीशतक नामक ग्रंथ (श्लोक 110) में, इन्होंने अपने पिता का नाम 'नोण' दिया है। हेमचन्द्र केकाव्यानुशासन में भी इनके पिता का यही नाम आया है। आनन्दवर्धन ने प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के ग्रंथ प्रमाण-विनिश्चय...

असंग (आर्य वसुबंधु असंग)

 प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिकअसंग (आर्य वसुबंधु असंग) वसुबंधु के ज्येष्ठ भ्राता। पुरुषपुर (पेशावर) निवासी कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण-कुल में जन्म । समय तृतीय शताब्दी के अंत व चतुर्थ शताब्दी के मध्य में। समुद्रगुप्त के समय में विद्यामान। गुरु- मैत्रेयनाथ। बौद्धों के योगाचार-संप्रदाय के विख्यात आचार्य। इनके ग्रंथ चीनी भाषा में अनूदित हैं (उनके संस्कृत रूपों का पता नहीं चलता) इनके ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -  (1) महायान संपरिग्रह- इसमें अल्यंत संक्षेप में महायान सिद्धांतों का विवेचन है चीनी भाषा में इसके 3 अनुवाद प्राप्त होते हैं।  (2) प्रकरण आर्यवाचा यह ग्रंथ 11 परिच्छेदों में विभक्त है। इसका प्रतिपाद्य है योगाचार का व्यावहारिक एवं नैतिक पक्ष। ह्वेनसांग कृत चीनी अनुवाद उपलब्ध है।  (3) योगाचारभूमिशास्त्र अथवा सप्तदश भूमिशास्त्र- यह ग्रंथ अत्यंत विशालकाय है। इसमें योगाचार के साधन-मार्गका विवेचन है। संपूर्ण ग्रंथ अपने मूल रूप में (संस्कृत में)हस्तलेखों में प्राप्त है। राहुलजी ने इसका मूल हस्तलेख प्राप्त किया था। इसका छोटा अंश (संस्कृत में) प्रकाशित भी हो चुका है।  (4) महा...

अश्वघोष

 महाकवि अश्वघोष अश्वघोष- एक बौद्ध महाकवि । इनके जीवन-संबंधी अधिक  विवरण प्राप्त नहीं होते। इनके 'सौंदरनेद' नामक महाकाव्य के  अंतिम वाक्य से विदित होता है कि इनकी माता का नाम  सुवर्णाक्षी तथा निवास-स्थान का नाम साकेत था । 'महाकवि' के  अतिरिक्त, ये 'भदन्त', 'आचार्य', 'महावादी' आदि उपाधियों से भी  विभूषित थे उपाधियों की पुष्टि होती है। इनके ग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये जाति के ब्राह्मण  रहे होंगे। इनकी रचनाओं का प्रधान उद्देश्य है बौद्ध धर्म के विचारों को काव्य के परिवेश में प्रस्तुत कर, उनका जनसाधारण के बीच प्रचार करना। अश्वघोष का व्यक्तित्व बहुमुखी है। इन्होंने समान अधिकार के साथ काव्य एवं धर्मदर्शन विषयक ग्रंथों का प्रणयन किया है। इनके नाम पर  प्रचलित ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है :- (1) वज्रसूची- इसमें वर्ण-व्यवस्था की आलोचना कर सार्वभौम समानता के सिद्धांत को अपनाया गया है कतिपय विद्वान इसे अश्वघोष की कृति मानने में संदेह प्रकट करते हैं। (2) महायान- श्रद्धोत्पाद शास्त्र- यह दार्शनिक प्रंथ है। इसमें विज्ञानवाद एवं शून्यवाद का विवेचन क...

अमरुक (अमरु)

 अमरुक (अमरु) मुक्तक काव्य के रचयिता। इसमें एक सौ से अधिक स्फुट पद्य हैं। इनके जीवन-वृत्त के विषय में अधिकृत जानकारी प्राप्त नहीं होती। अन्य ग्रथों में उद्धृत इनके पद्यों के आधार पर  इनका समय 750 ई. के पूर्व निश्चित होता है। अमरुक से संबंधित निम्न दो प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं। भ्राम्यन्तु मारवग्रामे विमूढा रसमीप्सवः। अमरुद्देश एवासौ सर्वतः सुलभो रसः । । अमरुक-कवित्व-डमरुक नादेन विनिहता न संचरति। श्रृंगारभणितिरन्या धन्यानां श्रवणविवरेषु ।। 'अमरु-शतक' नामक प्रसिद्ध शृंगारिक (सूक्ति-मुक्तावली 4-101) एक किंवदंती के अनुसार अमरुक जाति के स्वर्णकार थे। ये मूलतः श्रृंगार रस के कवि हैं। अपने सुप्रसिद्ध मुक्तक काव्य में इन्होंने तत्कालीन विलासी जीवन (दांपत्य एवं प्रणय-व्यापार) का सरस चित्र खींचा है, जिसे परवर्ती साहित्याचार्यों ने अपने लक्षणों के अनुरूप देखकर, लक्ष्य के रूप में उद्धृत किया है। शांकरदिग्विजय में कहा गया है कि शंकराचार्य ने जिस मृत राजा की देह में प्रवेश किया था, उसका नाम अमरु था। कहा जाता है कि अमरु की देह में प्रवेश करने के बाद, वात्स्यायन-सूत्र के आधार पर शंकराचार्य...

अभिनवगुप्त

 अभिनवगुप्त भरत रचित नाट्यशास्त्र के प्रणयन के पश्चात शताब्दियों तक इस विषय पर जो चिन्तन हुआ, वह लेखबद्ध रूप में प्रायः अनुपलब्ध है। कवि तथा नाटककार व्यवहार में नाट्यसिद्धान्तों का अनुसरण करते रहे तथा प्रसंगवश किसी शास्त्रीय विषय पर अभिमत भी प्रकट करते. रहे। इस चिन्तन-परम्परा का परिचय आचार्य अभिनवगुप्त की 'अभिनवभारती' नामक नाट्यशास्त्र की टीका से मिलता है। अपने विषयगत मौलिक विवेचन के कारण, उनके द्वारा व्याख्यात तथा निर्णीत सिद्धान्तों को प्रमाणभूत समझा जाता है। नाट्य तथा काव्यशास्त्र के परवर्ती चिंतक इनके ऋणी हैं। आचार्य अभिनवगुप्त का समय 950 ई. से 1030 इनका वंश शिव-भक्ति के लिए प्रसिद्ध था । वे शैव-प्रत्यभिज्ञादर्शन के सिद्ध तथा मान्य आचार्य थे। उनका सारा चिंतन इसी दर्शन से प्रभावित है। वे नाट्यशास्त्र के 36अध्यायों की संगति, शैव दर्शन के 36 त्त्ों से बिठलाते हैं। उनकी अधिकांश रचनाएं उक्त दर्शन की विविध शाखाओं पर है। साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में ध्वन्यालोकलोचन तथा अभिनवभारती नामक दो टीका-ग्रंथों के आधार पर ही वे आचार्य-पद पर अभिषिक्त हुए। वे प्राचीन परम्परा को उसके मूलभूत प्र...

अप्पय दीक्षित-

 अप्पय दीक्षित अप्पय दीक्षित- ई. 17-18 वीं शती। द्रविड ब्राह्मण।पिता-नारायण दीक्षित। बारह वर्ष की आयु में पिता के पास अध्ययन पूर्ण। पिता व पितामह अद्वैती होने से आपने अद्वैत मत का प्रसार किया, और श्रीशंकाराचार्य की अद्वैत-परंपरा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य बने । शैव होने पर भी अप्पय अनाग्रही थे। मुरारौ च पुरारौ च न भेदः पारमार्थिकः। तथापि मामकी भक्तिश्चन्द्रचूडे प्रधावति ।। अर्थ- विष्णु व शिव में परमार्थतः भेद नहीं, पर मेरीभक्ति चंद्रशेखर-शिव के प्रति ही है। शैव-सिद्धान्त की स्थापना हेतु आपने शिवारक-मणिदीपिका,शिवतत्त्वविवेक, शिवकर्णामृत आदि ग्रंथों का प्रणयन किया।शांकरसिद्धान्त में वाचस्पति मिश्र, रामानुजमत में सुदर्शन एवं माध्वमत में जयतीर्थ का जो स्थान है, वही स्थान श्रीकंठ संम्प्रदाय में, 'शिवार्क-मणिदीपिका' की रचना के कारण अप्पयदीक्षित का माना जाता है। कुवलयानंद, चित्रमीमांसा आदि साहित्यिक ग्रंथों के कर्ताअप्पय दीक्षित, कट्टर शिवभक्त थे। एक समय वे अनवधानं से विष्णु-मंदिर में गए। वहां विष्णु-मूर्ति के सम्मुख ही उन्होंने शिवाराधना शुरू की। शिवभक्ति में वे इतने तल्लीन हो गए कि विष्ण...

अक्षपाद गौतम ,, न्याय सूत्र के रचनाकार

 अक्षपाद गौतम ,, न्याय सूत्र के रचनाकार अक्षपाद - समय-सन् 150 के आसपास । न्यायसूत्र के कर्ता ।षोडषपदार्थवादी माधवाचार्य ने सर्वदर्शन में न्यायशास्त्र कोअक्षपाददर्शन ही कहा है।पद्मपुराण एवं अन्य कुछ पुराणों में कहा गया है कि न्यायशास्त्र गौतम (अथवा गोतम) की रचना है। न्यायसूत्रवृत्ति के कर्ता विश्वनाथ ने इस सूत्र को गौतमसूत्र कहा है।संभवतः अक्षपाद और गौतम दोनों ने इसे लिखा हो ।गौतम मिथिला के तो अक्षपाद काठियावाड के प्रभास क्षेत्र के थे। ब्रह्मांडपुराण के अनुसार अक्षपाद के पिता सोमशर्मा एवं कणाद थे। गौतम और अक्षपाद एक ही है ऐसा माना जाता है। एक दंतकथा बताई जाती है- विचारमग्न गौतमकुएँ में गिरे। कठिनाई से उन्हें बाहर निकाला जा सका। पुनःऐसी स्थिति नहीं हो, इसलिये उनके पैरों में ही आखें निर्माण की गई।

अंबिकादत्त व्यास

 अंबिकादत्त व्यास,,ambikadatt vyass अंबिकादत्त व्यास 19 वीं शताब्दी के प्रसिद्धगद्य- लेखक, कवि एवं नाटककार । पिता-दुर्गादत्त शास्त्री  (गौड) ।समय 1858 से 1900 ई.। इनके पूर्वज भानपुर  ग्राम ( जयपुर राज्य) के निवासी थे किन्तु इनके पिता  वाराणसी जाकर वहींबस गए। व्यासजी, राजकीय  संस्कृत महाविद्यालय पटना में अध्यापक थे, और उक्त पद  पर जीवन पर्यन्त रहे। इनकेद्वारा प्रणीत ग्रथों की संख्या  75 है। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत दोनों भाषाओं में समान  अधिकार के साथ रचनाएं की हैं।व्यासजी ने छत्रपति  शिवाजी के जीवन पर 'शिवराज-विजयम्'नामक  गद्यकाव्य की रचना की है, जो 'कादंबरी' की शैली में रचित है। इनका 'सामवतम्' नामक नाटक 19 वीं शती का श्रेष्ठ नाटक माना जाता है। पंडित जितेन्द्रियाचार्य द्वारा संशोधित 'शिवराजविजयम्' की, 6 आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं। कवि अम्बिकादत्त अपनी असाधारण 'विद्वत्ता  तथा प्रतिभा के कारण समकालीन विद्वन्मण्डली में  'भारतभास्कर','साहित्याचार्य', 'व्यास' आदि उपाधियों से  भूषित थे इन्हें 19वीं सदी का बाणभट्ट माना जात...

महर्षि वेदव्यास

 🌼महर्षि वेदव्यास🌼 व्यास (भगवान्) एक अलौकिक व्यक्तित्व के महापुरुष।महाज्ञानी ग्रंथकार थे। वर्ण से काले थे, अतः ' कृष्ण ' कहलाये।द्वीप पर जन्म होने से ' द्वैपायन ' भी कहे गये। " कृष्णद्वैपायन"नाम से भी संबोधित किये गये। " वेदान् विव्यास" वेदों के विभाग करने से व्यास संज्ञा प्राप्त। पराशर पुत्र होने से ' पाराशर्य ' भी कहा जाता रहा। बदरी-वन में तपस्या करने के कारण ' बादरायण ' भी कहलाते थे। विद्वज्जन उन्हें " वेदव्यास"कहते थे। यह सर्वमान्य लोकोक्ति है कि संसार का सारा ज्ञान व्यास की जूठन है।" व्यासोच्छिष्ट जगत् सर्वम् " अर्थात सारा ज्ञान उन्हें प्राप्त था। वेदोत्तर-काल से आज तक वे भारतीय संस्कृति के महाप्राण रहे हैं। इतिहास-पुराणों की रचना,प्राचीन युग की विस्मृतप्राय विद्या-कला का पुनरुज्जीवन, वेदवेदांग का संकलन, संपादन, विभाजन आदि के द्वारा व्यासजी ने भारतीय संस्कृति का सारा ज्ञान अक्षुण्ण रखा। उन्हें भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता है। व्यास यह नाम व्यक्तिवाचक नहीं। यह एक उपाधि है। पुराणों के अनुसार प्रत्येक द्वाप...

🕉️भास🕉️

 भास,,,,,समय- ई. पू. चौथी व पांचवी शती के बीच। इन्होंने 13 नाटकों की रचना की है जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। इनके सभी नाटकों का हिन्दी अनुवाद व संस्कृतं-टीका के साथ प्रकाशन, "भासनाटकचक्रम्” के नाम से "चौखंबा संस्कृत सीरीज से हो चुका है। भास के संबंध में विविध प्रथों में अनेक प्रकार के प्रशंसा वाक्य प्राप्त होते हैं। संस्कृत के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों ने भी भास का महत्त्व स्वीकार किया है। महाकवि कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नामक नाटक की प्रस्तावना में भास की प्रशंसा की है। इनके नाटक दीर्घ काल तक अज्ञात अवस्था में पड़े हुए थे। 20 वीं शती के प्रथम चरण के पूर्व तक, भास के संबंध में कतिपय उक्तियां ही प्रचलित थीं। इनके नाटकों का उद्धार सर्वप्रथम त्रिवेंद्रम के म.म.टी. गणपति शास्त्री ने 1909 ई. में किया। उन्हें पद्मनाभपुरम् के निकट मल्लिकारमठम् में ताडपत्र पर लिखित इन नाटकों की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई। सभी हस्तलेख मलयालम् लिपि में थे। शास्त्रीजी ने सभी (13) नाटकों का संपादन कर, 1912 ई. में उन्हें प्रकाशित किया। ये सभी नाटक, 'अनंतशयन संस्कृत ग्रंथावली में प्रकाशित ह...

🕉️भारवि🕉️

 भारवि,,,समय,,550 ई. के लगभग। संस्कत-महाकाव्य के इतिहास में अलंकृत शैली के प्रवर्तक होे का श्रेय इन्हें ही है। "किरातार्जुनीय" भारवि की एकमात्र अमर कृति है। इनका जीवन-वृत्त अभी तक अंधकारमय हेै । इनका समय- निर्धारण पुलकेशी द्वितीय के समय के एक शिलालेख से होता है। इसमें कवि रविकीर्ति ने अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में महाकवि कालिदास के साथ भारवि का भी नाम लिया है। और स्वयं को कालिदास व भारवि के मार्ग पर चलने वाला कहा है। इस शिलालेख का निर्माण काल 634 ई. है। कवि रविकीर्ति ने 634 ई. में एक जैन-मंदिर का निर्माण करवाया था। इससे सिद्ध होता है कि इस समय तक भारवि का यश दक्षिण में फैल चुका था। भारवि के स्थिति-काल का पता एक दान-पत्र से भी चलता है। यह दान-पत्र दक्षिण के किसी राजा का है जिसका नाम पृथ्वीकोंगणि था। इसका लेखन-काल 698 शक (770 ई.) है। इसमें लिखा है कि राजा की 7 पीढियां पूर्व दुर्विनीत नामक व्यक्ति ने भारविकृत "किरातार्जुनीय" के 15 वें सर्ग की टीका रची थी। इस दान-पा से इतना निक्षित हो जाता है कि भारवि का समय 7वीं शती के प्रथम चरण के बाद नहीं हो सकता। वामन व जयादित्य की...

🕉️भवभूति🕉️

 भवभूति (उंबेकाचार्य) - समय- ई. 7-8 वीं शती। ये अपने युग के एक सशक्त एवं विशिष्ट नाटककार ही नहीं थे, अपितु सांख्य, योग, उपनिषद् व मीमांसा प्रभृति विद्याओं में भी निष्पात थे। इनके आलोचकों ने इनके संबंध में उक्तियों का प्रयोग किया था। उनसे क्षुब्ध होकर भवभूति ने उन्हें चुनौती दी थी, कि निश्चय ही एक युग ऐसा आयेगा, जब उनके समानधर्मा कवि उत्पन्न होकर उनकी कला का कटु आदर करेंगे, क्यों कि काल निरवधि या अनन्त है और पृथ्वी भी विशाल है (मालती- माधव, अंक प्रथम)। वह प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है :- ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नेष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।। भवभूति ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में अपना पर्याप्त परिचय दिया है। इनका जन्म कश्यप-वंशीय उदुंबर नामक ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। ये विदर्भ (महाराष्ट्र) के अंतर्गत पद्मपुर के निवासी थे इनका कुल कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का अनुयायी था। इनके पितामह का नाम भट्ट गोपाल था जो महाकवि थे। पिता-नीलकंठ, माता-जतुक्णी (अथवा जातूकर्णी) ।इन्होंने अपना सर्वाधिक वि...

🕉️भास्कराचार्य🕉️

 भास्कराचार्य ,,,समय- 1157 से 1223 ई.। एक महान् ज्योतिषशास्त्रज्ञ। मराठी ज्ञानकोशकार डा. केतकर के अनुसार ये सह्याद्रि पर्वत के निकटवर्ती विज्जलवीड (जि. जलगांव, महाराष्ट्र) नामक ग्राम के निवासी थे। अन्य एक विद्वान् के मतानुसार ये मराठवाडा के बीड नामक नगर के निवासी थे। गोत्र-शांडिल्य । पिता-महेश्वर उपाध्याय जो इनके गुरु भी थे। इन्होंने गणित तथा ज्योतिषशास्त्र पर सिद्धान्तशिरोमणि, करणकुतूहल, वासना-भाष्य, बीजगणित, सर्वतोभद्र नामक ग्रंथ लिखे हैं। सिद्धांतशिरोमणि तथा करणकुतूहल दोनों ज्योतिर्गणित विषयक ग्रंथ हैं। वासनाभाष्य, सिद्धांत- शिरोमणि के ग्रहगणित तथा गोलाध्याय पर भास्कराचार्य के स्वकृत टीकाग्रंथ भी हैं । पृथ्वी गोल है तथा वह अपने चारों और घूमती है यह भास्कराचार्य को ज्ञात था। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी उन्हें ज्ञात था जो इन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया है - आकृष्टशक्तिश्च मही तथा यत् । स्वस्थ गुरु स्वाभिमुख स्वशक्त्या । आकृष्यते तत् पततीव भाति । समे समन्तात् क्व पतत्विदं च ।। अर्थ- पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इस शक्ति से वह आकाश की जड वस्तुयें अपनी और खींचती है। वह (पृथ्वी) गिर ...

✡️भर्तृमेण्ठ✡️

 भर्तृमेण्ठ - "हयग्रीव-वध" नामक महाकाव्य के प्रणेता । यह काव्य अभी तक अनुपलब्ध है किंतु इसके श्लोक क्षेमेंद्र-रचित "सुवृत्ततिलक", भोजकृत "सरस्वती-कंठाभरण' व श्रृंगार- प्रकाश" एवं "काव्य-प्रकाश" प्रभृति रीतिग्रंथों व सूक्ति-ग्रंथों में उद्घृत किये गये हैं। इनका विवरण कल्हण की "राजतरंगिणी" में है। कहते हैं कि मेंठ हाथीवान् थे। मेंठ शब्द का अर्थ भी महावत होता है। लोगों का अनुमान है कि विलक्षण प्रतिभा के कारण ये महावत से महाकवि बन गए। इनके आश्रयदाता काश्मीर-नरेश मातृगुप्त थे  इनका समय ई. 5 वीं शती है। सूक्ति-ग्रंथों में कुछ पद "हस्तिपक" के नाम से प्राप्त होते हैं। उन्हें विद्वानों ने भर्तुमेण्ठ की ही कृति स्वीकार किया है। इनकी प्रशंसा में धनपाल का एक श्लोक मिलता है जिसमें कहा गया है कि जिस प्रकार हाथी महावत के अंकुश की चोट खाकर बिना सिर हिलाये नहीं रहता, उसी प्रकार भर्तृमेण्ठ का काव्य श्रवण कर सहृदय व्यक्ति आनंद से विभोर होकर सिर हिलाये बिना नहीं रहता। "राजतरंगिणी" में कहा गया है कि अपने "हयग्रीव-वध" काव्य ...

🕉️ब्रह्मगुप्त🕉️

 ब्रह्मगुप्त (गणकचक्रचूडामणि) - समय- 598-665 ई. पिता-जिष्णु । गणित-ज्योतिष के सुप्रसिद्ध आचार्य । इनका  जन्म 598 ई. में पंजाब के "भिलनालका" नामक स्थान हुआ था। इन्होंने "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत" व "खंड-खाद्यक" नामक ग्रंथों की रचना की है। ये बीजगणित के प्रवर्तक व ज्योतिष-  शास्त्र के प्रकांड पंडित माने जाते हैं। इनके दोनों ही ग्रंथों के अनुवाद अरबी भाषा में हुए है। "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत" को अरबी में "असिन्द हिन्द" व "खंड-खाद्यक" के अनुवाद को "अलर्कन्द" कहा जाता है। आर्यभठ्ट के पृथ्वी-चलन-सिद्धांत को खंडित करते हुए, इन्होंने पृथ्वी को स्थिर कहा है। अपने ग्रंथों में ब्रह्मगुप्त ने अनेक स्थलों पर आर्यभट्ट, श्रीषेण, विष्णचंद्र प्रभृति आचार्यों के मतों का खंडन करते , हुए, उन्हें त्याज्य बतलाया है। ब्रह्मगुप्त के अनुसार इन आचा्यों की गणना-विधि से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध रूप में नहीं आता। सर्वप्रथम इन्होंने गणित व ज्योतिष के विषयों को पृथक् कर, उनका वर्णन अलग-अलग अध्यायों में किया है और गणित-ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की...

✡️बूल्हर जे. जी✡️ पाश्चात्य संस्कृत विद्वान

 बूल्हर जे. जी.- जर्मनी के प्राच्य-विद्या-विशारद । जर्मनी में 19 जुलाई 1837 ई. को जन्म । हनोवर-राज्य के अंतर्गत, वोरलेट नामक ग्राम के निवासी। एक साधारण पादरी की संतान । शैशव से ही धार्मिक रुचि । उच्च शिक्षा प्राप्ति के हेतु गार्टिजन विश्वविद्यालय में प्रविष्ट व वहां संस्कृत के अनूदित ग्रंथों का अध्ययन। 1858 ई. में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, और भारतीय विद्या के अध्ययन में सलान हुए। आर्थिक संकट होते हुए भी बड़ी लगन के साथ भारतीय हस्तलिखित पोथियों का अन्वेषण कार्य प्रारंभ किया। तदर्थ आप पेरिस, लंदन व ऑक्सफोर्ड के इंडिया आफिस-स्थित विशाल ग्रंथागारों में उपलग सामग्रियों का आलोडन करने के लिये गए। संयोगवश लंदन में मैक्समूलर से भेट होकर इस कार्य में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लंदन में ये विंडसर के राजकीय पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्य के रूप में नियुक्ति हुए व अंततः गार्टिजन-विश्वद्यिालय पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में इनकी नियुक्ति हुई। भारतीय विद्या के अध्ययन की उत्कट अभिलाषा के कारण ये भारत आए और मैक्समूलर की संस्तुति के कारण बंबई-शिक्षा-विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष हार्व...

🕉️ऊष्ट्र आसन🕉️

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 🕉️ऊष्ट्र आसन🕉️ 🕉️लाभ,,कमर और छाती को विशेष लाभ होता है । श्वास  रोग में हितकर है । हाथों की ऊँगलियों में शक्ति आती है। 🕉️विधि,,,कमर को अधिक से अधिक ऊपर उठायें । हाथों  की ऊँगलियां खड़ी अवस्था में रखें । 🕉️ USHTRA-ASANA🕉️ 🕉️Benefits - Removes disorders of stomach chest and spine. Strengthens legs and arms. 🕉️Technique - Balance on the fingertips & not on palms.Raise the trunk high. Throw head back. ✡️उष्ट्रासन✡️ ✡️स्थिति,,, ,बैठकर । ✡️ क्रम (१) एडियां पुट्ठों के नीचे दबाकर वैठो।  (२) घुटनों पर खड़े हो ।  (३) पीछे झुक कर हाथ एडियों पर अथवा जमीन पर रखो। (४) कमर उठाकर सिर पीछे झुकाओ। पूर्णस्थिति । (५) सिर सीधा करो। (६) हाथ उठाकर घुटनो पर खड़े रहो। (७) एड़िया पर पुट्ठ टिकाओं।  (८) पूर्वस्थिति ✡️ समय,,२ मिनिट । ✡️लाभ ,,,मंदाग्नि, बद्धकोष्ट, यकृत और प्लीहा के विकार नष्ट होते हैं। सीना, पेट, हाथ, पैर, जंघा, पिंडरियों के स्नायु वलिष्ठ होते हैं। शरीर की फालतू च्बी, संधिवात, बवासिर आदि विकार दूर होते हैं। गर्भासन व उष्ट्रासन स्त्रियों के लिये विशेष उपयुक्...

🕉️ उत्थित पद्म आसन🕉️

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  🕉️ उत्थित पद्म आसन🕉️ 🕉️लाभ:-(भुजाओं में शक्ति आती है। जिगर तिली और आंतों को बहुत लाभ होता है । 🕉️विधि:-(शरीर को आगे पीछे झुलायें और फिर हाथों पर आगे पीछे चलने का भी प्रयत्न करें । 🕉️. UTTHITA PADM ASANA🕉️ 🕉️Benefits -Strengthens shoulders, chest, neck, arms, intestines and lungs. 🕉️Technique - Try to swing the body and also make effort to walk on arms. 🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳 👉अन्य योगशास्त्र ग्रंथ में ✡️उत्थित पद्मासन व दोलासन✡️  👉स्थिति बैठकर। ✡️क्रम (१) दाहिना पैर बाई जांघ पर पेट को एड़ी चिपका कर रखो। (२) वैसे ही बांया पैर दाहिनी जांघ पर रखो।  (३) हाथ दोनों ओर जमीन पर टिकाओ।   (४) हाथों पर वजन डालकर आसन उठाकर सीधे स्थिर           रहो। पूर्ण स्थिति।   (५) दोलासन में आगे पीछे झूलो। जमीन पर टिकाओ।   (६) ऊपर का पैर फैलाओ।   (७) पूर्व स्थिति । पैर बदलकर भी करे ✡️समय,, २ मिनिट । ✡️लाभ ,,,,सीने के ओर पहुचों के स्नायु बाहु के द्विशिरस्क स्नायु, हाथों के आकुंचन प्रसार...

🕉️ उत्कट आसन🕉️

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🕉️ उत्कट आसन🕉️ 🕉️लाभ ,,कमर, टांगों और पैरों की शक्ति बढ़ती है । आंतों की दुर्बलता दूर होती है । 🕉️विधि🕉️कमर सीधी रखें । किसी चीज का सहारा न लें । खड़े होकर शनै: शनै: उत्कट अवस्था में आये । इस प्रकार3 -4 बार करें । तदुपरान्त टांगों को हाथों से मलें और विश्राम दें । 🕉️UTKAT - ASANA🕉️ 🕉️Benefits -Keeps legs, stomach and the muscles of the back healthy, Improves digestion. 🕉️Technique - Keep the trunk straight without support.Repeat three-four times from standing position to the Asana position slowly. ✡️उत्कटासन -अन्य योग के ग्रंथों में कहा गया है कि,,,,,,,,, ✡️ स्थिति बैठकर । ✡️ क्रम इस प्रकार है (१) घुटनों के बल बैठो।  (२) खड़े हो ।  (३) कमर पर हाथ रखो।  (४)शरीर सीधी रेखा में रख कर घुटनों में समकोन बनाओं और एड़ियां उठाओ। पूर्णस्थिति ।  (५) सीधे खडे रहो ।  (६) हाथ निकाल लो। ✡️समय २ मिनिट । ✡️ लाभ,,पचनेंद्रिय और उत्सर्जक इन्द्रिया सुधरती हैं। पहुचे, पैरों के अंगूठों, पिंड़लियों, जांघों के दोष दूर होकर स्नायु बलवान होते हैं। हाथ पैर के विकार दुर होते हैं।

✡️संस्कृत साहित्य प्रश्नोत्तरी ✡️ वेदांग ✡️ भाग 14 ✡️ संस्कृत विश्वकोश

 ✡️> वेदाङ्ग शब्द का वर्णन किया गया है। -मुण्डकोपनिषद् में ✡️अंग का अर्थ है। -उपकार करने वाला ✡️> वेद का उपकारक है। -वेदाङ्ग ✡️> वेदाङ्गों का मुख्य उद्देश्य है। -तीन ✡️> वेदों का अर्धबोध होता है। -व्याकरण तथा निरुक्त से ✡️> वेदों का सही उच्चारण होता है। -शिक्षा तथा छन्द से ✡️वेदों का याज्ञिक प्रयोग होता है। -कल्प तथा ज्योतिष से ✡️वेदाङ्ग सामान्यतया लिखे गए हैं। -सूत्र शैली में ✡️वेदाङ्रों को वेद-पुरुष के विविध अवयवों का रूपक कहा गया है -पाणिनीय शिक्षा में ✡️'छन्द: पादौ तु वेदस्य' यह सम्बद्ध है। -पाणिनीय शिक्षा से ✡️'निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते' यह सम्बद्ध है। -पाणिनीय शिक्षा से ✡️> वेदाङ्ग कितने है     -6 ✡️वेदरूपी पुरुष का 'पैर' कहा गया है। -छन्द को ✡️> वेदरूपी पुरुष का 'हाथ' कहा गया है। -कल्प को ✡️> वेदरूपी पुरुष की 'आँख' कहा गया है। -ज्योतिष को ✡️> वेदरूपी पुरुष का 'कान' कहा गया है। -निरुक्त को ✡️> वेदरूपी पुरुष की 'नाक' कहा गया है। -शिक्षा को ✡️वेदरूपी पुरुष का 'मुख' कहा गया है। -व्याकरण को ✡️...

✡️ भारद्वाज ✡️

 ✡️ भारद्वाज ,,पाणिनि के पूर्ववर्ती वैयाकरण व अनेक शास्त्रोके निर्माता। पे. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 9300 वर्ष वि.पू.है। इनकी व्याकरण-विषयक रचना तंत्र" थी जो संप्रत्ति उपलब्ध नहीं है। "ऋक्तंत्र (1-4) में इन्हें ब्रह्म, बृहस्पति व इंद्र के पश्चात् चतुर्थ वैयाकरण माना गया। इसमें यह भी उल्लिखित है कि भारद्वाज को इंद्र द्वारा व्याकरण-शास्त्र की शिक्षा प्राप्त हुई थी। इंद्र ने उन्हें घोषवत् व उष्म वर्णों का परिचय दिया था । (ऋक्तंत्र 1-4) "वायु-करण" के अनुसार भारद्वाज दो पुराण की शिक्षा तृणंजय से प्राप्त हुई थी। (103-63)। कोटिल्य कृत "अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि भारद्वाज ने किसी अर्थशास्त्र की भी रचना की थी (12-1) । वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनकाआश्रम प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर था (अयोध्याकांड, सर्ग 54)। भारद्वाज बहुप्रतिभासंपतन्न व्यक्ति थे उनकी अनेक रचनाएं हैं - भारद्वाज-व्याकरण, आयुर्वेद-संहिता, धनुर्वेद,अर्थशास्त्र । प्रकाशित ग्रंथ-1. यंत्रसर्वस्व राज्यशास्त्र,(विमानशास्त्र) ओर 2. शिक्षा। इनके प्रकाशक क्रमशः आर्य सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा, दि...

✡️ भामह, ✡️

 ✡️ भामह, ✡️ समय- ई. 6 वीं शती का मध्य । "काव्यालंकार" नामक ग्रंथ के प्रणेता । अनेक आचार्यों ने दंडी को भामह से पूर्ववर्ती माना है पर अब निश्चितव हो गया है कि दंडी भामह के परवर्ती थे। भामह के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। अपने काव्यालंकार ग्रंथ के अंत में इन्होंने स्वयं को "रक्रिलगोमिन्'" का पुत्र कहा है (6-64) "रक्रिल" नाम के आधार पण कुछ विद्वानों ने इन्हें बौद्ध माना है पर अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं क्यों कि भामह ने अपने ग्रंथ में बुद्ध की कहीं भी चर्चा नहीं की है। इसके विपरीत उन्होंने सर्वत्र रामायण व महाभारत के नायकों का निर्देश किया है। अतः वे निश्चित रूप से वैदिक-धर्मावलंबी ब्राह्मण थे। वे काश्मीर-निवासी माने  जाते हैं।भामह अलंकार-संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं।  इन्होंने अलंकार को ही काव्य का विधायक तत्त्व स्वीकार  किया है। इन्होंने ही सर्वप्रथम काव्य-शास्त्र को स्वतंत्र शास्त्र का रूप प्रदान किया और काव्य में अलंकार की महत्ता स्वीकार  की।भामह के अनुसार बिना अलंकारों के कविता कामिनी  उसी प्रकार सुशोभित नहीं हो सकती जि...

बाणभट्ट

 बाणभट्ट,,समय ई. 7 वीं शती। संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ  कथाकार व संस्कृत गद्य के सार्वभौम सम्राट् । संस्कृत के साहित्यकारों में एकमात्र बाण ही ऐसे कवि हैं, जिनके  जीवन के संबंध में पर्याप्त मात्रा में प्रामाणिक जानकारी  उपलब्ध होती है। इन्होंने अपने ग्रंथ "हर्षचरित" की  प्रस्तावना "कादंबरी" के प्रारंभ में अपना परिचय दिया है। इनके पूर्वज सोननद के निकटस्थ प्रीतिकूट नामक नगर के निवासी थे। कतिपय विद्वानों के अनुसार यह स्थान बिहार प्रांत के आरा जिले में "पियरो" नामक ग्राम है, तो अन्य कुछ विद्वान उसे गया जिले के "देव" नामक स्थान के  निकट "पिट्रो" नामक ग्राम मानते हैं । बाण का कुल  पांडित्य के लिये विख्यात था। ये वात्स्यायन गोत्रीय  ब्राह्मण थे। इनके यहां अनेक छात्र यजुर्वेद का पाठ किया  करते थे । कुबेर के चार पुत्र हुए इनमें से पाशुपत के पुत्र  का नाम अर्थपति था। अर्थपति के 11 पुत्र, थे जिनमें से  चित्रभानु के पुत्र बाणभट्ट थे। बाण की माता का नाम  राजदेवी था। इनकी मां का देहांत इनकी बाल्यावस्था में ही हो चुका था। पिता द्वारा ही इनका पालन...

बिल्हण

 बिल्हण-पिता-ज्येष्ठ कलश और माता-नागदेवी। जन्म-काश्मीर के प्रवरपुर के निकटवर्ती ग्राम खानमुख में । कोशिक गोत्री  ब्राह्मण ।बिल्हण के प्रपितामह और पितामह वैदिक वाङ्मय के प्रकांड पंडित थे। इनके पिता ने पतंजलि के महाभाष्य पर टीका लिखी थी। बिल्हण ने वेद, व्याकरण तथा काव्यशास्त्र का अध्ययन काश्मीर में ही पूर्ण किया था । ई. स. 1062-65 के बीच किसी समय बिल्हण ने काश्मीर छोड़ा और देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। अंत में कर्नाटक के चालुकक्यवंशीय सम्राट् विक्रमांक की राजसभा में उन्हें सम्मानपूर्वक आश्रय मिला। वहीं इन्होंने कालिदास के रघुवंश के अनुकरण पर "विक्रमांकदेव-चरित" नामक महाकाव्य लिखा। उनका और पर्याय से बिल्हण का समय 1076-1127 ई. है। बिल्हण का कर्णसुंदरी नामक नाटक और चौरपंचाशिका नामक लघु प्रणयकाव्य भी उपलब्ध है। चौरपंचाशिका के संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार है- बिल्हण का किसी राजकुमारी पर प्रेम था। यह वार्ता राजा को ज्ञात होते ही उसने बिल्हण को मृत्युदंड दिया। जब सिपाही वधस्तंभ की ओर बिल्हण को ले जाने लगे, तब इनके मन में अपने अनुभूत प्रणय की स्मृतियां उभर आर्यी और इन्होंने उन...

✡️ आकर्णधनुरासन✡️

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✡️ आकर्णधनुरासन✡️ स्थिति,,, बैठकर ।  (१) गर्दन न झुकाते हुए दाहिने हाथ से बांये पैर का अंगूठा पकड़ो । बांया पैर दाहिने कान के समीप लाओ।  (२) बायें हाथ से दाहिनाअंगूठा पकड़ो पूर्णस्थिति ।  (३) पाव जमीनपर टिकावो । (६) पूर्वस्थिति -(इसी प्रकार दूसरी बाजू से करना चाहिये।) समय,,३ मिनिट ।  ✡️लाभ👉 सब जोड़ ढीले होते है। पैर, कमर, पेट, घुटनों और जांघो के स्नायु बलिष्ठ होते हैं।

अर्धशीर्षासन

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  अर्धशीर्षासन - स्थिति - बैठकर। क्रम  -(१) दो अंगुल मोटी देढ़ हात वर्गाकार गद्दी या कपड़ों की तह सामने लेकर घुटनों के बल वैठो।  (२) हाथों के साथ कोहनियों का त्रिकोण बनाकर गद्दी पर टिकाओ।  (३) पुट्ठा ऊंचा करके ठुड्डीं गले से लगाकर सिर हाथों के पास टिकाओ।  (४)ठुड्डी न छोड़ते हुए रीढ़ सीधी होने तक पुठ्ठा पीछे ढकेलते हुए पांव उठाकर एड़ियां कुल्हों से लगाकर घुटनों का त्रिकोण बनाओ । पूर्णस्थिति ।  (५) पैर जमीन पर टिकाओं।  (६)घुटनों के बल बैठो।  (७) हाथ निकालो।  (८) पूर्वस्थिति समय, - ३ मि. लाभ👉 मज्जातंतुओं की दुर्बलता, बद्धकोष्ठ, मन्दाग्नि,दमा, अंडवृद्धि, गठियावात, यकृत, प्लीहा, आंत इ. के विकार नष्ट होते हैं। दृष्टि तेज होती है। बाल सफेद नहीं होते, यदि सफेद हये हो तो भी काले होते हैं। बालों का झड़ना बंद होता है। सिर का दर्द मिटता है।

अर्धमत्स्येद्रासन

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अर्धमत्स्येद्रासन   स्थिति ,,बैठकर -  (१) दाहिने पांव की एडी बायी तरफ के पुट्ठे को लगाकर बैठो ।  (२) बायां पांव दाहिने घुटने की दाहिने तरफ रखो।  (३) बायां घुटना दाहिने बगल में दबाकर दाहिने हाथ से बांये पांव का अंगूठा पकड़ी। (दाहिनी भुजा घुटने की बांयी तरफ से लेकर हाथ अंगूठे के उपर औंधा रहे।)  (४) बायां हाथ पीछे से लेकर दाहिनी जंघा पर औंधा रखो। बांयी तरफ सिर घुमाकर पीछे देखो। पूर्णस्थिति  (५) बांया हाथ निकालो।  (६) दाहिना हाथ निकालो।  (७ पांव निकालो।  (८) पूर्वास्थिति (इसी तरह दूसरी तरफ से करो ।)  समय - ३ मिनिट ।  लाभ👉 हाथ, पांव, पेट, कमर, रीढ़, पसलियां, यकृत, प्लीहा इत्यादि को लाभ पहुंचाता है। मूत्रविकार और मधुमेह में लाभ पहुंचाता है, कब्जियत नष्ट होती है। ) 

✡️✡️विषकन्या✡️✡️

हमारे संस्कृत-साहित्य में मुझे "मुद्राराक्षस" नामक विशाखदत्त रचित नाटक में विषकन्या प्रयोग की जानकारी प्राप्त हुयी । इसका प्रयोग शत्रु को समाप्त करने के लिये किया जाता था । खोज करने पर पता चला कि ऐसी विषकन्यायें दो प्रकार की होती थीं । १- तत्काल परिणाम देने वाली, और २- कालान्तर में प्रभावी ।। यहाँ भी दो स्थितियाँ हैं -- मानव-निर्मित और नैसर्गिक । प्रत्येक का प्रमाण नहीं दे पाऊँगा, फिर भी प्रयास कर सकता हूँ । १- मानव-निर्मित --- सम्भवतः आयुर्वेद या चाणक्य ने (अर्थशास्त्र पुस्तक में) यह निर्देशित किया है -- "कोई भी कन्या जब उत्पन्न होती है उसी दिन से उसे नशीली वस्तु और क्रमशः मात्रा बढ़ाते हुए विष प्रयोग(सेवन) की ओर ले जाते हैं । यदि वह बच जाती है और स्वास्थ्य सब ओर से सुन्दर रहता है तब उसका सम्पूर्ण शरीर विषमय हो जाता है ।" ऐसी कन्यायें राजा लोगों के यहाँ विशेष प्रकार से सुरक्षित रखी जाती थीं । समय पर इनका प्रयोग शत्रुपक्ष का समाचार प्राप्त करने एवं शत्रु(राजा) को नष्ट करने के लिए किया जाता था । इससे तत्काल परिणाम भी मिलता था ।। २- नैसर्गि...

अक्षपाद गौतम ,, न्याय सूत्र के रचनाकार

अक्षपाद - समय-सन् 150 के आसपास । न्यायसूत्र के कर्ता ।षो माधवाचार्य ने सर्वदर्शन में न्यायशास्त्र कोअक्षपाददर्शन ही कहा है।द्मपुराण एवं अन्य कुछ पुराणों में कहा गया है कि न्यायशास्त्र गौतम (अथवा गोतम) की रचना है। न्यायसूत्र p> वृत्ति के कर्ता विश्वनाथ ने इस सूत्र को गौतमसूत्र कहा है। संभवतः अक्षपाद और गौतम दोनों ने इसे लिखा हो । गौतम मिथिला के तो अक्षपाद काठियावाड के प्रभास क्षेत्र के थे। ब्रह्मांडपुराण के अनुसार अक्षपाद के पिता सोमशर्मा एवं  कणाद थे। गौतम और अक्षपाद एक ही है ऐसा माना जाता है। ए दंतकथा बताई जाती है- विचारमग्न गौतमकुएँ में गिरे। कठिनाई  से उन्हें बाहर निकाला जा सका। पुनःऐसी स्थिति नहीं हो,  इसलिये उनके पैरों में ही आखें निर्माण की गई।