आपिशलि

 आपिशलि- पाणिनि के पूर्ववर्ती एक वैयाकरण । युधिष्ठिर

मीमांसकजी के अनुसार इनका समय 3000 वि. पू. है। इनके 

मत का उल्लेख 'अष्टाध्यायी', 'महाभाष्य', 'न्यास' एवं

'महाभाष्यप्रदीप' प्रभृति ग्रंथों में प्राप्त होता है। 'महाभाष्य' से

 पता चलता है कि कात्यायन व पतंजलि के समय में ही

इनके व्याकरण को प्रचार व लोकप्रियता प्राप्त हो चुकी थी।

प्राचीन वैयाकरणों में सर्वाधिक सूत्र इनके ही प्राप्त होते हैं।

इससे विदित होता है कि इनका व्याकरण, पाणिनीय व्याकरण के

 समान ही प्रौढ व विस्तृत रहा होगा। इनके सूत्र अनेकानेक 

व्याकरण-ग्रंथों में बिखरे हुए हैं। इन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त 

'धातुपाठ', 'गणपाठ', 'उणादिसूत्र' एवं 'शिक्षा' नामक चार अन्य 

ग्रंथों का भी प्रणयन किया है इनके 'धातुपाठ' के उध्दरण 

'महाभाष्य', 'काशिका', 'न्यास' तथा 'पदमंजरी' में उपलब्ध होते हैं 

तथा 'गणपाठ' का उल्लेख भर्तृहरि कृत 'महाभाष्य-दीपिका' में 

किया गया है। 'उणादि-सूत्र' के वचन उपलब्ध नहीं होते। 'शिक्षा'

 नामक ग्रंथ 'पाणिनीय-शिक्षा' से मिलता-जुलता है। इसका 

संपादन पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने किया है। भानुजी दीक्षित के 

उद्धरण से ज्ञात होता है कि इन्होंने एक कोशग्रंथ की भी रचना 

की थी। इनके 'अक्षरतंत्र' में सामगान विषयक स्तोभ वर्णित हैं। 

इनका प्रकाशन सत्यव्रत सामाश्रमी द्वारा कलकत्ता से हो चुका 

है।

इनके कतिपय उपलब्ध सूत्र इस प्रकार हैं- 'उभस्योभयो

द्विवचनटापोः' (तंत्रप्रदीप, 2-3-8) - 'विभक्त्यन्तं पदम्' आदि। 

न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि ने उनके धातुपाठ का निर्देश किया है कि-

 आपिशलि अस् धातु का 'स' मात्र स्वीकार करते हैं, पाणिनि के 

समान असू भुवि ऐसा उनका पाठ नहीं है। अस्ति आदि में गुण 

(अट्) और आसीत् आदि में वृद्धि (आर्) का आगम मान कर 

आपिशलि रूप-सिद्धि मानते हैं।

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