अभिनवगुप्त

 अभिनवगुप्त

भरत रचित नाट्यशास्त्र के प्रणयन के पश्चात शताब्दियों तक इस विषय पर जो चिन्तन हुआ, वह लेखबद्ध रूप में प्रायः अनुपलब्ध है। कवि तथा नाटककार व्यवहार में नाट्यसिद्धान्तों का अनुसरण करते रहे तथा प्रसंगवश किसी शास्त्रीय विषय पर अभिमत भी प्रकट करते. रहे। इस चिन्तन-परम्परा का परिचय आचार्य अभिनवगुप्त की 'अभिनवभारती' नामक नाट्यशास्त्र की टीका से मिलता है।

अपने विषयगत मौलिक विवेचन के कारण, उनके द्वारा व्याख्यात तथा निर्णीत सिद्धान्तों को प्रमाणभूत समझा जाता है। नाट्य तथा काव्यशास्त्र के परवर्ती चिंतक इनके ऋणी हैं। आचार्य अभिनवगुप्त का समय 950 ई. से 1030 इनका वंश शिव-भक्ति के लिए प्रसिद्ध था । वे शैव-प्रत्यभिज्ञादर्शन के सिद्ध तथा मान्य आचार्य थे। उनका सारा चिंतन इसी दर्शन से प्रभावित है। वे नाट्यशास्त्र के 36अध्यायों की संगति, शैव दर्शन के 36 त्त्ों से बिठलाते

हैं। उनकी अधिकांश रचनाएं उक्त दर्शन की विविध शाखाओं पर है। साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में ध्वन्यालोकलोचन तथा अभिनवभारती नामक दो टीका-ग्रंथों के आधार पर ही वे आचार्य-पद पर अभिषिक्त हुए। वे प्राचीन परम्परा को उसके मूलभूत प्रमाणित रूप में जानते थे, जब कि परवर्ती आचार्य इन परंपराओं का अधिकांश अभिनवगुप्त के उद्धरणों से जानते है। नाट्य के प्राणभूत तत्व 'रस' के पारंपारिक विवेचन की समीक्षा के उपरान्त अभिनवगुप्त ने ही इसके ता्विक स्वरूप को स्पष्टतापूर्वक उद्घाटित तथा प्रतिष्ठित किया।आचार्य अभिनव गुप्त के कथन से ज्ञात होता है कि इनके पूर्वज अंतर्वेद (दोआव) के निवासी थे, किंतु बाद में काश्मीर में जाकर बस गए। पिता-नृसिंह गुप्त । पितामह-वाराहगुप्त। पिता का अन्य नाम 'चुखल', और माता का विमला या विमलकला। ब्राह्मण-कुल। आपने अपने 13 गुरुओं का विवरण प्रस्तुत किया है जिनमें प्रसिद्ध हैं- नृसिंहगुप्त (इनके पिता), व्योमनाथ, भूतिराजतनय, इन्दुराज, भूतिराज और भट्टतौत।आप परम शिवभक्त तथा आजीवन ब्रह्मचारी थे।इन्होंने अनेक विषयों पर 41 ग्रंथों का प्रणयन किया है उनमें से प्रकाशित 11 ग्रंथों के नाम हैं- 1. बोधपंचदशिका।(शिवभक्तिविषयक 15 श्लोक), 2. परात्रिंशिंका-विवरणभरत कृत नाट्यशास्त्र के प्रणयन के पश्चात् है

(तंत्रशास्त्र का प्रंथ), 3. मालिनीविजयवार्तिक (मालिनीविजयतंत्रनामक प्रंथ का वार्तिक), 4. तंत्रालोक (तंत्रशास्त्र का आकर प्रंथ) 5-6. तंत्रसार, तंत्रवटधानिका, 7-8. ध्वन्यालोकलोचन व अभिनव-भारती (ध्वन्यालोक' व भरत-नाट्य-शास्त्र की टीकाएं), 9. भगवद्गीतार्थसंग्रह ( गीता की व्याख्या), 10.परमार्थसार (105 श्लोकों का शैवागम-ग्रंथ) और 11.प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (उत्पलाचार्यकृत ईश्वरप्रत्यभिज्ञासूत्र की टीका।यह ग्रंथ 4 हजार श्लोकों का है)। जयरथ ने 'तंत्रालोक'पर 'विवेक' नामक टीका की रचना की है।

अभिनवगुप्त के प्रकाशित उक्त 11 व शेष 39 अप्रकाशित ग्रंथों को 3 वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- दार्शनिक,साहित्यिक और तांत्रिक। इनकी लेखन-साधना की अवधि,980 ई. से लेकर 1020 ई. तक सिद्ध होती है। आप उच्चकोटि के कवि, महान् दार्शनिक एवं साहित्य-समीक्षक हैं।इन्होंने रस को काव्य में प्रमुख स्थान देकर उसकी महत्ताप्रतिपादित की है। इनका रसविषयक सिद्धान्त, 'अभिव्यक्तिवाद'

कहा जाता है जो मनोवैज्ञानिक भित्ति पर आधारित है। इन्होंनेव्यंग-रस को काव्य की आत्मा माना है। अभिनवगुप्त, काश्मीरीय प्रत्यभिज्ञार्शन के महान् आचार्य हैं। अपने 'प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी'नामक ग्रंथ में, इन्होंने अपने वंश का वर्णन किया है।शंकराचार्य से उनका वादविवाद हुआ, तथा आचार्य द्वारा हराये गए गुप्तजी उनके शिष्य हुए ऐसी भी एक कथा प्रचलित है पर उनका शिष्यत्व ऊपरी दिखावा मात्र था। हृदय में वे आचार्य से बड़े अप्रसन्न थे, तथा अपनी हार का बदला लेना चाहते थे। तब जारणमारणादि उपाय से उन्हेोंने शंकराचार्य को भगंदर से पीडित किया, आचार्य बड़े त्रस्त हुए। रोग ने हटने का नाम नहीं लिया। सब शिष्यगण भी दुःखित हुए। अन्त में इन्द्र द्वारा प्रेरित अश्विनीकुमार प्रकट हुए, तथा उन्होंने इस रोग का भेद बतलाया। आचार्य के शिष्यों ने देववैद्यों द्वारा

बताए हुए मांत्रिक उपाय से रोग हटाया रोग के दूर होते

ही अभिनवगुप्त की तत्काल मृत्यु हो गई।।

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