✡️बूल्हर जे. जी✡️ पाश्चात्य संस्कृत विद्वान

 बूल्हर जे. जी.- जर्मनी के प्राच्य-विद्या-विशारद । जर्मनी में

19 जुलाई 1837 ई. को जन्म । हनोवर-राज्य के अंतर्गत,

वोरलेट नामक ग्राम के निवासी। एक साधारण पादरी की

संतान । शैशव से ही धार्मिक रुचि । उच्च शिक्षा प्राप्ति के

हेतु गार्टिजन विश्वविद्यालय में प्रविष्ट व वहां संस्कृत के अनूदित

ग्रंथों का अध्ययन। 1858 ई. में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त

की, और भारतीय विद्या के अध्ययन में सलान हुए। आर्थिक

संकट होते हुए भी बड़ी लगन के साथ भारतीय हस्तलिखित

पोथियों का अन्वेषण कार्य प्रारंभ किया। तदर्थ आप पेरिस,

लंदन व ऑक्सफोर्ड के इंडिया आफिस-स्थित विशाल ग्रंथागारों

में उपलग सामग्रियों का आलोडन करने के लिये गए।

संयोगवश लंदन में मैक्समूलर से भेट होकर इस कार्य में

पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लंदन में ये विंडसर के राजकीय

पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्य के रूप में नियुक्ति हुए व

अंततः गार्टिजन-विश्वद्यिालय पुस्तकालय में

सह-पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में इनकी नियुक्ति हुई। भारतीय

विद्या के अध्ययन की उत्कट अभिलाषा के कारण ये भारत

आए और मैक्समूलर की संस्तुति के कारण बंबई-शिक्षा-विभाग

के तत्कालीन अध्यक्ष हार्वड ने इन्हें मुंबई-शिक्षा विभाग में

स्थान दिया। यहां ये 1863 ई. से 1880 ई. तक रहे।

विश्वविद्यालय का जीवन समाप्त होने पर इन्होंने स्वयं को

लेखन-कार्य में लगाया और "ओरिएंट एण्ड ऑक्सीडेंट' नामक

पत्रिका में भाषा-विज्ञान व वैदिक शोधविषयक निबंध लिखने

लगे। इन्होंने "बंबई संस्कृत-सीरीज' की स्थापना की, और

वहां से 'पंचतंत्र", "दशकुमार-चरित" व "विक्रमांकदेवचरित"

का संपादन व प्रकाशन किया। सन् 1867 में सर रेमांड वेस्ट

नामक विद्वान के सहयोग से इन्होंने “डाइजेस्ट-ऑफ हिंदू लॉ"

नामक पुस्तक का प्रणयन किया। इन्होंने संस्कृत की हस्तलिखित

पोथियों की खोज का कार्य अक्षुण्ण रखा, और 1868 ई.

में एतदर्थ शासन की ओर से बंगाल, मुंबई व मद्रास में

संस्थान खुलवाये। डा. कौलहान, बूल्हर, पीटर्सन, भांडारकर,

बर्नेल प्रभृति विद्वान भी इस कार्य में लगे। बूल्हर को मुंबई

शाखा का अध्यक्ष बनाया गया। बूल्हर ने लगभग 2300

पोथियों को खोज कर उनका उद्धार किया। इनमें कुछ

बर्लिन-विश्वद्यिालय में गयीं तथा कुछ पोथियों को इंडिया

अफिस लाइब्रेरी लंदन में रखा गया। सन् 1887 में इन्होंने

लगभग 500 जैन ग्रंथों के आधार पर जर्मन भाषा में

धर्म-विषयक एक ग्रंथ की रचना की, जिसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई।

इस प्रकार अनेक वर्षों तक निरंतर अनुसंधान-कार्य में

जुटे रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिरने लगा । अतः आरोग्य

लाभ हेतु, ये वायना (जर्मनी) चले गए। वायना-विश्वविद्यालय

में इन्हें भारतीय साहित्य व तत्त्वज्ञान के अध्यापन का कार्य

मिला। वहां इन्होंने 1886 ई. में "ओरीएंटल इन्स्टीट्यूट" की

स्थापना की और “ओरीएंटल जनेल" नामक पत्रिका का

प्रकाशन इन्होंने किया। इन्होंने 30 विद्वानों के सहयोग से "

एनसायक्लोपेडिया ऑफ इंडो-आर्यन रिसर्च” का संपादन-कार्य

प्रारंभ किया किन्तु इसके केवल 9 भाग ही प्रकाशित हो सके।

अपनी मौलिक प्रतिभा के कारण, बूल्हर विश्वविश्रुत विद्वान

हो गए। एडिनबरा-विश्वविद्यालय ने इन्हें डाक्टेट की उपाधि

से विभूषित किया। दि. 8 अप्रैल 1898 ई. को झील मे

नौका-विहार करते हुए ये अचानक जल-समाधिस्थ हो गए।

उस समय आपकी आयु 61 वर्ष की थी।



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