बिल्हण

 बिल्हण-पिता-ज्येष्ठ कलश और माता-नागदेवी। जन्म-काश्मीर

के प्रवरपुर के निकटवर्ती ग्राम खानमुख में । कोशिक गोत्री 

ब्राह्मण ।बिल्हण के प्रपितामह और पितामह वैदिक वाङ्मय के

प्रकांड पंडित थे। इनके पिता ने पतंजलि के महाभाष्य पर

टीका लिखी थी। बिल्हण ने वेद, व्याकरण तथा काव्यशास्त्र

का अध्ययन काश्मीर में ही पूर्ण किया था ।

ई. स. 1062-65 के बीच किसी समय बिल्हण ने काश्मीर

छोड़ा और देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। अंत में

कर्नाटक के चालुकक्यवंशीय सम्राट् विक्रमांक की राजसभा में

उन्हें सम्मानपूर्वक आश्रय मिला। वहीं इन्होंने कालिदास के

रघुवंश के अनुकरण पर "विक्रमांकदेव-चरित" नामक महाकाव्य

लिखा। उनका और पर्याय से बिल्हण का समय 1076-1127

ई. है।

बिल्हण का कर्णसुंदरी नामक नाटक और चौरपंचाशिका

नामक लघु प्रणयकाव्य भी उपलब्ध है।

चौरपंचाशिका के संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार है-

बिल्हण का किसी राजकुमारी पर प्रेम था। यह वार्ता राजा

को ज्ञात होते ही उसने बिल्हण को मृत्युदंड दिया। जब

सिपाही वधस्तंभ की ओर बिल्हण को ले जाने लगे, तब

इनके मन में अपने अनुभूत प्रणय की स्मृतियां उभर आर्यी

और इन्होंने उन्हें श्लोकबद्ध किया। उन श्लोकों' को सुन कर

राजा का मन द्रवित हुआ। उसने बिल्हण को मुक्त किया

तथा उनका राजकन्या के साथ विवाह भी कर दिया।

ऐतिहासिक घटनाओं के निदर्शन में ये बड़े जागरूक रहे

हैं। दर्भी-मार्ग के कवि हैं। बिल्हण ने राजाओं की कीर्ति

ओर अपकीर्ति प्रसारण का कारण, कवियों को माना है। इनके

महाकाव्य का सर्वप्रथम प्रकाशन जे.जी. बूल्हर द्वारा 1875

ई. में हुआ था। फिर हिन्दी अनुवाद के साथ वह चौखंबा

विद्याभवन से प्रकाशित हुआ।



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