कल्हण

 कल्हण

"राजतरंगिणी" नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य के रचयिता । काश्मीर के निवासो । आढ्यवंशीय कल्हण

ब्राह्मण कुल में जन्म। इन्होंने अपने संबंध में जो कुछ अंकित किया है, वही उनके जीवनवृत्त का आधार है। "राज तरंगिणी"की प्रत्येक तरंग की समाप्ति में "इति काश्मीरिक महामात्य श्रीचम्पकप्रभुसूनोः कल्हणस्य कृतौ राजतरङ्गण्यां" यह वाक्य अंकित है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम चम्पक था और वे काश्मीर नरेश हर्ष के महामात्य थे।

काश्मीर नरेश हर्ष का शासन काल 1089 से 1101 ई. तक था  चंपक के नाम का कल्हण ने अत्यंत आदर के साथ उल्लेख किया है। इससे उनके कल्हण के पिता होने में किसीभी प्रकार का संदेह नहीं रह पाता ।कल्हण ने चंपक के अनुज कनक का भी उल्लेख किया है जो हर्ष के कृपापात्रों में से थे। उन्होंने परिहारपुर को कनक का निवास स्थान कहा है और यह भी उल्लेख किया है कि जब राजा हर्ष बुद्ध प्रतिमाओं का विध्वंस कर रहे थे तब कनक ने अपने जन्मस्थान की बुद्धप्रतिमा की रक्षा की थी। (राजतरंगिणी 7/1097) । कल्हण के इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि इनका जन्मस्थान परिहारपुर था और ये स्वयं बौद्धधर्म का आदर करते थे। कल्हण शैव थे। इस तथ्य की पुष्टि "राजतरंगिणी" की प्रत्येक तरंग में अर्धनारीश्वर शिव की वंदना से होती है। कल्हण का वास्तविक नाम कल्याण था और वे अलकदत नामक किसी व्यक्ति के आश्रय में रहते थे। इन्होंने सुस्सल के पुत्र राजा जयसिंह के राज्यकाल में (1127 से 1159 ई.) "राजतरंगिणी" का प्रणयन किया था। इस महाकाव्य का लेखन दो वर्षों में (1148 से 1150 ई.) हुआ था। शैवमतानुयायी होते हुए भी कल्हण बौद्ध धर्म के अहिंसा तत्व के पूर्ण प्रशंसक थे। इन्होंने बौद्धों की उदारता, अहिंसा व भावनाओं की पवित्रता की अत्यधिक प्रशंसा की है। राजा के गुणों की ये बोधिसत्व से तुलना करते हैं। (राज 1/34, 1/138) । "श्रीकण्ठचरित" में कल्हणकी प्रशस्ति प्राप्त होती है। (25/78, 25/79 व 25/80) ।

कल्हण की एकमात्र रचना "राजतरंगिणी ही प्राप्त होती है। इसमें उन्होंने अल्यंत प्राचीन काल से लेकर 12 वीं शाताब्दी तक काश्मीर का इतिहास अंकित किया है और ऐतिहासिक शुद्धता एवं रचनात्मक साहित्यिक कृति, दोनोंआवश्यकताओं की पूर्ति की है। उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण, कई स्त्रोतों से प्रहण कर, उसे पूर्ण बनाया है। कल्हण का व्यक्तित्व, एक निष्पक्ष व प्रौढ ऐतिहासिक का है। राजतरंगिणी के प्रारंभ में उन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि "वही गुणवान कवि प्रशंसा का अधिकारी है, जिसकी वाणी, अतीत का चित्रण करने में घूणा या प्रेम की भावनाओं से मुक्त और निश्चित होती है। ("श्लाध्यः स एव गुणवान् रागदवे बहिष्कृता।

भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्पेव सरस्वती" -11 1/7) । कल्हण ने इतिहास के वर्णन में इस आदर्श का पूर्णतः पालन किया है। कवि के रूप में उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रखर है। उन्होंने स्वयं को इतिहासवेत्ता न मान कर, एक कवि के रूप में ही प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं अमृत का पान करने से केवल पीने वाला ही अमर होता है, किन्तु सुकवि की वाणी, कवि एवं वर्णित पात्रों, दोनों के ही शरीर को अमर कर देती है। (राज 1/3)। इनके उल्कृष्ट कवित्व ने ही काश्मीर के इतिहास को प्रकाशित किया

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