✡️भर्तृमेण्ठ✡️

 भर्तृमेण्ठ - "हयग्रीव-वध" नामक महाकाव्य के प्रणेता । यह

काव्य अभी तक अनुपलब्ध है किंतु इसके श्लोक क्षेमेंद्र-रचित

"सुवृत्ततिलक", भोजकृत "सरस्वती-कंठाभरण' व श्रृंगार-

प्रकाश" एवं "काव्य-प्रकाश" प्रभृति रीतिग्रंथों व सूक्ति-ग्रंथों

में उद्घृत किये गये हैं। इनका विवरण कल्हण की "राजतरंगिणी"

में है।

कहते हैं कि मेंठ हाथीवान् थे। मेंठ शब्द का अर्थ भी

महावत होता है। लोगों का अनुमान है कि विलक्षण प्रतिभा

के कारण ये महावत से महाकवि बन गए। इनके आश्रयदाता

काश्मीर-नरेश मातृगुप्त थे  इनका समय ई. 5 वीं शती है।

सूक्ति-ग्रंथों में कुछ पद "हस्तिपक" के नाम से प्राप्त होते

हैं। उन्हें विद्वानों ने भर्तुमेण्ठ की ही कृति स्वीकार किया है।

इनकी प्रशंसा में धनपाल का एक श्लोक मिलता है जिसमें

कहा गया है कि जिस प्रकार हाथी महावत के अंकुश की

चोट खाकर बिना सिर हिलाये नहीं रहता, उसी प्रकार भर्तृमेण्ठ

का काव्य श्रवण कर सहृदय व्यक्ति आनंद से विभोर होकर

सिर हिलाये बिना नहीं रहता।

"राजतरंगिणी" में कहा गया है कि अपने "हयग्रीव-वध"

काव्य की रचना करने के पश्चात् मेंठ किसी गुणग्राही राजा

की खोज में निकले और काश्मीर-नरेश मातृगुप्त की सभा

में जाकर उन्होंने अपना काव्य सुनाया। काव्य की समाप्ति

होने पर भी मातृगुप्त ने उनके काव्य के गुण-दोष के संबंध

में कुछ भी नहीं कहा। राजा के इस मौनालंबन से मेंठ को

बडा दुख हुआ और वे अपना काव्य वेष्टन में बांधने लगे।

इस पर राजा ने काव्य-ग्रंथ के नीचे सोने का थाल इस भाव

से रख दिया कि कहीं काव्य-रस भूमि पर न जाय । राजा

की इस सहृदयता व गुणग्राहकता को देख मेंठ बडे प्रसन्न

हुए, उन्होंने उसे अपना सत्कार माना तथा राजा द्वारा दी गई

संपत्ति को पुनरुक्त के सदृश्य समझा । इनके संबंध में अनेक क

की प्रशस्तियां प्राप्त होती है।

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