उद्योतकार,, न्यायवार्तिक

 उद्योतकार,, न्यायवार्तिक ,,समय- ई. षष्ठ शताब्दी । शैव आचार्य । बौद्ध पंडित धर्मकीर्ति के समकालिक।वात्स्यायनभाष्य' पर 'न्यायवार्तिक' नामक टीका-ग्रंथ के रचयिता । इन्होंने अपने

'न्यायवार्तिक' ग्रंथ का प्रणयन, दिङ्नाग प्रभृति बौद्ध नैयायिकों के तको का खंडन करने हेतु या था। अपने इस ग्रंथ में बौद्ध-मत का पांडित्यपूर्ण निरास कर, ब्राह्मण-न्याय की निर्दुष्टता प्रमाणित की है । सुबंधु वन 'वासवदत्ता' में इनकी महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की गई है- 'न्यायसंगतिमिव उद्योतकरस्वरूपाम्' ।स्वयं उद्योतकर ने अपने ग्रंथ का उद्देश्य निम्न श्लोक में प्रकट किया है-

"यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद।

कुतार्विकाज्ञाननिवृत्तिहेतोः, करिष्यते तस्य मया प्रबंधः ।।"

ये भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण तथा पाशुपत-संप्रदाय के अनुयायी थे- ('इति श्रीपरमर्षिभारद्वाज-पाशुपताचार्य श्रीमदुद्योतकरकृतौ न्यायवार्तिके पंचमोऽध्याय' ।) आप पाशुपताचार्य के नाम से भी जाने जाते थे। आपने दिङ्नाग के आक्रमण से क्षीणप्रभ हुए न्याय-विद्या के प्रकाश को पुनरपि उद्योतित कराते हुए, अपने शुभनाम की सा्थकता सिद्ध की । इनका यह ग्रंथ अत्यंत प्रौढ व पांडिंत्यपूर्ण है। कतिपय विद्वान काश्मीर को इनका निवास-स्थान मानते हैं, तो अन्य कुछ विद्वान मिथिला को ।

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