अप्पय दीक्षित-
अप्पय दीक्षित
अप्पय दीक्षित- ई. 17-18 वीं शती। द्रविड ब्राह्मण।पिता-नारायण दीक्षित। बारह वर्ष की आयु में पिता के पास अध्ययन पूर्ण। पिता व पितामह अद्वैती होने से आपने अद्वैत मत का प्रसार किया, और श्रीशंकाराचार्य की अद्वैत-परंपरा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य बने । शैव होने पर भी अप्पय अनाग्रही थे।
मुरारौ च पुरारौ च न भेदः पारमार्थिकः।
तथापि मामकी भक्तिश्चन्द्रचूडे प्रधावति ।।
अर्थ- विष्णु व शिव में परमार्थतः भेद नहीं, पर मेरीभक्ति चंद्रशेखर-शिव के प्रति ही है।
शैव-सिद्धान्त की स्थापना हेतु आपने शिवारक-मणिदीपिका,शिवतत्त्वविवेक, शिवकर्णामृत आदि ग्रंथों का प्रणयन किया।शांकरसिद्धान्त में वाचस्पति मिश्र, रामानुजमत में सुदर्शन एवं माध्वमत में जयतीर्थ का जो स्थान है, वही स्थान श्रीकंठ संम्प्रदाय में, 'शिवार्क-मणिदीपिका' की रचना के कारण अप्पयदीक्षित का माना जाता है।
कुवलयानंद, चित्रमीमांसा आदि साहित्यिक ग्रंथों के कर्ताअप्पय दीक्षित, कट्टर शिवभक्त थे। एक समय वे अनवधानं से विष्णु-मंदिर में गए। वहां विष्णु-मूर्ति के सम्मुख ही उन्होंने शिवाराधना शुरू की। शिवभक्ति में वे इतने तल्लीन हो गए कि विष्णुमूर्ति शिवलिंग में परिवर्तित हो गई । दर्शनार्थी लोमों ने यह चमत्कार देखा तथा उन्हें बताया। तब उन्हें सत्य प्रतीतहुआ। फिर उन्होंने विष्णुस्तुति प्रारंभ की तथा उसमें लीन हो गए। तब थोड़े ही समय में मंदिर में फिर विष्णुमूर्ति विराजमान हुई दिखाई दी। दर्शनार्थी लोग यह देख बड़े आश्चर्यचकित हुए तथा अप्पय दीक्षित के प्रति उनके मन में आदर की वृद्धि हुई।
प्रसिद्ध वैयाकरण, दार्शनिक एवं काव्यशास्त्री अप्पय दीक्षित,संस्कृत के सर्वतंत्रस्वतंत्र विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने विविध विषयों पर 104 ग्रंथों का प्रणयन किया है। ये दक्षिण भारत के निवासी तथा तंजौर के राजा शाहजी भोसले के सभा-पंडित थे। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथों कां विवरण इस प्रकार है- (1) अद्वैत वेदांत विषयक 6 ग्रंथ, (2)भक्तिविषयक 26 ग्रंथ, (3) रामानुज-मत-विषयक 5 ग्रंथ,(4) मध्वसिद्धांतानुसारी 2 ग्रंथ, (5) व्याकरणसंबंधी ग्रंथ-नक्षत्रवादावली, (6) पूर्वमीमांसाशास्त्रसंबंधी 2 ग्रंथ, (7)अलंकार-शास्त्र विषयक 3 ग्रंथ वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा तथा कुवलयानंद । इनमें से प्रथम दो ग्रंथ अधूरे रह गए तीसरा ग्रंथ 'कुवलयानंद', अप्पय दीक्षित की अलंकारविषयक अत्यंत लोकप्रिय रचना है। इसमें शताधिक अलंकारों का निरूपणहै। इन ग्रंथों के अतिरिक्त इनके नाम से प्राकृतमणिदीप और वसुमतीचित्रसेनीय नामक दो नाटक भी हैं
अप्पय के गुणों पर लुब्ध होकर, चंद्रगिरि (आंध्र) के राजा वेंकटपति रायलु ने उनके परिवार एवं विद्यार्थियों के लिये अग्रहार दिया था। दक्षिण की अनेक राजसभाओं में भी
उन्हें बिदागी एवं मानसम्मान प्राप्त होता रहा। आपने कावेरी के किनारे अनेक यज्ञ किये। काशी में वास्तव्य किया वहीं पर पंडितराज जगन्नाथ से भेंट हुई। जगत्राथ पंडित ने इनकी चित्रमीमांसा' का खंडन किया है। दार्शनिक दृष्टि से वे निर्गुणब्रह्मवादी थे पर उस ब्रह्म की उपलब्धि के लिये साधन के रूप में उन्होंने सगुणोपासना स्वीकार की। अप्पय दीक्षित के समय के बारे में विद्वानों में मतभेद है।
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