महर्षि वेदव्यास

 🌼महर्षि वेदव्यास🌼

व्यास (भगवान्) एक अलौकिक व्यक्तित्व के महापुरुष।महाज्ञानी ग्रंथकार थे। वर्ण से काले थे, अतः ' कृष्ण ' कहलाये।द्वीप पर जन्म होने से ' द्वैपायन ' भी कहे गये। " कृष्णद्वैपायन"नाम से भी संबोधित किये गये। " वेदान् विव्यास" वेदों के विभाग करने से व्यास संज्ञा प्राप्त। पराशर पुत्र होने से ' पाराशर्य ' भी कहा जाता रहा। बदरी-वन में तपस्या करने के कारण ' बादरायण ' भी कहलाते थे। विद्वज्जन उन्हें " वेदव्यास"कहते थे। यह सर्वमान्य लोकोक्ति है कि संसार का सारा ज्ञान व्यास की जूठन है।" व्यासोच्छिष्ट जगत् सर्वम् " अर्थात सारा ज्ञान उन्हें प्राप्त था। वेदोत्तर-काल से आज तक वे भारतीय संस्कृति के महाप्राण रहे हैं। इतिहास-पुराणों की रचना,प्राचीन युग की विस्मृतप्राय विद्या-कला का पुनरुज्जीवन, वेदवेदांग का संकलन, संपादन, विभाजन आदि के द्वारा व्यासजी ने भारतीय संस्कृति का सारा ज्ञान अक्षुण्ण रखा। उन्हें भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता है। व्यास यह नाम व्यक्तिवाचक नहीं। यह एक उपाधि है। पुराणों के अनुसार प्रत्येक द्वापर युग में एक-एक महनीय पुरुष " व्यास" होता है।

द्वापरे द्वापरे विष्णुासरूपी महामुने।

वेदमेकं सबहुधा कुरुते जगतो हितः ।।

अर्थ- हे महामुने, प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यासरूप से अवतार लेते हैं और विश्व के हितार्थ एक वेद का विभाग करतेहैं। अभी तक ऐसे 28 व्यास हो गये हैं। कृष्णद्वैपायन अंतिम थे। देवीभागवत मे संपूर्ण नामावली दी है।

व्यासजी का जन्म पराशर ऋषि और धीवर-कन्या सत्यवती(मत्स्यगंधा) से हुआ। इतिहासज्ञों द्वारा यह काल संभवतःईसा पूर्व 3100 का माना गाया है। व्यास का विवाह जाबलि की कन्या वटिका से हुआ। उनके पुत्र का नाम शुक था। धृतराष्ट्र और पंडु, बीजदृष्टि से नियोग पद्धति से उत्पन्न,व्यास-पुत्र ही थे। दासी से जन्मा विदुर भी उनका ही पुत्र था। आपका आश्रम सरस्वती के किनारे पर था। वहीं से वे हस्तिनापुर आते-जाते थे। वे कौरव-पांडवों को सदा उपदेश दिया करते थे। पांडव जब वनवास में थे, उस समय उन्होंने युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति नामक सिद्धविद्या दी थी। कृष्ण जब स्वर्ग सिधारे तो अर्जुन उनकी पत्नियों को लेकर हस्तिनापुर लौटे। मार्ग में उन-पर आभीर-गणों ने आक्रमण किया। अर्जुन उनका प्रतिकार नहीं कर सके। विव्हल हो अर्जुन जब व्यास के पास पहुंचे, तो उन्होंने कालचक्र की अनिवार्यता उन्हें समझायी

कालमूलमिदं धनंजय सर्व जगबीजं।

काल एवं समादत्ते पुनरेव यदृच्छया स

एव बलवान् भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः।(म.भा. मौसल)8-33-34

काल सभी जागतिक घटनाओं का एवं विश्व-संहार का बीज है। काल ही अपनी शक्ति से विश्व को खा जाता है। कभी वह बलवान् होता है, कभी दुर्बल।व्यासजी के पुत्र थे शुक जो बचपन से ही वीतराग थे।जनक से आत्मज्ञान प्राप्त कर वे जीवन्मुक्त हो गये थे। उन्होने  हिमालय से होकर निर्वाण-मार्ग पर बढ़ने का निश्चय किया। ने व्यासजी इससे व्यथित हुए। अपना जीवन अर्थशून्य मानकर उन्होंने आत्महत्या का निर्णय किया। उस समय भगवान् शंकर ने दर्शन देकर उन्हें परावृत्त किया। 

व्यास नामक कोई व्यक्ति थे या नहीं, इस बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने सन्देह व्यक्त किया है पर भारतीय विद्वानोंने उन्हें मान्य किया है। वे वैदिक ऋषि थे। पराशर पिताएवं वसिष्ठ पितामह, यह परंपरा ब्राह्मण एवं उपनिषदों में भीअविच्छिन है। बोधायन एवं भारद्वाज के गृह्यसूत्र में भी व्यासजी का उल्लेख पराशर-पुत्र के रूप में है। पाणिनि भी एक सूत्र में कह गये हैं कि व्यास पराशर-पुत्र थे। (अष्टाः4-3-110) आद्य शंकराचार्य ने अपनी गुरुपरंपरा व्यासजी से ही बतलाई है। बौद्ध-साहित्य में कृष्ण-द्वैपायन नाम कण्हद्वैपायन बताया गया है। उन्हें बुद्ध का ही एक अवतार माना है।अश्वघोष के सौंदरनंद नामक ग्रंथ में व्यास और उनके पूर्वजों का निर्देश है। पुराण परंपरा में तो उन्हें इस भांति नमन किया गया है:

व्यासं वसिष्ठानप्तारं शक्तेः पौत्रकल्मषम्।

पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ।।

भारतीय संस्कृति का सर्वांग यथावत् ज्ञान प्राप्त करना हो, तो व्यास, रचित ग्रंथों का अध्ययन करना अपरिहार्य है

व्याससाहित्य भारतीय संस्कृति का मेरुदंड है। व्यासरचित एवं व्यास-संपादित ग्रंथों को " व्यासचर्या" कहा गया है। वराहपुराण के अनुसार (175-9) " व्यासचर्या ' के अध्ययन से आत्मा विशद एवं शुद्ध बनती है।

आदियुग में जब वेदाध्ययन कठिन होने लगा, तो व्यासजी ने यज्ञसंस्था के लिये उपयुक्त और परंपरा से वेद टिके रहे इस दृष्टि से वेद राशि को चार भागों में विभक्त किया और अपने चार शिष्यों को उनका ज्ञान कराया। बहुऋचात्मक ऋग्वेदसंहिता पैल को, निगदाख्य यजुर्वेदसंहिता वैशम्पायन को, छंदोग नामक सामवेदसंहिता जैमिनी को एवं आंगिरसी नामक अथर्वसंहिता सुमंतु को दी।व्यासकृत यह वेद-विभाजन सर्वमान्य हुआ है।वेदों में भगवान् के निर्विशेष रूप का जो प्रतिपादन हुआ है, उसके प्रतिपादन की अभिव्यक्ति का दर्शन अपने" ब्रह्मसूत्र "द्वारा प्रस्तुत कर, आपने एक बड़ी कमी पूरी की। व्यासकृत,ब्रह्मसूत्र में अध्यात्म के सिद्धान्त सूत्ररूप में अथित किये गये हैं।शंकराचार्य, निंबार्काचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य आदि आचार्योन ब्रह्मसूत्र को ही आधार मान कर अपने-अपने दर्शन निर्माण किये।

प्राचीन काल में पुराणों का स्वरूप अव्यवस्थित था। वह सूत-मागधों के विभिन्न गुटों में बिखरा हुआ था। व्यासजी नेउसे एकत्र कर सुबद्ध पुराणसंहिता तैयार की और अपने शिष्य लोमहर्षण को उसका प्रसार करने की आज्ञा की। लोमहर्षण ने व्यास-संहिता के आधार पर अपनी एक पुराण-संहिता तैयार की और अपने छह शिष्यों को उसका प्रसार करने के लिये कहा। इस भांति मूल एक पुराण के 18 पुराण बने। इस प्रकार पुराण वाङ्मय के प्रवर्तक व्यास ही थे। उनकी समस्त ग्रंथ-संपदा में महाभारत की महिमा अलौकिक है। व्यासजी की कीर्ति का वह जयस्तंभ है। उसे " पंचमवेद" कहा गया है

हिमालय के नर-नारायण नामक दो पर्वतों के बीच से भागीरथी प्रवाहित है। उसके किनारे विशाला बदरी नामक स्थान है। महाभारत युद्ध के बाद वहीं अपना आश्रम स्थापित कर उन्होंने निवास किया, एवं तीन वर्षों तक सतत कार्यरत रहकर, “महाभारत " की आद्यसंहिता तैयार की।अपने ग्रंथों द्वारा व्यासजी ने राजसत्ता का विस्तृत और सुयोग्य मार्गदर्शन किया है। उनके मतानुसार राजधर्म बिगड़ गया तो वेद, धर्म, वर्ण, आश्रम, त्याग, तप, विद्या सभी का नाश होता है।आपने धर्म का जो विवेचन किया है, वह उनके महान ऋषित्व का दर्शन है। व्यक्ति, राष्ट्र, समग्र जीवन, लोक और परलोक का जो “धारण" करता है, वही धर्म है, यह उनकी व्याख्या है।धर्म जीवन-धारण की उत्तम वस्तु है, तो जीवन भी उतना ही मूल्यवान् होना चाहिये। उनके अनुसार जीवन रोने के लिये नहीं, वह आनंदमय है। वे जिस भांति कर्मवाद को मानते हैं, उसी भांति दैववाद को भी। उनका केन्द्रबिन्दु देवता नहीं, मनुष्य है।

गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि।

न हि मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित्।

(म.भा. शांति 1-10-12)

अर्थ मैं यह रहस्यज्ञान आपको कराता हूं कि इस संसार में, मनुष्य को छोड कर और कोई श्रेष्ठ नहीं। इसी कारण उन्होंने पुरुषार्थ का उपदेश किया। पाणि याने हाथ याने पुरुषार्थ। इसी लिये उन्होंने इन्द्र के मुख से " पाणिवाद" की प्रशंसा की है।

अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः।

अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः ।।

पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकं यथा तव धनस्य वै।

न पाणिलाभादधिको लाभः कश्वन विद्यते।(म.भा. शांति 180-11-1)

अर्थ जिनके हाथ हैं, वे क्या नहीं कर सकते। वे सिद्धार्थ हैं। जिनके हाथ हैं, वे मुझे अच्छे लगते हैं। -- जैसी तुझे धन की आकांक्षा है, उसी प्रकार मुझे हाथ की, पाणिलाभ से बढ़ कर और कोई लाभ नहीं।महाभारत लिखने के बाद व्यास उदास हो गये थे। एक बार नारद मुनि से भेंट हुई। उनके परामर्श पर उन्होंने भागवत-पुराण की रचना की। कृष्णचरित्र का वर्णन उसमें लिया। श्रीमद्भागवत भक्ति का महाकाव्य बना और व्यासजी के मन की उदासीनता भी दूर हुई। " महाभारत ' के अंत में जो चार श्लोक हैं, उन्हें" भारत-सावित्री " कहा जाता है। व्यासजी ने मानव जाति को उसमें शाश्वत सन्देश दिया है

न जातु कामान्न भयान्न लोभात्

धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः

धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्येः।

जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।

अर्थ काम, भय या लोभ किंबहुना जीवित के भी कारण से धर्म का त्याग मत करो क्यों कि धर्म शाश्वत है।सुख-दुःख अनित्य हैं। जीव (आत्मा) नित्य है, जन्म-मृत्यु अनित्य हैं।

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