पाणिनीय-शिक्षा
🏵️पाणिनीय-शिक्षा 🏵️
महर्षि पाणिनि द्वारा शब्दोच्चारण के यथार्थ ज्ञान के लिये रचित सूत्रात्मक ग्रंथ। अर्वाचीन श्लोकात्मक शिक्षा का रचयिता अन्य व्यक्ति है, पर इसका आधार यह पाणिनीय शिक्षासूत्र है। मूल पाणिनिरचित शिक्षासूत्रों का पुनरुद्धार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बडे परिश्रम से किया, तथा वर्णोच्चार शिक्षा के नाम से ई. 1879 में हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित किया।पाणिनीय श्लोकात्मक शिक्षा पर दो टीकाएं लिखी हैं- 1) शिक्षाप्रकाश 2) शिक्षा पंजिका। शिक्षाप्रकाशकार के अनुसार वर्तमान श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा का रचयिता पाणिनि का कनिष्ठ भ्राता पिङ्गल है। इस शिक्षा के दो पाठ हैं। लघु या याजुष पाठ- 35 श्लोक। बृहत् या आर्षपाठ- 60 श्लोक ।उपर निर्दिष्ट दोनों टीकाएं लघुपाठ पर हैं।
🏵️शिक्षा शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ 🏵️
सामान्यतः शिक्ष अभ्यासे' धातु से 'शिक्षणं शिक्षा की व्युत्पत्ति से कुछ भी सीखना तथा अभ्यास करना शिक्षा है। दूसरी दृष्टि से 'शक्तृ शक्ती धातु के सन्नन्त शिक्ष' रूप से इस की निष्पत्ति है। तदनुसार शक्तुमिच्छा शिक्षा है - अर्थात् सकने या शक्ति प्राप्त करने की इच्छा को शिक्षा कहा जायगा। शक मर्षणे धातु का सन्नन्त भी शिक्ष' बनता है। तदनुसार शकितुमिच्छा शिक्षा' है- सहन करने या तितिक्षा की इच्छा को शिक्षा' मानना चाहिए । प्रथम व्युत्पत्ति में साक्षात् शिक्ष' धातु है परन्तु शेष दो में शक् धातु से सन् प्रत्यय के साथ शिक्ष धातुरूप बनता है जिसके लिए पाणिनीय सूत्र है- 'सनिमीमापुरभलभशकपतपदामच इस्' और 'अ प्रत्ययात्
सूत्र से' अ' प्रत्यय होता है । अतः स्त्रीलिङ्ग भाववाचक संज्ञा शिक्षा' बनती है। प्रथम व्युत्पत्ति 'गुरोश्च हलः' सूत्र से 'अ'प्रत्यय होता है।
बेदाङ्ग विद्या के अर्थ में शिक्षा' शब्द करणसाधन है, अत: 'शिक्ष्यते यया सा शिक्षा व्युत्पत्ति होगी जिस द्वारा अभ्यास अपनाया जाए, शक्ति प्राप्त करने की इच्छा की जाए और उच्चारण के गुणों की सहिष्णुता की इच्छा | जाए वह विद्या शिक्षा' है । शुद्ध उच्चारण की शक्ति अर्जित करने से पाठ्यगुणों की तितिक्षा चाही जाती है और तभी अभ्यास सार्थक बनता है । सर्वथा उच्चारण के दोषों को निरस्त कर गुणों का सन्निवेश ही शिक्षाशास्त्र का परम प्रयोजन है। इस सन्दर्भ में अभ्यासादि करने वाले को तो शिक्षक कहा ही जायगा, साथ ही शिक्षा शास्त्र के
अध्येता एवं ज्ञाता को भी शिक्षक कहा जाता है शिक्षामधीते वेद वा शिक्षका- क्रमादिभ्यो बुन् ।
(५) पाणिनीयशिक्षा
पाणिनीय मतं यथा में इस उक्ति पर ही प्रथमतः अधुनातन मनीषी चौंकते और स्थापित करते हैं कि यह किसी अन्य की कृति है, अन्यथा स्वयं पाणिनि अपना नाम न देते। आधुनिक रचयिता अपने नाम से ग्रन्थ प्रकाशित करवाते हैं परन्तु अपने नाम को ग्रन्थघटक नहीं करते। इस के विपरीत यह कहा जा सकता है कि नाम को ग्रन्थ में लाना आचार्य की शैली है। आचार्य अपने मत को' पाणिनीय' इसलिए बताता है कि शङ्कर से इस विद्या का अन्तर्दर्शन पाने के अनन्तर वही उसका प्रथम वक्ता है। मदीय' या' अस्मदीय कहने से कोई ज्ञान नहीं हो सकता कि यह किस का मत है, ऐसे शब्द सर्वनामात्मक हैं। अत एव यहाँ नामोल्लेख के पश्चात् ' पुनर्व्यक्तीकरिष्यामि' कहकर मुनि ने उत्तम पुरुष में अपना सङ्केत दिया है। अन्यत्र भी आचार्यों ने अपना नाम ग्रन्थघटक बनाया है।
💫१. अर्थशास्त्र में-नेति कोटल्यः
💫२-कामशास्त्र में- वात््स्यायन:
💫३- महाभाष्य में-गोनर्दीयस्त्वाह
इनके अतिरिक्त भी दृष्टान्त खोजे जा सकते हैं।
💫 दासीपुत्रपाणिनिना 💫
सूत्र से' अ' प्रत्यय होता है । अतः स्त्रीलिङ्ग भाववाचक संज्ञा शिक्षा' बनती है। प्रथम व्युत्पत्ति 'गुरोश्च हलः' सूत्र से 'अ'प्रत्यय होता है।
बेदाङ्ग विद्या के अर्थ में शिक्षा' शब्द करणसाधन है, अत: 'शिक्ष्यते यया सा शिक्षा व्युत्पत्ति होगी जिस द्वारा अभ्यास अपनाया जाए, शक्ति प्राप्त करने की इच्छा की जाए और उच्चारण के गुणों की सहिष्णुता की इच्छा | जाए वह विद्या शिक्षा' है । शुद्ध उच्चारण की शक्ति अर्जित करने से पाठ्यगुणों की तितिक्षा चाही जाती है और तभी अभ्यास सार्थक बनता है । सर्वथा उच्चारण के दोषों को निरस्त कर गुणों का सन्निवेश ही शिक्षाशास्त्र का परम प्रयोजन है। इस सन्दर्भ में अभ्यासादि करने वाले को तो शिक्षक कहा ही जायगा, साथ ही शिक्षा शास्त्र के
अध्येता एवं ज्ञाता को भी शिक्षक कहा जाता है शिक्षामधीते वेद वा शिक्षका- क्रमादिभ्यो बुन् ।
(५) पाणिनीयशिक्षा
पाणिनीय मतं यथा में इस उक्ति पर ही प्रथमतः अधुनातन मनीषी चौंकते और स्थापित करते हैं कि यह किसी अन्य की कृति है, अन्यथा स्वयं पाणिनि अपना नाम न देते। आधुनिक रचयिता अपने नाम से ग्रन्थ प्रकाशित करवाते हैं परन्तु अपने नाम को ग्रन्थघटक नहीं करते। इस के विपरीत यह कहा जा सकता है कि नाम को ग्रन्थ में लाना आचार्य की शैली है। आचार्य अपने मत को' पाणिनीय' इसलिए बताता है कि शङ्कर से इस विद्या का अन्तर्दर्शन पाने के अनन्तर वही उसका प्रथम वक्ता है। मदीय' या' अस्मदीय कहने से कोई ज्ञान नहीं हो सकता कि यह किस का मत है, ऐसे शब्द सर्वनामात्मक हैं। अत एव यहाँ नामोल्लेख के पश्चात् ' पुनर्व्यक्तीकरिष्यामि' कहकर मुनि ने उत्तम पुरुष में अपना सङ्केत दिया है। अन्यत्र भी आचार्यों ने अपना नाम ग्रन्थघटक बनाया है।
💫१. अर्थशास्त्र में-नेति कोटल्यः
💫२-कामशास्त्र में- वात््स्यायन:
💫३- महाभाष्य में-गोनर्दीयस्त्वाह
इनके अतिरिक्त भी दृष्टान्त खोजे जा सकते हैं।
💫 दासीपुत्रपाणिनिना 💫
उल्लेख भी तदनुरूप ही है। इस व्याज से आचार्य ने अपनी जननी दाक्षी और पिता पाणिन
का स्मरण किया है। अन्त के तीन श्लोकों में व्याकरण प्रवर्तक के रूप में उन्होंने अपने को मानों अपने द्वारा ही प्रणम्य बताते हुए कहा है---'तस्मै पाणिनये नमः'। यह और भी खटकने की बात मानी जाने लगी है। कोई अपना ही प्रणाम स्वयं कैसे कर सकता है? परन्तु यह निबन्धन शिष्यशिक्षार्थ होने से परम्परा । के अनुरूप ही माना चाहिए, अत एव कहा गया है-
शङ्करः शाङ्करीं प्रादाद् दाक्षीपुत्राय धीमते ।
वाङ्मयेभ्या समाहृत्य देवीं वाचमिति स्थितिः ।
जब शङ्कर से यह विद्या पाणिनि को साक्षात् प्राप्त हुई तब निश्चय ही वह प्रणम्य हो जाता है और अपने लिये अपनी ही प्रणम्यता की व्याख्या स्वतः युक्त प्रतीत होती है। यद्यपि नम:पदार्थ परिभाषित किया गया है-
स्वनिष्ठापकर्षनिरूपितपरनिष्ठोत्कर्षस्वीकारो नमःपदार्थः ।
अर्थात् अपने अपकर्ष की अपेक्षा अन्य के उत्कर्ष का स्वीकार ही नमस्कार है । यहाँ पाणिनि ने अपने अपकर्ष की अपेक्षा में अपना ही उत्कर्ष मान्य किया है जो असङ्गत लगता है। तथापि यह विचारणीय है कि विद्या के अवतरण से पूर्व तथा पश्चात् का पाणिनि नमस्कर्ता व्यक्तिरूप है
और नमस्य पाणिनि केवल वह है जिसमें शङ्कर से व्याकरण विद्या का अवतार हुआ है। दोनों.अंशों को पृथक् लेने पर कोई अनुपपत्ति नहीं रह जाती ।
मान भी लिया जाय कि किसी शिष्य ने प्रणामांश को प्रक्षिप्त कर दिया है अथवा सम्पूर्ण शिक्षाग्रन्थ ही शिष्यनिर्मित है तो भी अनादि- परम्परावादी के लिए कोई अन्तर नहीं आता ।
' पाणिनीयशिक्षासूत्र और आपिशलशिक्षासूत्र प्रायः शब्दशः एकरूप हैं, अत: वहाँ पाणिनीय मत' का पृथक् पता नहीं चल पाता परन्तु पाणिनीयशिक्षा में हकार, अनुस्वार, रङ्ग एवं कम्प के उच्चारण पर सविशेष प्रकाश डाला गया है। उदात्तादि स्वरों के सङ्केतार्थ अगुलिचालन एवं हस्तचालन की व्यवस्था दी गयी है। इस प्रकार के अनेक तथ्य शिक्षावेदाङ्ग की महत्त्वपूर्ण कड़ी
का कार्य करते हैं, जिन में प्रातिशाख्यानुगत उच्चारणदोष भी सरल रीति से देखे जाते हैं।
का स्मरण किया है। अन्त के तीन श्लोकों में व्याकरण प्रवर्तक के रूप में उन्होंने अपने को मानों अपने द्वारा ही प्रणम्य बताते हुए कहा है---'तस्मै पाणिनये नमः'। यह और भी खटकने की बात मानी जाने लगी है। कोई अपना ही प्रणाम स्वयं कैसे कर सकता है? परन्तु यह निबन्धन शिष्यशिक्षार्थ होने से परम्परा । के अनुरूप ही माना चाहिए, अत एव कहा गया है-
शङ्करः शाङ्करीं प्रादाद् दाक्षीपुत्राय धीमते ।
वाङ्मयेभ्या समाहृत्य देवीं वाचमिति स्थितिः ।
जब शङ्कर से यह विद्या पाणिनि को साक्षात् प्राप्त हुई तब निश्चय ही वह प्रणम्य हो जाता है और अपने लिये अपनी ही प्रणम्यता की व्याख्या स्वतः युक्त प्रतीत होती है। यद्यपि नम:पदार्थ परिभाषित किया गया है-
स्वनिष्ठापकर्षनिरूपितपरनिष्ठोत्कर्षस्वीकारो नमःपदार्थः ।
अर्थात् अपने अपकर्ष की अपेक्षा अन्य के उत्कर्ष का स्वीकार ही नमस्कार है । यहाँ पाणिनि ने अपने अपकर्ष की अपेक्षा में अपना ही उत्कर्ष मान्य किया है जो असङ्गत लगता है। तथापि यह विचारणीय है कि विद्या के अवतरण से पूर्व तथा पश्चात् का पाणिनि नमस्कर्ता व्यक्तिरूप है
और नमस्य पाणिनि केवल वह है जिसमें शङ्कर से व्याकरण विद्या का अवतार हुआ है। दोनों.अंशों को पृथक् लेने पर कोई अनुपपत्ति नहीं रह जाती ।
मान भी लिया जाय कि किसी शिष्य ने प्रणामांश को प्रक्षिप्त कर दिया है अथवा सम्पूर्ण शिक्षाग्रन्थ ही शिष्यनिर्मित है तो भी अनादि- परम्परावादी के लिए कोई अन्तर नहीं आता ।
' पाणिनीयशिक्षासूत्र और आपिशलशिक्षासूत्र प्रायः शब्दशः एकरूप हैं, अत: वहाँ पाणिनीय मत' का पृथक् पता नहीं चल पाता परन्तु पाणिनीयशिक्षा में हकार, अनुस्वार, रङ्ग एवं कम्प के उच्चारण पर सविशेष प्रकाश डाला गया है। उदात्तादि स्वरों के सङ्केतार्थ अगुलिचालन एवं हस्तचालन की व्यवस्था दी गयी है। इस प्रकार के अनेक तथ्य शिक्षावेदाङ्ग की महत्त्वपूर्ण कड़ी
का कार्य करते हैं, जिन में प्रातिशाख्यानुगत उच्चारणदोष भी सरल रीति से देखे जाते हैं।
Anjli
ReplyDeleteMajor-Political science
Minor-history
Sr.no-73
Name Ranjana devi
ReplyDeletesr no=40
Major hindi
Nikita koundal
ReplyDeleteSr.no27
Major history
Nikita koundal
ReplyDeleteSr.no27
Major history
Name Priya major history sr no 6
ReplyDeleteSr no.86
ReplyDeleteMajor history
Priyanka Devi
ReplyDeleteSr.no.23
Major history
Ritika _sr no .8 major _hindi
ReplyDeleteName _ Tanu Guleria
ReplyDeleteSr no. _ 32
Major _ Political Science
Arti sharma
ReplyDeleteSr no 32
Akanksha sharma sr no 13
ReplyDeleteMajor hindi
Sejal
ReplyDeleteSr ni.3
Major English
Name_ Shivani
ReplyDeleteSr no11
Major Hindi
Komal major hindi sr no 43
ReplyDeleteMajor history
ReplyDeleteSr no 29
Mohini sharma
ReplyDeleteSr no.18
History
Pallavi pathania majer history sr.45
ReplyDeleteName -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Sr. No-76
Shivani Devi
ReplyDeleteSr no 46
Major Hindi
Minor history
Sanjna Dhiman
ReplyDeleteSr no 10
Major English
Anu Devi
ReplyDeleteMajor History
Sr.no.85
Arpana Devi serial no 50 major Hindi
ReplyDeleteSejal Mehta
ReplyDeleteSr no 33
Major Hindi
Name jyotika Kumari Major hindi Sr no 5 minor history
ReplyDeleteSourabh Singh sr.no20 Major Hindi Minor History
ReplyDeleteName:Priti
ReplyDeleteSr.no.24
Name:Palak
ReplyDeleteSr. No. 22
Major:Hindi
RISHAV sharma major pol science sr no 65
ReplyDeleteAnshika kumari
ReplyDeleteSr. No. 7
Nidhi sharma
ReplyDeleteSr.no.22
Major english
Kartikdhiman sr no06 Major English dehri collage
ReplyDeleteAnjlee
ReplyDeleteSr no 36
Major history
Akriti choudhary
ReplyDeleteMajor history
Sr.no 11
Sr no.36
ReplyDeleteMajor hindi
Kartikdhiman sr no 06
ReplyDeleteMajor English
Name rahul kumar
ReplyDeleteMajor history
Sr no. 92
Major hindi
ReplyDeleteSr no 16