भारवि और उनके किरातार्जुनीयम् का परिचय

 🏵️ भारवि और उनके किरातार्जुनीयम् का परिचय🏵️

जीवनवृत्त-भारवि के जीवन के सन्दर्भ में उनकी एक मात्र रचना 'किरातार्जुनीयम् में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। दक्षिण भारत में ऐहोड़ नामक स्थान पर (आन्ध्रप्रदेश में) एक शिलालेख मिलता है। जिसमें भारवि का नामोल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि भारवि दक्षिण भारत के रहने वाले थे। समीक्षकों का मानना है कि भारवि चालुक्यवंशी नरेश विष्णुवर्धन की सभा के पण्डित थे। उनकी रचना से उनके शैव होने का अनुमान लगाया जाता है, क्योंकि किरात स्वयं शिव ही थे। विद्वता के प्रामाणीकरण में प्राचीन समय में परीक्षा का आयोजन किया जाता था। राजशेखर ने लिखा है कि कालिदास, भर्तृमेण्ठ आदि की भान्ति भारवि की भी उज्जैन में परीक्षा ली गई थी और भारवि उसमें उत्तीर्ण हो गये थे। भारवि को उनके एक श्लोक के आधार पर आतपत्रभारवि' की संज्ञा दी गयी थी।

स्थितिकाल-महाकवि भारवि के काल को जानने का एक ही आधार हमारे पास है और वह है आन्ध्रप्रदेश के बीजापुर जिले के ऐहोड़ नामक ग्राम के जैन मन्दिर में मिला एक शिलालेख जिसमें लिखा है

"स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रित कालिदास भारविकीर्तिः।" यह प्रशस्ति, पुलकेशी के आश्रित जैन कवि रविकीर्ति ने लिखी है। इस शिलालेख का काल 634 ई० है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक भारवि प्रसिद्धि पा चुके थे। इसके अतिरिक्त गंगनरेश दुर्विनीत ने किरातार्जुनीयम् के अतीव कठिन पन्द्रहवें सर्ग पर टीका लिखी थी? दुर्विनीत का काल 481 ई० माना जाता है।अतः भारवि का इससे पूर्व होना अनिवार्य है। इसलिए उनका स्थितिकाल 450 ई० माना जाता है।

रचना-महाकवि भारवि की कीर्ति का आधार उनकी एकमात्र रचना “किरातार्जुनीयम्'' महाकाव्य है। यह 18 सर्गों का महाकाव्य है, जो महाभारत के वनपर्व की कथा पर आधारित है। इस काव्य के आरम्भ में कहा गया है कि पाण्डव वनवास काल में जब द्वैतवन में रह रहे थे तो युधिष्ठिर ने अपने एक वनेचर मित्र को दुर्योधन की राज्य संचालन की विधि को जानने के लिए भेजा था। वह वनेचर आकर युधिष्ठिर को दुर्योधन की शासन व्यवस्था की जानकारी देता है। वनेचर की बातें सुनने के पश्चात् भीम और द्रौपदी युधिष्ठिर को वनवास और गुप्तवास की समय सीमाओं को तोड़कर युद्ध करने की प्रेरणा देते हैं परन्तु युधिष्ठिर इसके लिए सहमत नहीं होते हैं। इसी समय भगवान् वेदव्यास जी वहाँ आ पहुँचते हैं। वे उन्हें परामर्श देते हैं कि दुर्योधन को पराजित करने के लिए उन्हें दिव्यास्त्रों की आवश्यकता पड़ेगी। अतः अर्जुन को शिव भगवान् से पाशुपत पाने के लिए इन्द्रकील पर्वत पर जाकर तप करना चाहिए। अर्जुन वहाँ जाकर घोर तप करते हैं। उनके तप में अप्सराएँ भी विघ्न न डाल सकीं। तब इन्द्र ने स्वयं आकर उन्हें शिवभक्ति का आदेश दिया। अर्जुन शिव के दर्शनों के लिए तप करते हैं। तप से प्रभावित होकर शिव किरात (शिकारी) का वेश बनाकर आते हैं। वे माया से उद्भावित एक शूकर को अर्जुन की ओर प्रेषित करते हैं। अर्जुन उस पर बाण चलाते हैं। उधर किरात वेशधारी शिव भी शूकर पर बाण छोड़ते हैं। शूकर मर जाता है।

अर्जुन का बाण शूकर को बींध कर धरती में चला जाता है। बचे हुए बाण के लिए किरात और अर्जुन में विवाद हो जाता है। वाग्युद्ध बाहुयुद्ध में बदल जाता है। अर्जुन के बल से प्रसन्न होकर शिव अपने स्वरूप को प्रकट करते हैं और अर्जुन को पाशुपत अस्त्र प्रदान करते हैं। यहीं यह काव्य समाप्त हो जाता है। भारवि ने महाभारत की मूल कथा में कतिपय परिवर्तन करके इस काव्य की रचना की है। यह वीर रस प्रधान काव्य है तथा अलंकृत शैली का प्रतिनिधि काव्य है। इसकी गणना बृहत्त्रयी में की जाती है। इसके प्रत्येक सर्य का आरम्भ "श्री'' शब्द से होता है। यथा-  "श्रियः कुरुणामधिपस्य पालिनीम्"

यह किरातार्जुनीयम् का पहला श्लोक है जो "श्री" शब्द से ही आरम्भ होता है। यह काव्य अर्थगौरव के लिए विख्यात है।

भारवेर्थगौरवम्✡️ कवि कालिदास उपमा प्रयोगों के वैचित्र्य के लिए जाने जाते हैं। उसी प्रकार भारवि अपने काव्य में प्रयुक्त अर्थगौरव के लिए जाने जाते हैं। अर्थ गौरव का अभिप्राय है नपेतुले अल्प शब्दों से विपुलार्थ प्रकाशन की कला या गागर में सागर भरने का सामर्थ्य । वस्तुत: महाकवि भारवि ने अपने महाकाव्य को ऐसी गम्भीरार्थक सूक्तियों से सम्भृत किया है जिसके कारण समीक्षक यह कहने के लिए बाध्य हुए कि "भारवेरर्थगौरवम्।" अर्थगौरव की दृष्टि से महाकवि भारवि के किरातार्जुनीय का प्रथमसर्ग अतीव महत्त्वपूर्ण है। इसमें वनेचर और द्रौपदी दोनों ही पात्रों के कथन अर्थगाम्भीर्य से सम्भृत हैं।

वनेचर कथनों में अर्थगौरवः✡️–वनेचर युधिष्ठिर का परम मित्र है। वह दुर्योधन के राज्य की बहुत सी जानकारियाँ एकत्रित करके लाया है। बहुत सी सूचनाएँ ऐसी भी हैं जो युधिष्ठिर को अच्छी नहीं लग सकती हैं। इसलिए वनेचर कहता है कि जो मित्र सत्य न कहे वह कुत्सित मित्र होता है। यथा

-किं सखा साधु न शास्ति योऽधिपम्।                                  हितान्न य: संघृणुते स किं प्रभु :

कितनी गहरी बात कही है वनेचर ने अपने इस तथ्य की पुष्टि में वनेचर यह भी कहता है कि- “हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।" अर्थात् ऐसा कथन बड़ा दुर्लभ है जो हितकर भी हो और कर्णमधुर भी। विश्व भर के सेवकों को स्वामी भक्ति का सन्देश देते हुए वनेचर परिमित शब्दों में कहता है कि

क्रियासु युक्तैर्नृपचारचक्षुषो न वंचनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः । अर्थात् नौकरों को चाहिए कि वे गुप्तचर रूपी नेत्रों वाले राजाओं को न ठगें। कितनी बड़ी बात हैं जो एक निष्ठावान् सेवक के माध्यम से कही गयी है।

द्रौपदी के कथन में अर्थगौरव:-✡️ इसी प्रकार द्रौपदी ने युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए जो है;वह अर्थगाम्भीर्य से सम्भृत है। द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती है कि उग्रक्रोधी व्यक्ति के वश में सभी आसानी से हो जाते हैं। यथा

अवन्ध्य कोपस्य विहन्तुरापदां भवन्ति वश्या स्वयमेव देहिनः।" द्रौपदी पराक्रमी पुरुषों के विषय में कहती है कि न्यायार्थ पराक्रम दिखाने वालों के लिए पराभव भी उत्सव तुल्य ही होता है। न्यायप्रिय लोगों के मनोबल को बढ़ाने वाली यह सूक्ति कितने गम्भीरार्थ की घोतक है। युधिष्ठिर को बड़े सटीक शब्दों में व्यंग्य करती हुई द्रौपदी कहती है कि

शमेन सिद्धि मुनयो न भूभृतः।                                      अर्थात् शान्ति से साधु-सन्तों को सिद्धि प्राप्त होती है; राजाओं को नहीं। यह वाक्य प्रेरणा का जितना कार्य कर सकता है, उतना कार्य एक बड़ा वक्तव्य भी नहीं कर सकता है। इस प्रकार की अर्थगौरवपूर्ण अनेकों सूक्तियाँ भारवि ने अपने महाकाव्य में प्रयुक्त की हैं। यथा :

न महानिच्छति भूतिमन्यतः। (2-18)।                          महापुरुष दूसरों से अपने कल्याण की बात नहीं चाहते यानी वे अपना हित स्वयं करने में समर्थ होते हैं।

 सहसाविदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। (2-30)।    जल्दबाजी में कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि अविवेक यानी शीघ्रता में किया गया कार्य विपत्तियों का कारण बन जाता है। 

"न तितिक्षा सममस्तिसाधनम्।                                      "अर्थात् सहनशक्ति (क्षमा) के समान अन्य कोई महान् गुण नहीं है। 

 नयहीनादपरज्यते जनः । (2-49)                          )नीतिविहीन राजा से प्रजायें विरक्त हो जाती हैं यानि उसका साथ देना छोड़ देती हैं। 

 विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः। (2-52)                          उच्छृखलों की सम्पत्तियों का दुःखदायी अन्त होता है। 

मुखरता अवसरे हि विराजते। (5-16)।                           अधिक  बोलना किसी विशेष अवसर पर ही शोभा देता है। 

सा लक्ष्मीरुपकुरूते ययापरेषाम्। (7-28)                       वास्तविक राजलक्ष्मी (सम्पत्ति) वही है जिसके द्वारा दूसरों का भला किया जाये।

 वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तूनि। ( 8-37)।                        गुण प्रेम में होते हैं वस्तु में नहीं।

.प्रेम पश्यति भयान्यपदेऽपि। (9-70)।                               प्रेम सर्वत्र भय की आशंका से सम्भृत रहता है। .

 न्यायाधारा हि साधवः (11-30)।                                   सज्जन सदैव न्याय पर आधारित आचरण करते हैं।



Comments

  1. Sejal kasav
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    Major -History
    Sr. No-76

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    sr.no-73

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  6. Neha Devi
    Major History
    Sr no 62

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  7. Priyanka Devi
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    Major history

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  8. Chetna choudhary Major pol science minor Hindi sr no 13

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  9. Mehak
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  10. Name Priyanka devi
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  11. Diksha Devi
    Major history
    Sr. No. 50

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  12. Rishav sharma major pol science sr no 65

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  13. Name Richa Sr.no 35
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  14. Priyanka choudhary
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  15. Poonam devi major pol.scince seriol no.23

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  23. Sanjna srno 28 major political science minor Hindi

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  24. Anuj Riyal
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  25. Pallvi choudhary
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  26. Name rahul Kumar
    Major- history
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  27. Divya Kumari major political science sr.no 60.

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  28. ektaekta982@gmail.com
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  29. Taniya sharma
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  30. Akriti choudhary
    Major history
    Sr.no 11

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  31. Mamta Bhardwaj
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  32. Name Sejal Mehta
    Sr no 33
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  33. Name palvinder kaur major history sr no 9

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  34. Name tanu guleria
    Sr. No. 32
    Major political science

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  35. Tanvi Kumari
    SR. No . 69
    Major. Pol.science

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  36. Name Simran kour
    Sr no 36
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  37. Name -riya
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  38. NAME-ABHISHEK SHUKLA
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    MINOR-SANSKRIT
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