उत्तररामचरित
🏵️ उत्तररामचरित-🏵️
उत्तररामचरित भवभूति का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। यह सात अंकों का नाटक है तथा इसमें श्रीरामचन्द्र जी के उत्तरचरित अर्थात् रावणवध के पश्चात् अयोध्या आने के बाद की घटनाओं का इसमें वर्णन है।
प्रथमांक में राम को दुर्मुख नामक दूत से सीतापवाद विषयक सूचना मिलती है। राम प्रजारंजन हेतु सीता का त्याग कर देते हैं और लक्ष्मण उसे वन में छोड़ कर आते हैं। सीता को वन भेजने की भूमिका भी बड़े कवि कौशल के साथ संयोजित की गयी है। वनवास कालीन चित्रों को देखकर सीता जी स्वयं गंगा जी के दर्शन करने की इच्छा अभिव्यक्त करती हैं उसे ही आधार बनाकर राम सीता को वन भेज देते हैं ताकि प्रजाओं में प्रचलित उसके चरित्र विषयक अपवाद का अन्त हो जाये।
द्वितीय अङ्क का आरम्भ 12 वर्ष की अवधि के पश्चात् होता है। आत्रेयी नामक तापसी तथा वासन्ती नामक वनदेवी के वार्तालाप से विदित होता है कि श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किया है यह भी सूचना मिलती है कि महर्षि वाल्मीकि किसी देवता के द्वारा समर्पित दो प्रखर बुद्धि बालकों का पालन करते हैं। उधर श्रीराम दण्डकारण्य प्रवेश करके नीच तपस्वी का वध करते हैं ताकि वह दैवी शक्तियाँ प्राप्त करके उनका दुरुपयोग न करे।
तृतीय अङ्क में तमसा एवं मुरला नामक दो नदियों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि परित्यक्त होने के अनन्तर दुःखी होकर सीता प्राणत्याग के लिए गंगाजी में कूद पड़ी और वहीं उन्होंने लव एवं कुश को जन्म दिया। गंगा जी ने ही उन बच्चों को महर्षि वाल्मीकि को सौंपा है। आज उनकी बारहवीं वर्षगाँठ है इसलिए भगवती भागीरथी ने सीता जी को आज्ञा दी है कि वह अपने कुल के उपास्य देव भगवान सूर्य की उपासना करे। उन्हें भागीरथी का वरदान है कि पृथ्वी पर उसे मनुष्य तो क्या देवता भी देख नहीं सकते। गङ्गा जी को यह बात पता है कि अगस्त्याश्रम से लौटते समय राम पञ्चवटी अवश्य आयेंगे। डर यह है कि कहीं पूर्वानुभूत दृश्यों को देखकर वे विक्षिप्त न हो जायें। इसलिए उन्होंने सीता जी को राम का दर्शन कराने की योजना बनायी है तथा उनकी देखरेख के लिए तमसा को साथ भेजा है। तत्पश्चात् वहाँ भगवान् राम का प्रवेश होता है। वे पञ्चवटी में वनदेवी के साथ पूर्वानुभूत विषयों को देखकर सीता जी की स्मृति में अतीव व्याकुल हो जाते हैं। अदृश्य सीता उन्हें स्पर्श करके प्रबुद्ध करती है इसीलिए इस अंक का नाम "छाया" रखा गया है क्योंकि यहां सीता अदृश्य रूप में भूमिका निभाती है।
चतुर्थ अंक में वाल्मीकि आश्रम में जनक, कौशल्या, वसिष्ठ आदिका आगमन होता है। कौशल्या और जनक का मिलन होता है। वही ये लोग एक क्षत्रिय बालक (लव) को देखते हैं। अन्य ब्रह्मचारियों से रामचन्द्र के यज्ञीय अश्व की सूचना सुनकर लव वहाँ से भाग जाता है। पाँचवें अंक में यज्ञीय अश्व के रक्षक लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु से लव का विवाद हो जाता है और वे युद्ध के लिए तत्पर हो जाते हैं।
षष्ठ अंक में एक विद्याधर-युगल के द्वारा चन्द्रकेतु और लव के युद्ध का वर्णन सुनने को मिलता है। इसी बीच रामचन्द्र जी के आने से युद्ध रुक जाता है। उधर कुश भी सूचना पाकर वहाँ पहुँच जाता है। राम के हृदय में अनायास ही उनके प्रति प्रेम उमड़ पड़ता है। परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं हो पाता कि ये उन्हीं के पुत्र
सप्तम अंक में वाल्मीकि जी की योजना से सीता और राम का मिलन होता है तथा यह भी पता चल जाता है कि लव और कुश उन्हीं के पुत्र हैं।
इस नाटक में भवभूति जी ने मूल रामायण की कई घटनाओं में परिवर्तन करके कई नयी उद्भावनाएँ की हैं। मूलतः कथा का स्रोत रामायण ही है। मुख्य परिवर्तन निम्न है
1. वाल्मीकि रामायण के अन्त में सीता पृथ्वी में समा जाती है जबकि उत्तररामचरित में राम से उनका सुखद मिलन होता है।
2. प्रथम अंक में वनवासकालीन चित्रों की चित्रवीथी की कल्पना नवीन है। मूल रामायण में इसका उल्लेख नहीं है।
3. तृतीय अंक की छाया सीता की कल्पना भवभूति की निजी उद्भावना है। इस प्रकार कई मौलिक कल्पनाएँ करके भवभूति ने इस नाटक को अतीव रोचक बनाया है। इस नाटक का मुख्य रस करुणरस है। रीतियों में इन्हें गौडी रीति का सम्राट माना जाता हैं।
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