कादम्बरी

 ☸️कादम्बरी☸️

कादम्बरी बाण का ही नहीं सम्पूर्ण संस्कृत-साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गद्य-काव्य है। इसकी कथा काल्पनिक है। बाण ने इसे 'कथा' बताया है । इसके दो भाग हैं :पूर्व-भाग और उत्तर-भाग । बाण इसके पूर्व-भाग की ही रचना कर पाये थे । उत्तरभाग की रचना बाण की मृत्यु के बाद उनके पुत्र पुलिन्द अथवा भूषण भट्ट ने की।कादम्बरी के प्रारम्भ में २० श्लोकों में देव-स्तुती, गुरु वन्दना, खल-निन्दा,सज्जन-प्रशंसा तथा अपनी वंश-परम्परा का वर्णन कवि ने किया है। इसके पश्चात् प्रस्तुत संस्करण में प्रकाशित अंश कथामुख है जिसे कादम्बरी की कथा की भूमिका कहना उपयुक्त होगा।

कथामुख में हम पहले शूद्रक नामक एक प्रतापी राजा का वर्णन पढ़ते हैं जिसकी राजधानी का नाम विदिशा है। एक बार एक चाण्डाल-कन्या पिंजरे में बन्द वैशम्पायन नामक शुक को लेकर शूद्रक की सभा में आती है । शुक राजा की प्रशंसा में एक सुन्दर आर्या छन्द पढ़ता है। शुक के पाण्डित्य से प्रभावित होकर राजा शुक से अपनी कथा सुनाने का आग्रह करता है। तब शुक वैशम्पायन अपनी पूर्व कथा इस प्रकार सुनाता हैमैं (शुक) विन्ध्याटवी में पम्पा पद्मसरोवर के पश्चिमी तट पर स्थित शाल्मली वृक्ष पर अपने पिता के साथ रहता था। मेरे जन्मते ही मेरी माता मर गई थी। एक बार एक शबर-सेना शिकार करने उधर आई। इसमें से एक बूढा शबर पीछे रह गया और उसने उस शाल्मली वृक्ष पर चढ़कर मेरे बूढ़े पिता की गर्दन मरोड़कर नीचे फेंक दिया। उसके पंखों में सिमटा हुआ मैं भी नीचे गिरा किन्तु सूखे पत्तों के ढेर पर गिरने के कारण अङ्ग नहीं टूटे और एक तमाल वृक्ष की जड़ में छिप जाने के कारण शबर की दृष्टि से बच गया।शबर के चले जाने पर मुझे प्यास लगी। तभी स्नान के लिये जाता हुआ हारीत नामक ऋषी कुमार उधर से आ निकला। उसने मुझे पानी पिलाया और अपने पिता महर्षि जाबालि के आश्रम में मुझे ले गया। वहाँ महर्षि जाबालि ने मुझे देखकर हंसकर कहा-'यह अपने ही दुष्कर्मों का फल भोग रहा है। इस पर अन्य ऋषियों को बड़ा कुतूहल हुआ । त्रिकालदर्शी महर्षि जाबालि ने अन्य ऋषियों की उत्सुकता शान्त करने के लिये उस शुक के पूर्वजन्म की कथा सुनाने का वचन दिया।'कथामुख' भाग यहाँ समाप्त होता है ।

अब जाबालि शुक के पूर्वजन्म की कथा इस प्रकार सुनाते हैंउज्जयिनी में तारापीड नामक एक राजा था। शुकनास उसका मन्त्री था।सन्तान न होने के कारण रानी विलासवती बड़ी दुःखी थी। उसने देवाराधन किया।तब एक बार राजा ने स्वप्न में विलासवती के मुख में प्रवेश करते हुये चन्द्रमा को देखा। राजा ने मन्त्री से स्वप्न कह सुनाया । मन्त्री ने बताया कि उसने भी स्वप्न में अपनी पत्नी मनोरमा की गोद में एक दिव्य पुरुष द्वारा एक पुण्डरीक रखा जाता हुआ देखा है। कुछ समय बाद विलासवती और मनोरमा ने पुत्रों को जन्म दिया। राजकुमार का नाम चन्द्रापीड और मन्त्री-पुत्र का नाम वैशम्पायन रक्खा गया।

चन्द्रापीड और वैशम्पायन में बचपन से ही गाढ़ी मित्रता थी और उन्हें साथसाथ विद्यालय में पढ़ने भेजा गया। वहां उन्होंने सब विद्यायें सीखीं। अध्ययनकाल समाप्त होने पर राजा ने उन्हें विद्यालय से बुलवाया और इन्द्रायुध नामक घोड़ा उपहार रूप में राजकुमार के लिये भेजा।

नगरी में लौटने पर रानी विलासवती ने पत्रलेखा नामक लड़की चन्द्रापीड के पास भेजी और चन्द्रापीड से उसे अपना पान का डब्बा उठाकर चलने वाली सेविका बनाने का अनुरोध किया । पत्रलेखा कुलू तराज की पुत्री थी, जिसे वहाँ की राजधानी जीतकर बन्दी बना लाया गया था। 

कुछ समय बाद राजा ने चन्द्रापीड को युवराज बनाना चाहा तो शुकनास ने उसे एक सारगर्भित उपदेश के द्वारा यौवन-सुलभ दोषों तथा राज-मद से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों की जानकारी दी। युवराज बनने के बाद चन्द्रापीड इन्द्रायुध पर आरूढ़ होकर वैशम्पायन के साथ एक बड़ी सेना लेखकर दिग्विजय के लिये निकला। दिग्विजय के बाद एक दिन चन्द्रापीड अकेला ही आखेट के लिए निकला । एक किन्नर के जोड़े का पीछा करते-करते वह बहुत दूर निकल आया और पानी की तलाश करता हुआ अच्छोद नामक सरोवर के तट पर पहुंचा। वहाँ उसकी भेंट एक शून्य-शिव मन्दिर में पूजा करती हुई एक सुन्दर कन्या से हुई। चन्द्रापीड के अनुरोध पर उस कन्या ने अपनी कथा कह सुनाई ।

उस कन्या ने बताया कि उसका नाम महाश्वेता है और यह हंस नामक गन्धर्व और गौरी नामक अप्सरा की पुत्री है । उस (महाश्वेता) ने पुण्डरीक नामक एक सुन्दर ऋषी कुमार को देखा और दोनों परस्पर प्रेम करने लगे थे। पुण्डरीक महर्षि श्वेतकेतु का पुत्र था। तब महाश्वेता स्नान करके अपने घर लौट गई । बाद में पुण्डरीक के सहचर कपिजल से उसकी विरहावस्था को सुनकर महाश्वेता उससे मिलने जाती है किन्तु उसके वहां पहुंचने से पूर्व ही पुण्डरीक का प्राणान्त हो जाता है । तब महाश्वेता स्वयं सती होना चाहती है किन्तु तभी आकाश से एक दिव्य पुरुष उतरकर महाश्वेता को उसके प्रिय से पुनः समागम होने का आश्वासन देता है और पुण्डरीक के मृत शरीर को लेकर आकाश में उड़ जाता है । कपिजल भी उस दिव्य पुरुष को बुरा-भला कहते हुए उसके पीछे उड़ता है। महाश्वेता ने बताया कि वह तभी से अपने प्रियतम के समागम की प्रतीक्षा करती हुई अपनी सखी तरलिका के साथ निवास कर रही है । महाश्वेता की आपबीति यहाँ समाप्त हो जाती है ।

तरलिका को वहाँ न देखकर चन्द्रापीड ने पूछा कि वह कहाँ गई है ? तब महाश्वेता ने प्रसङ्गवश अपनी सखी कादम्बरी के विषय में राजकुमार को जानकारी कराई । महाश्वेता ने बताया -कादम्बरी मेरी प्रिय सखी है। उसकी माता का नाम मदिरा और पिता का नाम चित्ररथ है । कादम्बरी ने प्रण किया है कि जब तक मेरा (महाश्वेता का) पति से मिलन नहीं होगा तब तक वह भी विवाह नहीं करायेगी। कादम्बरी के लिये इस संम्बन्ध में अपना सन्देश देकर मैंने अभी तरलिका को उसके पास भेजा है।'

दूसरे ही दिन तरलिका कादम्बरी के वीणावाहक केयूरक के साथ लौटकर सुचित करती है कि कादम्बरी अपने पूर्व निश्चय पर ही दृढ़ है। फलतः महाश्वेता स्वयं उसे समझाने जाती है । महाश्वेता के आग्रह पर चन्द्रापीड भी साथ जाता है। चन्द्रापीड और कादम्बरी प्रथम दर्शन में ही परस्पर प्रेम करने लगते हैं। किन्तु तभी पिता का पत्र मिलने के कारण चन्द्रापीड को उज्जयिनी लौटना पड़ता है । पत्रलेखा को वह कादम्बरी के पास छोड़ देता है और वैशम्पायन को सेना के साथ लौटने को कह कर स्वयं तेजी से राजधानी की ओर प्रस्थान कर देता है। राजकुमार के लौटने पर सब बड़े प्रसन्न होते हैं । कुछ दिन बाद पत्रलेखा भी लौटकर कादम्बरी की विरहावस्था का वर्णन राजकुमार के सम्मुन करती है । कादम्बरी के पूर्वभाग की कथा यहीं समाप्त हो जाती है।

उत्तर कादम्बरी के प्रारम्भ में पद्यों में प्रस्तावना है। बाद में शेष कथा है ।

चन्द्रापीड बाद में लौटे हुए केयूरक द्वारा कादम्बरी की विरह-दशा को सुनकर कादम्बरी से मिलने को व्यग्र हो उठता है। तभी उसे बैशम्पायन के बारे में सूचना मिलती है कि उसे न जाने क्या हो गया है कि वह बहुत आग्रह करने पर भी अच्छोद सरोवर के निकटवर्ती प्रदेश से लौटा नहीं है।

चन्द्रापीड वैशम्पायन से मिलने के लिये अच्छोद सरोवर की ओर प्रस्थान करता है। वहाँ उसे वैशम्पायन नहीं मिलता। महाश्वेता से हमें ज्ञात होता है कि वैशम्पायन वहाँ आकर पूर्वपरिचित की भांति महाश्वेता से प्रणययाचना करने लगा था और पुण्डरीक के प्रति अनन्य प्रेम करने वाली महाश्वेता ने उसे शुरू हो जाने सम्पायन  का शाप दे दिया । मित्र की मृत्यु सुनकर चन्द्रापीड का हृदय विदीर्ण हो जाता है। कादम्बरी अपने प्रियतम को मृत देखकर स्वयं भी शरीर त्याग करना चाहती है होता किन्तु तभी आकाशवाणी होती है कि पुण्डरीक का शरीर तो चन्द्रलोक में सुरक्षित है ही, कादम्बरी का भी अपने प्रिय से पुनः समागम होगा। उसे चन्द्रापीड के शरीर  की रक्षा करनी चाहिये। अचानक पत्रलेखा इन्द्रायुध के साथ आच्छोद सरोवर में  कूद पड़ती है। तभी उस सरोवर से कपिंजल प्रकट होता है ।

अब कपिजल कथा प्रारम्भ करता है । कपिजल ने पुण्डरीक के शरीर को लेकर उड़ते हुये दिव्य पुरुष का पीछा किया। दिव्य पुरुष चन्द्रमा था। मरते समय पुण्डरीक ने चन्द्रमा को यह शाप दिया था कि उसे भी पृथ्वी पर इसी प्रकार वियोग  पीडा का अनुभव करना पड़ेगा। बदले में चन्द्रमा ने भी पुण्डरीक को समान दुःखों पर  का भागी होने का प्राप दिया । चन्द्रमा शाप समाप्ति तक पुण्डरीक का शरीर कथा सुरक्षित रखने के लिये चन्द्रलोक में ले जाया गया था । इन सूचनाओं को लेकर लौटते हुए कपिंजल ने एक वैमानिक का मार्ग लांघा जिसके कारण वैमानिक ने उसे शका घोड़ा बन जाने का शाप दिया और यह छूट दे दी कि अपने स्वामी की मृत्यु के बाद ग्रन्थ जल में स्नान करने पर शाप-मुक्त हो जायेगा। इतना बताकर कपिजल सब घटनायें महर्षि श्वेतकेतु को सुनाने के लिये आकाश-मार्ग से प्रस्थान करता है ।

जाबालि यह कह कर अपनी कथा समाप्त कर देते हैं कि पहले तो कामासक्त होने के कारण यह शुकनास-पुत्र वैशम्पायन के रूप उत्पन्न हुआ और फिर अपनी धृष्टता के कारण यह शुक बना ।अब शुक स्वयं अपनी कथा के सूत्र को आगे बढ़ाता है।

अब मुझे पूर्वजन्म की बातें स्मरण हो आई। मैंने जाबालि से चन्द्रापीड का पता पूछना चाहा किन्तु जाबालि ने मुझे यह कहकर डांट दिया-'जब उड़ने योग्य हो जाओ, तब पूछना । तभी मेरे पिता महर्षि श्वेतकेतु ने कपिजल के द्वारा सूचना भिजवाई कि शाप समाप्ति तक मुझे जाबालि के आश्रम में ही रहना चाहिये । किन्तु कुछ ही दिन में पंख जम आने पर मैं अपनी प्रेमिका महाश्वेता से मिलने को उड़ चला और मार्ग में चाण्डाल के हाथों पड़ा। चाण्डाल ने मुझे अपनी राजकुमारी को दिया और कुछ दिन वहाँ रहने के बाद वह मुझे यहाँ ले आई।

शुक द्वारा शूद्रक की कही गई कथा यहाँ समाप्त हो जाती है।अब और नये रहस्य खुलते हैं। चाण्डाल कन्या बताती है कि वह पुण्डरीक की माता लक्ष्मी है और श्वेतकेतु के निर्देश पर शुक की देख-रेख कर रही थी। वह बताती है कि अब शाप की समाप्ति का समय आ गया है रोर शुक तथा राजा दोनों अपने वांछित शरीर प्राप्त करेंगे । यह कहकर वह अन्तर्धान हो जाती है। शूद्रक को चन्द्रापीड के रूप में अपना जीवन, महाश्वेता के प्रति प्रेम और वे शम्पायन से मित्रता सभी कुछ स्मरण हो आते हैं । शूद्र क और शुक दोनों के शरीर काठ के हो जाते हैं । चन्द्रापीड जीवित हो जाता है । पुण्डरीक आकाश से अवतरित होता है । दोनों प्रेमी अपनी-अपनी प्रेमिका ओं कादम्बरी और महाश्वेता से समागम का सुख प्राप्त करते हैं । पत्रलेखा के विषय में पता चलता है कि यह चन्द्रमा की पत्नी रोहिणी थी और अब चन्द्रलोक में स्थित है । यही कादम्बरी की कथा का सुखद अन्त हो जाता है ।


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