कर्मयोग

"कर्मयोग"

भगवद्गीता में प्रतिपादित योगशास्त्र के अन्तर्गत कर्मयोग का प्रतिपादन आता है। वस्तुतः "कर्मयोग" को संकल्पना भगवद्गीता की ही देन है। गीता के तीसरे अध्याय का नाम है 'कर्मयोग" जिसमें कर्म को आवश्यकता का प्रतिपादन किया है। तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में ज्ञानयोग और कर्मयोग नामक दो निष्ठाओं का निर्देश हुआ है। पांचवे अध्याय के द्वितीय श्लोक में, सन्यास और कर्मयोग को निःश्रेयस् प्राप्ति की दृष्टि से समानता होते हुए भी

 "कर्मयोगी विशिष्यते'

 इस वाक्य में कर्मयोग का विशेष महत्त्व भगवान बोषित करते हैं। इस कर्मयोग की परंपरा विवस्वान्, मनु, इक्ष्वाकु के द्वारा प्राचीनतम काल से दीर्घ काल तक चलती रही, परंतु वह परम्परा उत्पन्न हो कर, कर्मयोग नष्ट सा हो गया। भगवद्गीता में उसी का पुनरुस्थान किया गया है। वैदिक कर्मकाण्ड और गीतोक्त कर्मयोग में बहुत अन्तर है। कर्मकाण्ड मुख्यतः यज्ञकर्म से संबंधित है।

 "यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म"

 यह सिद्धान्त वैदिक कर्मकाण्ड में माना जाता है। कर्मयोग में चित्तशुद्धि और लोकसंग्रह के हेतु नियत कर्म का महत्त्व माना जाता है। कर्मकाण्ड के अंगभूत यज्ञरूप कर्म का फल स्वर्गप्राप्ति है तो 

"कर्मणैव हि संसिद्धिम् आस्थिता

(जनकादिक राजर्षियों को कर्मयोग के आचरण से हि संसिद्धि अर्थात मुक्ति प्राप्त हुई) इस वचन के अनुसार कर्मयोग का फल मुक्ति बताया गया है। परंतु 'कर्मणा बध्यते जन्तु" यह शास्त्रोक्त सिद्धान्त सर्वमान्य होने के कारण, नियतकर्म के आचरण से मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है, यह प्रश्न उत्पन्न होता है। गीतोक्त कर्मणेग शास्त्र ने उसका उत्तर दिया है। कर्म से जीव को बन्धन प्राप्त होने का एक कारण है, कर्तृत्व का अहंकार और दूसरा कारण है कर्मफल को आसक्ति ।कर्मबन्धन के इन दो कारणों को टाल कर, अर्थात् कर्तृत्व का अहंकार छोड़ कर तथा किसी नियत कर्म के फल की आशा न रखते हुए कर्म का आचरण करने से कर्मबंधन (जो पुनर्जन्म का कारण है) नहीं लगता। इस कौशल्य से कर्म करने से (योगः कर्मसु कौशलम्) चित्तशुद्धि होती है। उससे आत्मज्ञान का उदय हो कर कर्मयोगी को जीवन्मुक्त अवस्था की संसिद्धि प्राप्त होती है। ऐसी आत्मशान पूर्ण जीवनमुक्त अवस्था में, भगवान् कृष्ण के समान लियत या प्राप्त कर्मों का आचरण करन से "लोकसंग्रह होता है। आत्मज्ञान (अर्थात् आत्मानुभव) होने पर वास्तविक किसी कर्माचरण की आवश्यकता न होने पर भी, "लोकसंग्रह" के निमित कर्मयोग का अनुष्ठान करना नितांत आवश्यकता है।"लोकसंग्रह" शब्द का अर्थ, श्री शंकराचार्य के अनुसार "लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणम्" और मधुसूदन सरस्वती के अनुसार "सधर्म स्थापने च” अर्थात् अशनी लोगों को अधार्मिक और अनैतिक कर्मों से परावृत्त करना और स्वधर्म की ओर प्रवृत्त करना, यह सर्वमान्य है। ज्ञानी पुरुष निरहंकार और निकाम बुद्धि से या ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म नहीं करेंगे और सर्वथा कर्मत्याग या कर्मसंन्यास (जो तत्वतः असंभव है। करेंगे तो सामान्य जनता का जीवन दिशाहीन या आदर्शहीन हो कर, उसका नाश होगा। भगवद्गीतोक्त कर्मयोग के वैयक्तिक दृष्टया, सल्लाशुद्धि (अथवा चित्तशुद्धि) तथा सामाजिक दृष्ट्या "लोकसंग्रह" इस

प्रकार द्विविध लाभ होने से उसकी श्रेष्ठता मानी है। गीतोक्त कर्मयोग के संबंध अत्यत मार्मिक एवं चिकित्सक विवेचन महान् देशभक्त एवं तत्वज्ञानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महाराज ने अपने गीतारहस्य या कर्मयोगशास नामक प्रख्यात मराठी प्रबंध (पृष्ठसंख्या 864) में किया है। इस प्रबय में कर्मयोग विषयक सभी विसाय विषयों का सप्रमाण परामर्श लिया गया है। इस ग्रंथ का पुणे के डा. आठलेकर ने संस्कृत में अनुवाद किया है (अप्रकाशित)। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं तथा अंग्रेजी,जर्मन, फ्रेंच, चीनी आदि परकीय भाषाओं भी इस महान् प्रथ के अनुवाद हुए है।

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