विष्कम्भक

 🌻🌻विष्कम्भक संस्कृत नाटकों का एक पारिभाषिक शब्द है। यह कथावस्तु का ही एक भाग होता है; जिसका प्रयोग प्रथम अंक को छोड़कर द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि के आरम्भ में किया जाता है। एक अंक की समाप्ति और दूसरे अंक के आरम्भ के मध्य कई बार कई वर्षों का अन्तर होता है। अतः उस काल में घटित घटनाओं को मञ्च पर अभिनीत न करते हुए नाटककार केवल किन्हीं दो पात्रों अथवा अधिक पात्रों के द्वारा दर्शकों को सूचित कर देता है। कदाचित आगे होने वाली घटना की सूचना भी ये पात्र दे देते हैं। इसे ही विष्कम्भक कहते हैं। विश्वनाथ जी ने अपने साहित्यदर्पण में विष्कम्भक की परिभाषा इस प्रकार दी है

"वृत्तवर्तिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शकः। 

संक्षिप्तार्थवस्तु विष्कम्भ आदावङ्कस्य दर्शितः।।"

[साहित्यदर्पण 6-55] विष्कम्भक के विश्वनाथ जी ने शुद्धविष्कंभक और संकीर्ण विष्कम्भक ये दो भेद माने हैं।

यदि दो अंकों की बीच घटित घटनाओं या आने वाली घटनाओं की सूचना दर्शकों को नाटक के मध्यम श्रेणी के एक या एकाधिक पात्रों की बात-चीत से प्राप्त होती है तो वह शुद्धविष्कम्भक और यदि ऐसी सूचनाएँ मध्यम पात्र या निम्न श्रेणी के एक या एकाधिक पात्रों की बातचीत से प्राप्त होती हैं; तो वह मिश्र (संकीर्ण) विष्कम्भक कहलाता है यथा

मध्येनमध्यमाभ्यां वा पात्राभ्यां सम्प्रयोजितः । 

शुद्धः स्यात् यः तु संकीर्णों नीचमध्यमकल्पितः।।"[साहित्यदर्पण 6-56]


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