संस्कृत भाषा का समपूर्ण इतिहास,,
संस्कृत भाषा
संस्कृत शब्द का प्रयोग अनेकविध अर्थों में संस्कृत साहित्य में किया गया है। उन सभी प्रयोगों में सुशोभित करना, अलंकृत करना, पवित्र करना, प्रशिक्षित करना, सतेज करना, निर्दोष करना, इत्यादि भाव व्यक्त होते हैं। जब किसी भाषा को संस्कृत विशेषण लगाया जाता है, तब यह अर्थ माना जाता है कि वह भाषा अर्थात् उस भाषा के बहुत से शब्द, निश्चित अर्थ व्यक्त करने की दृष्टि से भाषा शास्त्रीय पद्धति के अनुसार विवेचन कर, निर्दोष किए गए हैं। उन शब्दों में स्वर, व्यंजन, हस्व, दीर्घ इत्यादि किसी प्रकार की विकृतता सदोषता बाकी नहीं रही। बहुतांश शब्दों का निरुक्ति व्युत्पत्ति आदि दृष्टि से पूर्णतया संशोधन करने के कारण, संपूर्ण भाषा में जो परिपूर्णता, परिपक्वता या विशुद्धता निर्माण हुई, उसी कारण भारतीय मनीषियों ने अपनी संस्कापूत भाषा की स्तुति, “दैवी वाक्' (संस्कृतं नाम दैवी वाक्) (काव्यादर्श- 1-33) इस अनन्य साधारण विशेषण से की। देवभाषा, अमरभाषा, गीर्वाणवाणी, अमृतवाणी, सुरभारती, इत्यादि संस्कृत भाषा के निर्देशक अनेकविध रूढ शब्दप्रयोग, इस भाषा की संस्कारपूर्तता के कारण निर्माण हुई अपूर्वताअद्भुतता.,सुंदरता इत्यादि गुणों को ही व्यंजित करते हैं।
आस्तिक दृष्टिकोण के अनुसार सभी चराचर सृष्टि की निर्मिति सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी परमात्म तत्त्व से हुई है। अर्थात् इस सृष्टि के अन्तर्गत सभी सचेतन प्राणिमात्र के कंठ से प्रस्फुटित होने वाली शब्दस्वरूप वाणी भी परमात्म तत्व की ही निमिति है। यह शब्दरूप वाणी आदिकाल में समुद्रध्वनि के समान अव्याकृत-अस्फुट थी। श्री सायणाचार्य (अर्थात् श्रीविद्यारण्य स्वामी) अपने ऋग्वेदभाष्य में कहते हैं :- "अग्निमीळे पुरोहितम् इत्यादि-वाक् पूर्वस्मिन् काले समुद्रादिध्वनिवद् एकात्मिका सती अव्याकृता = प्रकृतिः प्रत्ययः पदं वाक्यम् इत्यादि विभागकारिग्रन्थरहिता आसीत् । तदा देवैः प्रार्थितः इन्द्रः एकस्मिन् एव पात्रे वायोः स्वस्य च सोमरसग्रहणरूपेण वरेण तुष्टः ताम् अखण्डवाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृतिप्रत्ययादिविभागं सर्वत्र अकरोत्"।
अर्थात् आदिकाल में समुद्रध्वनि के समान अव्यक्त वेदवाणी को इन्द्र भगवान् ने सोमरस से प्रसन्न होने के कारण, प्रकृति प्रत्यय इत्यादि विभाग भाषा में निर्माण कर उसे अर्थग्रहण के योग्य किया। वेदों में भाषा की उत्पत्ति के संबंध में चार प्रसिद्ध मन्त्र मिलते हैं :
(1) देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मन्द्रेषमूर्ज दुहाना धेनुर्वागस्मान् उपसुष्टतेतु । ऋ. 8-100 ।। (2) चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मां आविवेश | ऋ. 4-58-3 ।। (3) इन्द्रा-वरुणा यदृषिभ्यो मनीषां वाचो मतिं श्रुतमदत्तमगे। यानि स्थानान्यसृजन्त धीरा । यज्ञं तन्वाना तपसाभ्यपश्यन् । ऋ. 8-59-6 ।। . (4) चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति | ऋ. 1-164-45 ।।
अथर्व -6-25-27-26-1 इन वाणी विषयक मन्त्रों पर भाष्य लिखने वाले यास्क, पतंजलि, सायण जैसे महामनीषियों ने अपने भाष्य ग्रंथों में वैदिक भाषा की उत्पत्ति का संबंध साक्षात् देवों से ही जोडा है। सायणाचार्य ने तो संस्कृत भाषा का पर्यायवाचक शब्द "देवभाषा" इस सामासिक शब्द का विग्रह “देवसृष्टा भाषा देवभाषा" इस प्रकार कर, यह भी कहा है कि यह देवभाषा "सर्वजनमान्या" और “सर्वविदिता" है। त्रेता युग में इन्द्र चन्द्र भूतेश जैसे देवता इस भाषा के अक्षर निर्माता थे इत्यादि अर्थ के वचन प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं।
भाषाविज्ञान का मत आधुनिक भाषाविज्ञान के पंडितों ने संसार के जो विविध भाषापरिवार माने हैं उन में आर्यपरिवार (जिसे इंडोजानिक और इण्डोयूरोपियन भी कहते हैं) नामक सर्वप्रमुख भाषापरिवार माना है। इस परिवार में यूरोप, उत्तर-दक्षिण अमरीका, नैऋत्य आफ्रिका, आस्ट्रेलिया और ईरान जैसे विशाल प्रदेशों की अनेकविध भाषाओं का अन्तर्भाव होता है। उन सब में संस्कृत भाषा को अग्रस्थान दिया जाता है। संस्कृत भाषा की प्रमुखता के कारण इस भाषा परिवार का "सांस्कृतिक भाषा परिवार" यह नामकरण कुछ विद्वानों ने संमत किया था। परंतु इस परिवार के प्रदेशों में इंडिया और यूरोप ये दो प्रमुख प्रदेश हैं। इन दोनों का निर्देशक “इण्डोयूरोपीय" यही नाम सर्वत्र रूढ हुआ।
🌺आदिम आर्यभाषा 🌺
इण्डोयूरोपीय परिवार की सभी भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने पर आधुनिक भाषा वैज्ञानिक इस सिद्धान्त पर पहुंचे कि इन विविध प्रदेशस्थ भाषाओं का मूल स्रोत कोई "आदिम भाषा" रही होगी। संस्कृत, अवेस्ती, ग्रीक और लॅटिन के सब बहुमान प्रदान किया गया। यह तथाकथित कल्पित आदिम आर्य भाषा, संस्कृत, अवेस्ती, ग्रीक, जर्मन, लॅटिन, केल्टी, स्लावी, बाल्टी, आमींनी, अल्चेनी, तोरखारी और हिट्टाइट इन सभी इण्डोयूरोपीय भाषाओं की जननी मानी गई।
इस काल्पनिक आदिम भाषा का उपयोग करनेवाली आर्यजाति की भी कल्पना की गई और आर्यजाति का मूलस्थान यूरोप की पूर्व और एशिया की पश्चिम सीमा रेखा पर कहीं तो भी होना चाहिये, इस निर्णय पर पहुंचने पर, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी जैसे भारतीय भाषावैज्ञानिक, प्रो. बेंडेस्टाइन का मत प्रमाणभूत मान कर, उराल पर्वत का दक्षिणी प्रदेश ही आदिम आर्य जाति का मूल निवासस्थान मानते हैं। इस कल्पित, तथाकथित आदिम आर्यभाषा की सब से निकट भाषा संस्कृत ही मानी गई है।
इस संस्कृत भाषा में संसार का प्राचीनतम वेदवाङ्मय भरपूर मात्रा में और अविकृत स्वरूप में, आज भी उपलब्ध होता है। समग्र मानवजाति के प्राचीनतम इतिहास के वाङ्मयीन प्रमाण, भारत की इस देववाणी में आज प्राप्त होते हैं।
मानव समाज को जब तक अपने प्राचीनतम इतिहास के प्रति आस्था या जिज्ञासा रहेगी और जब तक ग्रंथालयों एवं संग्रहालयों में प्राचीनतम वाङ्मय एवं वस्तुओं का संग्रह करने की प्रेरणा मानव में रहेगी, तब तक संस्कृत भाषा में उपनिबद्ध प्राचीन वेदवाङ्मय को अग्रपूजा का स्थान देना ही होगा।
भाषाविज्ञान के निष्कर्ष वैदिक वाङमय का भाषाशास्त्रीय अध्ययन करने पर आधुनिक भाषा पंडित इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि, वैदिक संहिताओं के सूक्तों में स्थान स्थान पर बोली के भेद दिखाई देते हैं। ऋग्वेद के प्रथम और दशम मंडल के सूक्तों की भाषा, अन्य मंडलों की भाषा की तुलना में, उत्तरकालीन दिखाई देती है। ब्राह्मणग्रंथों, प्राचीन उपनिषदों और सूत्र ग्रंथों की भाषा क्रमशः विकसित हुई मालूम होती है। पाणिनि के समय तक वैदिक वाङ्मय की भाषा और तत्कालीन शिष्टों की भाषा में पर्याप्त अंतर पड गया था। पाणिनि के पूर्ववर्ती पचीस श्रेष्ठ वैयाकरणों ने इस भाषा के शब्दों का बडी सूक्ष्मेक्षिका से अध्ययन किया था। पाणिनि के समय तक उत्तर भारत में उदीच्य, प्राच्य और मध्यदेशीय, तीन विभाग संस्कृत भाषान्तर्गत शब्दों में रूपान्तर होने के कारण हो गए थे।
वैदिक संस्कृत और विदग्ध संस्कृत भाषा में प्रधानतया जो भेद निर्माण हुए उनका संक्षेपतः स्वरूप निम्नप्रकार हैअनेक वैदिक शब्दों का लौकिक भाषा में अर्थान्तर हो गया। कुछ प्रत्यय, धातु, सर्वनाम वैदिक और लौकिक संस्कृत में विभिन्न हो गए। वैदिक संस्कृत में क्रिया से दूर रहने वाले उपसर्ग, लौकिक भाषा में क्रिया के पूर्व रूढ हुए। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों के कारण वैदिक संस्कृत में जो संगीतात्मकता थी, वह लौकिक भाषा में उन स्वरों का विलय होने से, लुप्त हो गई। वैदिक में कर्ता और क्रियापद के वचन में भिन्नता थी। लौकिक भाषा में वहां एकता आयी। यही बात विशेषण और विशेष्य के संबंध में हुई। वैदिक भाषा में केवल वर्णिक छंद मिलते हैं किन्तु लौकिक संस्कृत में वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छंद मिलते हैं । अनुष्टुप् के अतिरिक्त कुछ वैदिक छंद लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गए।
🌺 संस्कृत और एकात्मता 🌺
संस्कृत भाषा के (ओर समस्त संसार के) सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण भगवान् पाणिनि हुए। उन्होंने अपने शब्दानुशासन द्वारा संस्कृत भाषा को विकृति से अलिप्त रखा। लौकिक व्यवहार में, लोगों की शुद्धवर्णोच्चार करने की अक्षमता के कारण, अथवा वर्णोच्चार में मुखसुख की प्रवृत्ति के कारण, संस्कृत से अपभ्रंशात्मक प्राकृत भाषाएं भारत के विभिन्न भागों में उदित और यथाक्रम विकसित होती गईं। परंतु पाणिनीय व्याकरण के निरपवाद प्रामाण्य के कारण संस्कृत भाषा का स्वरूप निरंतर अविकृत रहा। संसार की भाषाओं के इतिहास में यह एक परम आश्चर्य है। पणिनीय व्याकरण के प्रभाव के कारण "अमरभाषा" यह संस्कृत भाषा का अपरनाम चरितार्थ हो गया।
पाणिनि के समय में शिष्ट समाज के परस्पर विचार-विनिमय की भाषा संस्कृत ही थी। उनके बाद भी कई सदियाँ तक यह काम संस्कृत भाषा करती रही। श्रीशंकराचार्य जैसे प्राचीन विद्वान अपना सैद्धान्तिक दिग्विजय संस्कृत भाषा में शास्त्रार्थ करऔर एकरूप ही करते थे। कुछ इतिहासज्ञों के मतानुसार मगध साम्राज्य तथा बौद्ध संप्रदाय के प्रभाव के कारण संस्कृत का प्रभाव कुछ काल तक सीमित सा हो गया था, परंतु पुष्यमित्र शुंग की राज्यक्रान्ति के बाद मौर्य साम्राज्य समाप्त होकर संस्कृत भाषा का महत्त्व फिर से यथापूर्व स्थापित हो गया। प्रायः 12 वीं सदी तक संस्कृत- सभी हिंदु राज्यों की राजभाषा रही।
12 वीं सदी शताब्दी के बाद आज की हिंदी, गुजराती, बंगला, मराठी इत्यादि प्रादेशिक भाषाएं लोकप्रिय होती गईं। उनका अपना साहित्य निर्मित होने लगा। परंतु पाली, महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी इत्यादि के समान यह अर्वाचीन प्रादेशिक भाषाएं, संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्दों से उपजीवित और परिपोषित होती गई। पाश्चात्य साहित्य का परिचय और प्रभाव होने के पहले का सभी प्रादेशिक भाषाओं का संपूर्ण साहित्य संस्कृतोपजीवी ही रहा। संस्कृत भाषा में शास्त्रीय चिकित्सा करने की जो अद्भुत क्षमता है, उसके अभाव के कारण पाली-प्राकृत भाषा के अभिमानी धर्माचार्यों को यथावसर संस्कृत का ही प्रश्रय लेना पडा।
दक्षिण की तमिळ, मलयालम, कन्नड और तेलुगु ये चार भाषाएं भाषा वैज्ञानिकों के मतानुसार द्रविड परिवार की भाषाएं मानी जाती है। परंतु उन भाषाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रमाण उत्तर भारत की हिन्दी आदि प्रादेशिक भाषाओं के प्रायः बराबरी में है। किंबहुना कुछ मात्रा में अधिक भी है और उनका संपूर्ण साहित्य भी इस सुरभारती के स्तन्य पर ही परिपुष्ट हुआ है। यही एक कारण है कि, भारत में भाषाएं विविध हैं, परंतु उसका साहित्य एकात्म इस सनातन राष्ट्र के जीवन में इस महनीय भाषा के कारण ही सदियों से सांस्कृतिक सरूपता और एकात्मता रही है। आगे चल कर भी अगर इस राष्ट्र को अपनी भाषिक और सांस्कृतिक एकात्मता दृढ रखनी होगी, तो संस्कृत का सार्वत्रिक प्रचार करना पडेगा।
🌺संस्कृत भाषा की अखिल भारतीयता 🌺
प्राचीनता जैसे संस्कृत भाषा की अनोखी विशेषता है, वैसे ही उसकी वाङ्मय राशि की अखिल भारतीयता भी दूसरी विशेषता है। ई. 12 वीं शताब्दी से भारत के अन्यान्य प्रदेशों में विविध प्रादेशिक भाषाओं का धीरे धीरे विकास प्रारंभ हुआ। इन सभी प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य निरपवाद संस्कृत साहित्योपजीवी रहा। संस्कृत का पौराणिक वाङ्मय, उस साहित्य का स्फूर्तिस्थान रहा। व्यास और वाल्मीकि की प्रतिभा ही मानों सभी प्रादेशिक आयामों की लेखनी से शत सहस्र प्रकारों में पल्लवित और पुष्पित हुई। आधुनिक युग में पाश्चात्य साहित्य के संपर्क से प्रादेशिक साहित्य की वल्लरियां अन्यान्य दिशाओं और आर्यायों में उभर आयी। आज वे सारी अपने अपने प्रादेशिक राज्यों की राजभाषाएं हुई हैं। परंतु इतनी सारी प्रगति के बावजूद हिंदी, मराठी, बंगाली, गुजराती, तेलुगु, कन्नड, तमिल, मलयालम इन सारी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में, अखिल भारतीयता नहीं आयी। कुछ अभिनन्दनीय अपवाद छोड कर, प्रायः सभी प्रादेशिक भाषाओं का सारा का सारा लेखक वर्ग सीमित प्रदेशस्थ ही रहा। याने मराठी का लेखक वर्ग महाराष्ट्र के बाहर, या कन्नड का लेखक वर्ग कर्नाटक के बाहर कहीं मिलता, न आगे चल कर मिलेगा। हिंदी भाषा को अखिल भारतीय भाषा के नाते शासकीय वैधानिक और विविध पक्षीय समर्थन प्राप्त होने पर भी, हिंदी का साहित्यिक वर्ग उत्तर भारतीय ही रहा है।
भारत के सभी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यों को इतिहास ग्रंथ पढते समय उनकी सीमित प्रादेशिकता ठीक ध्यान में आती है। आज के भाषिक अभिनिवेश के युग की चाल देखते हुए यह साफ दिखाई देता है कि, हिंदी, बंगाली, मराठी, कत्रड इत्यादि भारत की विविध प्रादेशिक भाषाओं में से, किसी भी भाषा का प्रमुख लेखक वर्ग भविष्य काल में अखिल भारतीय नहीं होगा।
वाङ्मय के अन्तर्गत ललित और विविध शास्त्रीय वाङ्मय शाखा के इतिहास ग्रंथों का आलोचन करते हुए जो बात प्रमुखता से ध्यान में आती है, वह है उनके लेखकों की अखिल भारतीयता। काश्मीर से कन्याकुमारी तक और कामरूप से कच्छ तक, फैले हुए समग्र भारत वर्ष के अन्तर्गत सभी प्रदेशों में जन्म पाए हुए महामनीषियों की प्रतिभा एवं पाण्डित्य का अद्भुत वैभव इस भाषा के गद्य, पद्य और सूत्ररूप ग्रंथों में अपनी दिव्य दीप्ति से चमक रहा है।
संस्कृत वाङ्मय के सभी प्राचीन और अर्वाचीन लेखकों के सभी ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुए। फिर भी जितने प्रकाशित हैं और उनमें से जितने परिमित ग्रंथों का परामर्श, संस्कृत वाङ्मय के इतिहास ग्रंथों में आज तक किया गया है, उनकी और उनके लेखकों की संख्या इतनी आश्चर्यकारक है, कि मानो संस्कृत वाङ्मय में अखिल भारतवर्ष का प्रज्ञावैभव अतिप्राचीन काल से आज तक संचित हुआ है। इसी कारण भारत की समस्त सुबुद्ध जनता के हृदय में संस्कृत भाषा के और संस्कृत भाषीय समग्र वाङ्मय के प्रति नितांत आत्मीयता और श्रद्धा है। जिस भाषा के और तन्दतर्गत वाङ्मय के प्रति संपूर्ण राष्ट्र की जनता श्रद्धायुक्त आत्मीयता रखती है वह भाषा और वह साहित्य उस समूचे राष्ट्र का “दैवी निधान' होता है। उसका संरक्षण अध्ययन और प्रसारण करना उस राष्ट्र के निष्ठावान सज्जनों का अनिवार्य कर्तव्य होता है। संस्कृत भाषा और संस्कृत वाङ्मय के प्रति अखिल भारतीय विद्यारसिकों का यही दायित्व है।
🌺 संस्कृत की लिपि 🌺
मोहनजोदडो और हडप्पा में जो प्राचीनतम सामप्री प्राप्त हुई उसमें कुछ लेख भी हैं। ये ऐसी लिपि में हैं जो ब्राह्मी या खरोष्ट्री (जो भारत की प्राचीनतम लिपियां मानी गई. हैं) से मेल नहीं खाती। उस लिपि का वाचन करने का प्रयास कुछ विद्वानों ने किया, परंतु उनके वाचन में एकवाक्यता न होने के कारण, वह लिपि अभी तक अवाचित ही मानी जाती है।
अजमेर जिले के बडली या बर्ली गांव में और नेपाल की तराई में पिप्रावा नामक स्थान में दो छोटे छोटे शिलालेख मिले हैं। उनके अक्षर पढे गए हैं, परंतु जिस लिपि में वे लिखे गए है वह सम्राट अशोक से पूर्वकालीन मानी गई है।
वैदिक वाङ्मय, त्रिपिटक साहित्य, जैन ग्रंथ, पाणिनि की अष्टाध्यायी इत्यादि प्राचीन प्रमाणों से प्राचीन भारत की लेखनकला का अस्तित्व प्रतीत होता है और उन प्रमाणों से भारत को लिपिज्ञान पाश्चात्य या चीनी सभ्यता के संपर्क से प्राप्त हुआ इस प्रकार के यूरोपीय विद्वानों के मत का खंडन होता है। जैनों के पन्नवणासूत्र में और समवायंग सूत्र में 18 लिपियों के नाम मिलते हैं। बौद्धों के ललितविस्तर में 64 लिपियों के नाम आए हैं, जिनमें ब्राह्मी और खरोष्ट्री का भी निर्देश है। अशोक के शहाबाजगढी और मनसेहरा वाले लेख खरोष्ठी में है। इसके पूर्व का, इस लिपि का कोई लेख नहीं मिलता। अशोक के बाद यह लिपि भारत में विदेशी राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों में पाई गई है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश और पंजाब में खरोष्ठी के लेख मिले और शेष भाग में ब्राह्मी के लेख मिले हैं। खरोष्ठी, अरेबिक के समान, दाई से बाई और लिखी जाती है। पंजाब में तीसरी सदी तक इस लिपि का प्रचार कुछ मात्रा में था। बाद में वहां से भी वह लुप्त हुई।
भारत की प्राचीन लिपियों में ब्राह्मी अधिक सुचारु और परिपूर्ण लिपि थी। इसी कारण इसको साक्षात् ब्रह्मा द्वारा निर्मित माना गया। इस लिपि की भारतीयता के बारे में पाश्चात्य विद्वानों में दो मत हैं। विल्सन, प्रिंसेप, आफ्रेट मूलर, सेनार्ट, डीके, कुपेरी, विल्यम जोन्स, वेबर, टेलर, बूलर आदि विद्वान इसका मूल भारत के बाहर मानते हैं; परंतु एडवर्ड, टामस, डासन, कनिंघम जैसे पाश्चात्य पंडित और श्रीगौरीशंकर हीराचन्द ओझा, डा. तारापुरवाला जैसे भारतीय लिपि-शास्त्रज्ञों के मतानुसार, ब्राह्मी का उत्पत्तिस्थान भारत ही माना जाता है।
ई. पू. 5 वीं शती से 4 थी शती तक के प्राप्त लेखों में ब्राह्मी लिपि मिलती है। बाद में ब्राह्मी की पांच प्रकार की उत्तरी और छह प्रकार की अवांतर (पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कन्नडी, ग्रन्थलिपि, कलिंग लिपि और तमिल) लिपियां मिलती हैं।
उत्तरी ब्राह्मी लिपियों में ई. 8 वीं सदी से प्रचारित हुई नागरी लिपि विशेष महत्वपूर्ण मानी गई हैं। गुजराती और बंगला लिपि में इसका सादृश्य दिखाई देता है। मराठी और हिंदी भाषाओं की यही लिपि है। नेपाल की यह राजलिपि है और संस्कृत के बहुसंख्य प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ इसी लिपि में मिलते हैं। 10 वीं सदी से 12 वीं सदी तक, इस लिपि में यथोचित सुधार होता गया और 12 वीं सदी में उसका वर्तमान रूप सुस्थिर सा हो गया। टंकमुद्रण की सुविधा के लिए, वीर सावरकर, आचार्य विनोबाजी भावे, जैसे मनीषियों ने इस लिपि में कुछ विशेष सुधार सुझाए और स्वराज्यप्राप्ति के बाद भारतीय शासन ने उसका विद्यमान स्वरूप निश्चित किया, जिसमें अंकों के लिए यूरोपीय चिन्ह सार्वत्रिक समानता की दृष्टि से स्वीकृत किए हुए हैं। नागरी को देवनागरी और नन्दिनागरी भी कहते हैं।
अतिप्राचीन काल से संस्कृत भाषा विद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन का और विद्वानों के भाषण तथा लेखन का माध्यम संपूर्ण भारत भर में रहा। अशिक्षित या अल्पशिक्षित समाज में संस्कृत भाषा का लेशमात्र परिचय होने पर भी, उसके प्रति परम श्रद्धा थी और आज भी है। संस्कृत का कोई भी वचन, बहुजन समाज में प्रमाणभूत माना जाता रहा। जातिभेद की कट्टरता तथा छुआछूत की दुष्ट रूढी के कारण निकृष्ट स्तर के समाज में इस भाषा का प्रचार कुछ प्रदेशों में नहीं हुआ। वेदाध्ययन के लिए स्त्रियों तथा निकृष्ट वर्गीयों के लिए मनाई रही किन्तु लौकिक काव्यनाटकादि साहित्य के अध्ययन के लिए तथा पुराण-श्रवण के लिए यह मनाई नहीं थी। परंतु विद्याप्रेमी वर्ग, संपूर्ण भारत भर में संस्कृत का अध्ययन, अध्यापन और लेखन निरंतर करता आया। यह सारा संस्कृतज्ञ वर्ग, अपनी प्रादेशिक भाषा की लिपि के अतिरिक्त देवनागरी लिपि से परिचित रहा। गुजराती लेखन में तो जहां जहां संस्कृत वचन आते है वहां वे देवनागरी में लिखे जाते हैं।
भारत में भाषिक एकात्मता के साथ समान-लिपि का पुरस्कार सभी एकात्मतानिष्ठ सज्जनों ने सतत किया। संस्कृत के क्षेत्र में यह लिपि की समानता अभी तक सुरक्षित रही है। संस्कृत का प्रचार-प्रसार जिस मात्रा में सर्वत्र बढेगा उननी मात्रा में भारतीय नेताओं की समान राष्ट्रीय लिपि की अपेक्षा बराबर पूरी होगी।
पाश्चात्य देशों में संस्कृत लेखन या मुद्रण के लिए, वहां की लिपि में, संस्कृत वर्णो के यथोचित उच्चारण के लिए यथावश्यक सुधार कर रोमन लिपि में ही संस्कृत का मुद्रण हो रहा है। परंतु उस आंतरराष्ट्रीय लिपि (इंटरनेशनल स्क्रिए) का भारत के संस्कृतज्ञ समाज में पर्याप्त प्रचार ने होने के कारण, उसके पढने में वे असमर्थ रहते हैं।
🌺 संस्कृत की अखंड धारा 🌺
संस्कृत भाषा का विभाजन वैदिक और लौकिक इन दो प्रकारों में पाणिनि के समय से ही किया जाता था। पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्रों का प्रकरणशः वर्गीकरण कर, भट्टोजी दीक्षित (ई. 17 शती) ने “सिद्धान्त कौमुदी' नामक जो प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ निर्माण किया, उसमें भी लौकिक शब्दों का विवरण करने के बाद वैदिक शब्दों का विवरण स्वतंत्र खंड में किया है।
समग्र संस्कृत वाङ्मय का विभाजन भी इन्हीं दो विभागों में प्रायः किया गया है। आधुनिक काल में संस्कृत वाङ्मय का पर्यालोचन करने वाले अनेक ग्रंथ भारतीय और अभारतीय भाषाओं में लिखे गए। इन संस्कृत वाङ्मयेतिहास के ग्रंथों में कुछ ग्रंथ केवल वैदिक वाङ्मयेतिहास विषयक और कई ग्रंथ लौकिक संस्कृत वाङ्मय का पर्यालोचन करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध संस्कृत वाङ्मय, जैन संस्कृत वाङ्मय तथा प्रादेशिक संस्कृत वाङ्मय का भी पृथक परामर्श लेने वाले इतिहास ग्रंथ प्रसिद्ध हुए हैं।
साहित्य, व्याकरण, तत्वज्ञान, इत्यादि शास्त्रीय विषयों के वाङ्मय के भी इतिहास प्रबन्ध पृथक् पृथक् लिखे गए हैं। हिंदी भाषा में इन सभी प्रकारों के इतिहास प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक शोधछात्र संस्कृत वाङ्मय के किसी विशिष्ट अंग या अंश का सर्वंकष विवेचन करनेवाले शोधप्रबन्ध निर्माण कर रहे हैं। इन सब वाङ्मयेतिहास के लेखकों ने प्रायः 12 वीं या अधिक से अधिक 15 वीं शताब्दी तक निर्माण (और आधुनिक मुद्रणयुग में मुद्रित) हुए वाङ्मय का ही परामर्श लिया है।
संस्कृत वाङ्मय के हस्तलिखित ग्रंथों की सूचियां भी अनेक विश्वविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों के द्वारा निर्माण हुई हैं और हो रही है। परंतु इन सभी के लेखकों एवं संपादकों ने 15 वीं या 16 वीं शताब्दी के बाद भी जो भरपूर संस्कृत वाङ्मय सारे भारत के सभी प्रदशों में निर्माण होता रहा और जिसका कुछ अंश प्रकाशित भी हुआ, उसका परामर्श अपने ग्रंथों में नहीं किया। संस्कृत वाङ्मय के इस उपेक्षित निधान की ओर स्वराज्य प्राप्ति के बाद कुछ संस्कृतोपासकों का ध्यान आकृष्ट हुआ उन्होंने अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का सर्वकष परामर्श करने वाले समीक्षात्मक शोध प्रबन्ध लिखे। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य विषयक प्रबन्धों ने जो एक बडा कार्य किया है वह याने यूरोपीय विद्वानों ने 12 वीं शताब्दी के बाद निर्माण हुए संस्कृत वाङ्मय की उपेक्षा करते हुए, यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया था कि, उस कालमर्यादा के बाद संस्कृत में वाङ्मय निर्मिति हुई नहीं इसका कारण वह “मृत" या "मृतवत्" हो गई थी। लोगों के भाषण व्यवहार में उपयोग न होना और नवीन वाङ्मय की निर्मिति न होना, ये दो प्रमुख कारण, संस्कृत को मृतभाषा घोषित करने के लिए दिए गए और सर्वसामान्य स्तर के सुशिक्षितों ने उन्हें प्रमाणभूत मान कर, संस्कृत को मृतभाषा कहना शुरू किया था। संस्कृत वक्ताओं ने अपने भाषणों द्वारा उसकी सजीवता का प्रमाण निरंतर स्थापित किया और आज भी वे कर रहे हैं। परंतु साहित्यनिर्मिति का प्रमाण उपलब्ध करना कठिन था। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य विषयक प्रबन्धों ने वह भी प्रमाण स्थापित कर दिया।
संस्कृत भाषा की और संस्कृत वाङ्मय की, अति प्राचीन काल से अद्यावत् अखिल भारतीयता, उसके प्रति भारत के सभी भाषाभाषी सुबुद्ध जनता की श्रद्धायुक्त आत्मीयता, भारत की विद्यमान सभी प्रादेशिक भाषाओं की शब्दसमृद्धि बढाने की उसकी अद्भुत नवशब्द-निर्माण क्षमता इन तीन कारणों से किसी एक प्रदेश की राज्यभाषा न होते हुए भी संस्कृत समस्त भारत की एक सर्वश्रेष्ठ तथा अग्रपूज्य भाषा मानी जाती है। भारतीय संस्कृति का मूलग्नाही एवं सर्वकष ज्ञान संस्कृत वाङ्मय के अवगाहन से ही हो सकता है यह निर्विवाद सत्य होने के कारण, भारत के बाहर अन्यान्य राष्ट्रों के प्रमुख विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन बडे आदर से होता है।
आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों के मतानुसार दक्षिण भारत की तमिल, मलयालम, तेलुगु, तुळू, कोडगू, तोडकोटा और कैकाडी भाषाओं को द्राविड भाषा-परिवार के अन्तर्गत माना जाता है। साथ ही मध्य भारत की गोंडी, कुरुख, माल्टो, कंध, कुई, और कोलामी जैसी वन्य जातियों की भाषाएं भी द्राविड भाषा परिवार के अन्तर्गत मानी जाती हैं। काल्डवेल नामक भाषा वैज्ञानिक ने, द्राविड भाषाओं का तौलानिक अध्ययन अपने शोध प्रबन्ध द्वारा प्रस्तुत किया है, जिसमें संस्कृत और तमिल भाषा में दृश्यमान भेद विशद करने का प्रयास किया है। इस विभिन्नता के बावजूद, भारत की आर्यपरिवारान्तर्गत भाषाओं के विकास में जिस मात्रा में संस्कृत की सहायता मिली है, उसी मात्रा में द्रविड परिवार की प्रमुख दाक्षिणात्य भाषाओं के विकास में भी संस्कृत की पर्याप्त सहायता मिली है। मलयालम भाषा में तो संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्दों का प्रमाण प्रतिशत 80 तक माना जाता है। भारतीय भाषाओं में जो विभाजन रेखा पाश्चात्य भाषविज्ञों ने निर्माण की है उसे मानने पर भी उत्तर और दक्षिण भारत की न्यान्य भाषाओं को एकात्मक एवं एकरूप करनेवाली भाषा संस्कृत ही है। इस दृष्टि से भारत की भाषिक एकात्मता चाहने वाले सभी सज्जनों को संस्कृत की श्रीवृद्धि करना अत्यावश्यक है।
Sejal kasav
ReplyDeleteMajor sub.- pol.science
Minor sub.- hindi
Sr.no.-01
Shweta sharma
ReplyDeleteSr no.36
Major hindi
Name Simran kour
ReplyDeleteSr no 36
Major history
Pallavi pathania majer history sr.45
ReplyDeleteAnjli
ReplyDeleteMajor-Political science
Minor history
sr.no- 73
Anjli
ReplyDeleteMajor-Political science
Minor- history
sr.no -73
Priyanka Devi
ReplyDeleteSr.no.23
Major history
Monikasharma sr no.26 major hindi
ReplyDeleteName Priyanka devi,Major History,Ser No 30...
ReplyDeleteShikha
ReplyDeleteSr.no.7
Major History
Jagriti Sharma
ReplyDeleteSerial no.2
Major- Hindi
Akriti choudhary
ReplyDeleteMajor history
Sr no 11
Pooja choudhary
ReplyDeleteSr no 18
Major Hindi
Neha Devi
ReplyDeleteMajor History
Sr no 62
Mehak
ReplyDeleteSr.no.34
Major political science
Chetna choudhary Major pol science minor Hindi sr no 13
ReplyDeleteDivya Kumari major political science sr.no 60.
ReplyDeleteName Richa Sr.no 35
ReplyDeleteMajor hindi
Shivani Devi
ReplyDeleteSr no 46
Major Hindi
Minor history
Sr.no.49
ReplyDeleteMajor - political science
Minor- history
Tanvi Kumari
ReplyDeleteSr. No . 69
Major . Pol. Science
Akanksha sharma sr no 13 major hindi
ReplyDeleteTaniya sharma
ReplyDeletePol. Science
Sr no. 21
Name Priya major history sr no 6
ReplyDeleteArti sharma
ReplyDeleteSr no 32
Major hindi
Sonali dhiman political science Sr. no. 19
ReplyDeleteName rahul kumar
ReplyDeleteMajor history
Sr no. 92
Diksha Devi
ReplyDeleteMajor history
Sr. No. 50
Sr no 86
ReplyDeleteMajor history
Major Hindi
ReplyDeleteSr no 16
Mamta Bhardwaj
ReplyDeleteSr no 01
Major history