यास्क
यास्क वैदिक वाङ्मय के रत्नों में निरुक्त एक अत्यंत
तेजस्वी रत्न है। यद्यपि निरुक्तकार अनेक (चौदह) हुए, फिर
भी आचार्य यास्क का निरुक्त कालानुक्रम से अन्तिम किन्तु
गुणों से अग्रिम माना जाता है।
यास्काचार्य के निरुक्त के बारह अध्याय हैं। अभी परिशिष्ट
रूप में और दो गिने जाते हैं। ये परिशिाष्टात्मक अध्याय भी
पूर्वकाल में बारहवें अध्याय का ही भाग माने जाते होंगे ऐसा
विद्वानों का तर्क है।
जिस निघण्टु पर भाष्यरूप में निरुक्त की रचना हुई वह
निघण्ट यास्कप्रणीत है या नहीं इस विषय में विद्वानों में एकमत
नहीं। फिर भी दोनों कृतियों को एककर्तृक मानने पर ही
विद्वानों का बहुमत दीखता है।
यास्काचार्य ने निरुक्त के अतिरिक्त याजुषसर्वानुक्रमणी और
कल्प ये दो ग्रंथ लिखे थे किन्तु वे ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं।
निरूक्त के आधारभूत निघण्टु के तीन कांड और पांच अध्याय
और हैं। प्रथम तीन अध्याय नैघण्टुककाण्ड, चौथा नैगमकाण्ड
और पांचवां दैवतकाण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसका शास्त्रीय
विवरण ही निरुक्त नाम से प्रसिद्ध है। सभी परवर्ती वेदभाष्यकारों
के लिए यह ग्रंथ प्रमाणभूत रहा है।
यास्क का काल, महाभारत-काल ही समझना चाहिये।
महाभारत में यास्क का निर्देश है। यास्क के अतिरिक्त अन्य
निरुक्तकार गालव का भी निर्देश होने के कारण वह संभावना
यास्क का समय निर्धारित करने में बाधक नहीं होगी।
यास्क प्रणीत निरुक्त के दो पाठ हैं,
दुर्गाचार्य की वृत्ति लघुपाठ पर है। लघुपाठ गुर्जर पाठ के
नाम से और बृहत्पाठ महारा्ट्र पाठ के नाम से प्रसिद्ध है।
वेदार्थनिर्णय के विषय में निरुक्तकार ने अधिदेवत, अध्यात्म,
आख्यान, समय आदि 9 पक्ष बना कर उन सब पक्षों का
यथोचित समन्वय करके दिखाया है। यही निरुक्त की विशेषता है।
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