☯️ मत्स्येन्द्रनाथ ☯️
मत्स्येन्द्रनाथ - नाथ-संप्रदाय के प्रवर्तक । इनके नाम के साथ
इतनी अद्भुत आख्यायिकाएं जुडी है कि उनका विश्वसनीय
चरित्र लिखना कठिन है। उनके जीवन संबंधी कुछ कथाएं
इस प्रकार है
(1) एक बार एक द्वीप में एकांत में बैठे हुए शंकर,
पार्वती को योग का उपदेश दे रहे थे। समीप ही बहने वाले
जलप्रवाह में विचरण करने वाली मछली ने उनका वह उपदेश
सुन लिया। उसका मन इतना एकाग्र हो गया कि उसे
निश्चलावस्था प्राप्त हुई। भगवान् शंकर ने उसकी वह अवस्था
देखकर उस पर अनुग्रहपूर्वक जलप्रोक्षण किया। मत्स्य का
मत्स्येंद्रनाथ बन गया।
(2) भगवान् शंकर द्वारा अपने गले में धारण की गयी
मुण्डमाला के मुण्ड उनके पूर्वजन्मों के हैं, यह रहस्य जब
नारद मुनि से जगन्माता पार्वती को ज्ञात हुआ, तब उन्हें
भगवान् शंकर के पूर्वजन्म के बारे में जानने की जिज्ञासा
हुई। उन्होंने अपनी इच्छा शिव के सामने प्रकट की। अपने
पूर्वजन्म का रहस्य बतलाने के लिये शिवजी ने
एकांत स्थान ढूंढा। संयोग से उसी समुद्र में 12 वर्षों से
मछली के पेट में पलने वाले एक बालक ने वह शिव-पार्वती
संवाद सुन लिया। वह बालक किसी भृगुवंशीय ब्राह्मण के
यहां गंडांतरयोग पर पैदा होने के कारण पिता द्वारा समुद्र में
फेंक दिया गया था, तथा उसे मछली ने निगल लिया था।
अपना संवाद बालक ने सुन लिया है यह ज्ञात होने पर शिव
ने उस पर कृपा की। वह बालक महासिद्ध अवस्था में मछली
के पेट से बाहर निकला। वही मस्त्येन्द्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ) के
नाम से विख्यात हुआ।
(3) मच्छिंद्रनाथ और गोरखनाथ गुरु-शिष्य थे। एक बार
घूमते हुये दोनों प्रयाग में पहुंचे। उस समय वहां के राजा
की मृत्यु हो गयी थी। सारी प्रजा शोकसागर में डूब गयी
थी। गोरखनाथ प्रजा का दुःख देखकर द्रवित हुए तथा उन्होंने
अपने गुरु से अनुरोध किया कि वे राजा के मृत शरीर में
प्रवेश कर उसे जीवित करें। मच्छिंद्रनाथ ने शिष्य का अनुरोध
स्वीकार कर लिया।
इधर गोरखनाथ मच्छिंद्रनाथ के निर्जीव शरीर की रक्षा
करते रहे, उधर मच्छिंद्रनाथ राजपाट तथा आमोद-प्रमोद में
आकंठ डूब गये। बारह वर्षों के बाद रानियों को इस रहस्य
का पता चला। उन्होंने मच्छिंद्रनाथ के शरीर के टुकड़े-टुकड़े
करवा डाले तथा उन्हें चारों ओर फिकवा दिया। भगवान् शिव
को यह ज्ञात होते ही उन्होंने अपने अनुचर वीरभद्र को न
टुकड़ों को एकत्र कर लाने को भेजा। वीरभद्र ने अपने स्वामी
की आज्ञा का पालन किया।
गोरखनाथ को इस बात का पता चला। वे वीरभद्र
के निकट गये और उन्होंने मच्छिंद्रनाथ के देहखंड उनसे मांगे।
वीरभद्र ने अस्वीकार किया। तब गोरखनाथ ने वीरभद्र तथा
उनके साथियों से युद्ध कर अपने गुरु के देहखंड उनसे छीन
लिये। गोरखनाथ ने संजीवनी-विद्या से देहखंडों को शरीराकृति
प्रदान की ओर गुरु के पास संदेश भेजा। तब गुरुजी राजशरीर
का त्याग कर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हुए।
डा, हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन आख्यायिकाओं तथा कथाओं
का परिशीलन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि मच्छिंद्रनाथ
योगमार्ग के प्रवर्तक थे परंतु दैववशात् वे एक ऐसी
वामाचार-साधना में प्रविष्ट हो गए जिसमें निराबाध स्त्री-संग
अनिवार्य था।
मत्स्येन्द्रनाथ के जन्मकाल के संबंध में मतभेद है। अनेक
इतिहासवेत्ताओं का मत है कि वे 8 वीं, 9 वीं या 10 वीं
शताब्दी में हुए हैं। इनके संप्रदाय में (1) कौलमत के ग्रंथों
और (2) नाथमत के ग्रंथों को मान्यता है। कौलमत के
ग्रंथ, कौलज्ञाननिर्णय, अकुलवीरतंत्र, कुलानंदतंत्र, तथा
ज्ञानकलिका। इनके अतिरिक्त कामाख्यगुह्यसिद्धि, अकुलागमतंत्र
कुलार्णवतंत्र, कौलोपनिषद्, ज्ञानकलिका कौलावलिनिर्णय आदि
ग्रंथ भी मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा रचित बताये जाते हैं। ये सारे ग्रंथ
नेपाल के शासकीय ग्रंथालय में उपलब्ध है।
नाथमत के ग्रंथों में योगविषयक ग्रंथों तथा कुछ रचनाओं
का समावेश है। नेपाल के नेवार लोग मत्स्येन्द्रनाथ को बहुत
मानते हैं। ये लोग “कृषिदेव" के रूप में इनकी पूजा करते
हैं। इसके लिये लकडी के पिण्ड को लाल रंग देकर उत्सवमूर्ति
निर्माण करते है। नेपाल में मच्छिंद्रनाथ पर बौद्धमत का प्रभाव
पड़ा है और उन्हें अवलोकितेश्वर का अवतार माना जाता है।
पाटण में तथा बाघमती के तीर पर मच्छिंद्र का एक-एक
मंदिर है। नेवारों की धारणा है कि मच्छिंद्रनाथ क्रमशः 6-6
महिने इन मंदिरों में रहते है। किंवदन्ती है कि जब एक बार
नेपाल में अकाल पडा, तब गोरखनाथ मच्छिंद्रनाथ को बाघमती
के तीर पर ले गये। उनके वहां जाने से अकाल दूर हो
गया। श्रद्धालु नेवार इस मंदिर को मच्छिंद्रनाथ का प्रमुख
निवासस्थान मानते हैं। गुरखा लोग भी इनकी उपासना करते हैं।
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