वैराग्यशतक
☸️वैराग्यशतक☸️
शतक परम्परा में भर्तृहरि की यह तृतीया रचना प्रतीत होती है। युवावस्था के भोगपरक जीवन और शासक के नीतिनैपुण्य के जो अनुभव थे, उन सबका सार वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है। वैराग्यशतक में भी विभिन्न छन्दों में संकलित शताधिक पद्य हैं। वैराग्यशतक में तृष्णा की दुष्वारता, प्रमाद की हानियों, भोगों की दुःखान्तता, वृद्धावस्था में मृत्युभय, विषयों के त्याग में सुख, राजा से त्यागी की श्रेष्ठता, राजा और विद्वान् की तुलना, बुद्धिमान् के कर्त्तव्य करालकाल की महिमा, सुखी-जीवन की परिभाषा, मन की चंचलता और संसार की अनित्यता आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। भोगों की अनन्तता और तृष्णा की अनन्तता का वर्णन मनोरंजक ढंग से वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है। यथा
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
संसार के समस्त सुखों को नि:सार पाकर भर्तृहरि जी कहते हैं कि केवल शिवभक्ति ही परम सुखदायी है। यथा"सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्॥" इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह विषय भोगों के पीछे भागते हुए मतवाले मन को अपने वश में करने का प्रयत्न करे। यथा
'क्षीवस्यान्तःकरणकरिण: संयमालानलीलाम्॥"
चित्त को संसार से समेट कर ब्रह्म में आसक्त करें क्योंकि यही संसाररूपी सागर को पार करने का एकमात्र साधन है। यथा
ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भव भवाम्भोधिपारं तरितुम्॥"
संक्षेप में कहा जा सकता है कि वैराग्यशतक के अनुसार प्रभुशरण ही जीवन के वास्तविक सुख का आधार है।
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