अभिज्ञानशाकुन्तलम् का परिचय अथवा कथावस्तु का सार
🌻🌻अभिज्ञानशाकुन्तलम् का परिचय अथवा कथावस्तु का सार 🌻🌻
अभिज्ञान शाकुन्तलम् महाकविकालिदास की वह प्रौढतम और विश्वविख्यात नाट्यरचना है, जिसके मात्र अनुवाद को पढ़कर ही जर्मनी के राष्ट्र कवि गेटे महोदय उसे सिर पर रखकर नाचने लग पड़े थे। यह सात अंकों का नाटक है, नाटक का नायक हस्तिनापुर का राजा दुष्यन्त है तथा नायिका शकुन्तला है। शकुन्तला महर्षि कण्व की पालिता पुत्री थी उसका जन्म मेनका और विश्वमित्र के संयोग से हुआ था। इन दोनों अर्थात् दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रेमाख्यान ही नाटक की कथावस्तु है। यह कथावस्तु महाभारत के आदि पर्व तथा पद्मपुराण के स्वर्गाराहेण खण्ड में भी आती है। विद्वानों का मत है कि पद्मपुराण कालिदास के बाद की रचना है इसलिए "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" नाटक की कथा का आधार महाभारत ही माना जाता है। कालिदास जी ने सामान्य से शकुन्तलोपाख्यान को अपनी प्रतिभा से नाटकीय रूप देकर विश्वविख्यात बना दिया है। समीक्षकों को यह नाटक इतना अच्छा लगा कि उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा-“काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला।
शृंगार रस प्रधान यह नाटक माता-पिता की आज्ञा के विना प्रेम विवाह करने वाले युवकों को फटकार लगाने के प्रधान उद्देश्य को लेकर लिखा गया है।
🌻🌻अभिज्ञानशाकुन्तलम् की कथावस्तु 🌻🌻
अभिज्ञानशाकुन्तलम् महाकवि कालिदास की सर्वश्रेष्ठ नाट्यकृती है। यह सात अंकों का श्रृंगार-रस प्रधान नाटक है जिसमें हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त और महर्षि कण्व की पालिता पुत्री के प्रणय का वर्णन किया गया है। इस नाटक के कथानक का सार इस प्रकार है
🌻🌻प्रथमाङ्क में मंगलाचरण के पश्चात् सूत्रधार और नटी की पारस्परिक बातचीत से पता चलता है कि ग्रीष्म ऋतु है और विद्वत् परिषद् चाहती है कि महाकवि कालिदास द्वारा लिखित अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक का अभिनय दिखाया जाये। सूत्रधार नटी को गीत गाने के लिए कहता है तथा उसका गीत सुनकर सूत्रधार कहता है कि इस गीत ने मेरा मन उसी प्रकार हर लिया है जिस प्रकार दुष्यन्त के मन को इस हरिण ने हर लिया है। तभी मृग का पीछा करते हुए रथारूढ़ दुष्यन्त प्रवेश करते हैं। मृग आश्रम में प्रवेश कर जाता है और तपस्वी राजा को उसका पीछा करने से यह कहकर रोक देते हैं कि यह आश्रम का मृग है। इसलिए यह अवध्य है। राजा मृग का पीछा करना छोड़ देते हैं परन्तु मुनियों की प्रार्थना पर आश्रम में चले जाते हैं। वहाँ उनकी भेंट महर्षि कण्व की पालिता पुत्री शकुन्तला से होती है। राजा उसके रूप सौन्दर्य पर मोहित हो जाता है। वह उसकी सखियों अनसूया और प्रियंवदा से उसका परिचय प्राप्त करता है। उसे पता चलता है कि शकुन्तला महर्षि कण्व (कश्यप) की औरस पुत्री नहीं अपितु पालिता पुत्री है। वस्तुतः इसका जन्म अप्सरा मेनका और विश्वमित्र के संयोग से हुआ है। इसलिए यह क्षत्रिय कन्या है। ऐसा जानकर राजा का उसके प्रति प्रेम बढ़ जाता है। शकुन्तला की चेष्टाओं से भी प्रतीत होता है कि वह भी राजा की ओर आकृष्ट है। इसी समय दुष्यन्त के सैनिक जो पीछे छूट गये थे, राजा को ढूंढते हुए वहाँ आ जाते हैं। उनके रथ को देखकर आश्रम का एक हाथी डरकर उपद्रव मचाता है। मुनिकन्यायें घबरा जाती हैं और वृक्षों की सिंचाई का कार्य छोड़कर आश्रम कुटीर में जाना चाहती हैं, जहाँ तापसी गौतमी उनकी प्रतीक्षा कर रही होगी। शकुन्तला भी सखियों के साथ हावभावों से राजा के प्रति स्नेहाभिव्यक्त करती हुई चली जाती है। राजा उदास हो जाता है।
🌻🌻द्वितीयंक वर्णन आता है कि विदूषक राजा के कई दिनों के शिकार खेलने से तंग हो गया है। वह नहीं चाहता कि आज राजा शिकार पर जाये और उसे उनका अनुकरण करना पड़े। वह राजा को शिकार खेलने जाने से रोकता है। यद्यपि राजा का सेनापति राजा को ऊपरी मन से शिकार खेलने के लिए प्रेरित करता है तथापि शकुन्तला के प्रेमपाश में बन्धा राजा विदूषक की खिन्नता का हवाला देकर मृगया पर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर देता है। एकान्त पाकर राजा विदूषक से अपने शकुन्तला विषयक प्रेम की बात करता है। वह विदूषक से पुनः आश्रम के भीतर जाने का बहाना ढूंढने को कहता है ताकि शकुन्तला से मिल सके। विदूषक "कर'' संग्रह का बहाना सुझाता है परन्तु राजा इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। तभी दो तपस्वी आकर राजा से राक्षसों से यज्ञ की रक्षा की प्रार्थना करते हैं। राजा इस प्रस्ताव को स्वीकार करके आश्रम में चला जाता है। तभी राजधानी से दूत आकर कहता है कि आज से चौथे दिन पुत्रपिण्डाराधन नामक यज्ञ होगा। उसमें माताओं ने राजा को बुलाया है। राजा दुविधा में पड़ जाता है। परन्तु वह इस कार्य के लिए विदूषक को राजधानी भेज देता है क्योंकि माताएँ उसे भी पुत्रतुल्य ही मानती हैं। राजा विदूषक से जाते समय शकुन्तला विषयक स्नेह को केवल हंसी-ठिठोली बताता है ताकि विदूषक राजधानी में कोई ऐसी बात न बता दे
🌻🌻तृतीयाङ्क में सखियों के संवाद से सूचना मिलती है कि शकुन्तला दुष्यन्त विषयक प्रेम से अत्यधिक सन्तप्त है। सखियाँ उशीरादि का लेप करके उसके कामसन्ताप को शान्त करने का प्रयास करती हैं तथा उससे प्रार्थना करती हैं कि वह अपने मन की बात बता दे। सखियाँ मालिनी नदी के तट पर लता कुञ्ज में शकुन्तला से सारी बात पूछ रही होती है। इतने में उन्हें ढूंढता हुआ राजा भी यज्ञरक्षा के कार्य से निवृत्त होकर वहाँ आ जाता है और छुपकर मुनि कन्याओं की बातचीत सुनता है। शकुन्तला सखियों से साफ़-साफ़ कह देती है कि जब से उसने दुष्यन्त को देखा है तभी से वह स्वयं को सम्भाल नहीं पा रही है। वह उनसे दुष्यन्त से उसके मिलन की कोई व्यवस्था करने को कहती है। सखियाँ प्रेमपत्र लिखकर उसे राजा तक पहुँचाने की योजना बनाती हैं। परन्तु राजा वहाँ स्वयं ही प्रकट हो जाता है। सखियाँ मृग के बच्चे को उसकी माँ से मिलाने के बहाने वहाँ से चली जाती हैं। दुष्यन्त और शकुन्तला की एकान्त में बातचीत होती है। राजा एकान्त देखकर अविनय पर भी उतारु हो जाता है परन्तु शकुन्तला उसे रोक देती है। इतने में सायंकाल हो जाने की सूचना देती हुई गौतमी शकुन्तला को कुटिया में बुला लेती है। राजा लतामण्डप में ही छिपा रहता है। पश्चात् राजा भी तपस्वियों से राक्षसों के यज्ञ-वेदी के पास मण्डराने की सूचना पाकर यज्ञरक्षा हेतु चला जाता है।
🌻🌻चतुर्थाङ्क में सखियों के संवाद से सूचना मिलती है कि दुष्यन्त और शकुन्तला का गान्धर्व विवाह हो गया है तथा यज्ञ की समाप्ति पर दुष्यन्त हस्तिनापुर लौट गये हैं। इसलिए शकुन्तला विरह व्याकुल हुई अकेली ही कुटिया में है। उधर सुलभ-कोपा महर्षि दुर्वासा भिक्षा लेने कुटिया के द्वार पर आते हैं। शकुन्तला विरहव्याकुल होने के कारण अतिथिआगमन को नहीं जान पाती है। इस पर दुर्वासा उसे शाप दे देते हैं कि जिसकी याद में खोयी हुई तुम ऋषि का अपमान कर रही हो वह याद दिलाने पर भी तुम्हें याद नहीं करेगा। शकुन्तला इस शाप को नहीं सुन पाती है। परन्तु फूल चुन रही सखियाँ अनुसूया और प्रियंवदा उसे सुन लेती हैं। अनुसूया शाप निवारण हेतु महर्षि दुर्वासा से प्रार्थना करती है परन्तु वे केवल इतना ही कहते हैं कि मेरा शाप अन्यथा तो नहीं हो सकता परन्तु कोई स्मृतिचिह्न दिखाने पर उसका प्रभाव समाप्त हो जायेगा। सखियाँ इससे आश्वस्त हो जाती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि राजधानी जाते समय दुष्यन्त शकुन्तला को स्वनाम-अंकित मुद्रिका दे गये हैं। वे शकुन्तला से अभिशाप विषयक बात ही नहीं करती हैं। उधर राजा राजधानी में जाकर दुर्वासा के शाप के कारण शकुन्तला को भूल जाता है। इतने में महर्षि कण्व तीर्थयात्रा से लौट आते हैं। उन्हें आकाशवाणी से सूचना मिलती है कि दुष्यन्त और शकुन्तला का गांधर्व विवाह हो गया है तथा शकुन्तला गर्भवती है। ऋषि शार्ङ्गरव और शारद्वत् मुनिकुमारों के साथ शकुन्लता को प्रतिगृह प्रेषित करते हैं। यह दृश्य बड़ा करुणा जनक है क्योंकि शकुन्तला के वियोग में बालवृद्ध और पशुपक्षी तथा वृक्ष भी व्याकुल हो उठते हैं। त्यागी-तपस्वी कण्व भी विह्वल हो जाते हैं।
🌻🌻पंचमाङ्क में शकुन्तला पतिगृह पहुँचती है। ऋषि कुमार आतिथ्य प्राप्त करने के पश्चात् महर्षि कण्व का संदेश राजा को सुनाते हैं कि उन्होंने आपके गान्धर्व विवाह का अनुमोदन कर दिया है इसलिए गर्भवती शकुन्तला को आप स्वीकार कीजिए। राजा दुर्वासा के शाप के कारण आश्रम में घटित घटनाओं को भूल चुका था। इसलिए वह इस सम्बन्ध को नकार देता है। शकुन्तला एकान्त में हुई कई बातों का विवरण याद दिलवाने हेतु प्रस्तुत करती है परन्तु राजा को कुछ भी स्मरण नहीं आता है, अन्त में वह राजा की दी हुई अंगूठी उसे दिखाना चाहती है परन्तु दुर्भाग्य से वह शक्रावतार तीर्थ पर हाथ मुँह धोते समय गिर चुकी है। इस घटना से राजा का अविश्वास पक्का हो जाता है । शारिव और शारदद्वन तथा गौतमी भी राजा को समझाते हैं परन्तु कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलता है। अन्त में तपस्वी शकुन्तला की भी डाँटते हैं कि एकान्त में प्रेम सोच समझ कर करना चाहिए अन्यथा ऐसा ही परिणाम होता है। इस स्थिति को दनुका दुष्यन्त का पुरोहित व्यवस्था देता है कि ज्योतिषियों ने कहा है कि राजन आपके सम्राट् पुत्र होगा इसलिए पुत्र जन्म तक यह तपस्वी कन्या मेरे पास रह लेगी यदि पुत्र सम्राट् के लक्षणों से युक्त होगा तो आप इसे अपना लेना अन्यथा इसे आश्रम वापिस भेज देंगे। सब इस बात पर सहमत हो जाते हैं। शकुन्तला रोती हुई पुरोहित के साथ जाने लगती है तभी आकाश से कोई ज्योति पुञ्ज उतरता है और शकुन्तला को अपने साथ ले जाता है। सभी आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
🌻🌻षष्ठाङ्क में एक विचित्र घटनाक्रम में एक धीवर राजा के नाम से अङ्कित मुद्रिका को बेचता हुआ सिपाहियों द्वारा पकड़ा जाता है। यह शक्रावतार तीर्थ पर मछली पकड़ने वाला धीवर है। पूछताछ से पता चलता है कि यह अंगूठी उप रोहू मछली के पेट से मिली है। कोतवाल अंगूठी ले जाकर राजा को दिखाते हैं। उसे देखकर दुर्वासा के शाप का प्रभाव समाप्त हो जाता है और राजा धीवर को पुरस्कृत करके मुक्त कर देते हैं। परन्तु स्वयं शकुन्तला को पाने के लिए अधीर हो उठते हैं। राजा को इस प्रेम विह्वलता को मेनका द्वारा यहाँ के समाचार जानने के लिए भेजी गयी सानुमती नाम की सखी भी तिरस्करिणी विद्या के सहारे, अदृश्य होकर देखती है। तभी इन्द्र का सारथि मातलि वहाँ आता है और प्रार्थना करता है कि दैत्यों के संहार के लिए इन्द्र ने आपको तुरन्त स्वर्ग में बुलाया है। राजा मातलि के साथ अपने मित्र इट की सहायता के लिए चला जाता है।
🌻🌻सप्तमाङ्क में वर्णन आता है कि दैत्यों का संहार करके दुष्यन्त इन्द्र से विदाई लेते हैं और मातलि के रथ पर बैठकर वापिस धरती पर आने लगते हैं। रास्ते में हेमकूट पर्वत पर मारीच ऋषि का आश्रम है। दुष्यन्त उसे देखने की इच्छा प्रकट करते हैं । वहाँ जाकर दुष्यन्त एक विलक्षण बालक को देखते हैं। वह दूध पी रहे सिंह शावक को सिंही के पास से यह कह कर खींच रहा था कि पहले मुझे अपने दाँत दिखाओ अन्यथा मैं तुम्हें दूध नहीं पीने दूंगा। वह तापस कन्याओं के धमकाने पर भी नहीं रुकता है। उसे देखकर दुष्यन्त के मन में प्रेम उमड़ पड़ता है। राजा उसे गोदी में उठा लेते हैं। बातचीत से पता चलता है कि सर्वदमन नामक यह बालक शकुन्तला का बेटा है। इसी समय अपराजिता नामक औषधि बालक की कलाई से खुल कर नीचे गिर जाती है। दुष्यन्त उसे उठा लेते हैं। यह देखकर तापस कन्याओं को सन्देह होता है कि दुष्यन्त कहीं सर्वदमन के पिता ही तो नहीं हैं ? क्योंकि अपराजिता औषधि को केवल सर्वदमन के माता-पिता ही छू सकते थे। तभी शकुन्तला वहाँ आती है। दोनों एक दूसरे को पहचान लेते हैं। दुष्यन्त अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करते हैं। सभी महर्षि मारीच के पास जाते हैं। वे दोनों को आशीर्वाद देते हैं। दोनों इन्द्र के रथ पर बैठकर हस्तिनापुर लौट जाते हैं। यहीं नाटक भरतवाक्य के साथ समाप्त हो जाता है।
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