क्षपणककथा, संस्कृत हिंदी ,,,शब्दार्थ सहित
✡️ क्षपणक कथा✡️
तद्यथानुश्रुयते--अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे पाटलिपुत्रं नाम नगरम्। तत्र मणिभद्रो नाम श्रेष्ठी प्रतिवसति स्म। तस्य च धर्मार्थकामकर्माणि कुर्वतो विधिवशाधनक्षयः संजातः । ततो विभवक्षयादपमानपरंपरया परं विषादं गतः । अथान्यदा रात्रौ सुप्तश्चिन्तितवान्। अहो धिगियं दरिद्रता। उक्तं च-
शब्दार्थ-तत् = तो, अनुश्रूयते = सुना जाता है, अस्ति = है, दाक्षिणात्ये जनपदे = दक्षिण प्रदेश में, तत्र = वहाँ, श्रेष्ठी = सेठ, प्रतिवसति स्म रहता था, तस्य = उसके, च = और, धर्मार्थकामकर्माणि = धर्म, अर्थ (धन) एवं कामनाओं के पूर्ति हेतु कर्मों को, कुर्वतः = करते हुए, विधिवशाद् = दैवयोग से, धनक्षयः= धन की समाप्ति, संजातः = हो गई, तत् = तब, विभवक्षयाद् = धन क्षय हो जाने से, अपमानपरम्परया = सर्वत्र अपमानित होने के कारण परं-अत्यधिक, विषादं = दुःख को, गतः = प्राप्त हुआ, अथ = इसके पश्चात्, अन्यदा = किसी समय, रात्रौ = रात्रि के समय, सुप्तः = सोया हुआ, चिन्तितवान् = सोचने लगा, अहो = दुःख बोधक अव्यय, धिग् = धिक्कार है, इयं = इस, उक्तम् = कहा भी है।
सरलार्थ-सुना जाता है कि दक्षिण प्रदेश में पाटलिपुत्र नाम का एक नगर है। वहाँ मणिभद्र नाम का सेठ रहता था। धर्म, अर्थ एवं कामनाओं की पूर्ति हेतु कार्य करते हुए दैवयोग से उसका धन समाप्त हो गया। धन समाप्त हो जाने से सर्वत्र अपमानित होने के कारण वह बहुत दुःखी हुआ। एक बार रात्रि के समय सोये-सोये वह सोचने लगा-इस दरिद्रता को धिक्कार है। कहा भी है
शीलं शौचं क्षान्तिर्दाक्षिण्यं मधुरता कुले जन्म।
न विराजन्ति हि सर्वे वित्तविहीनस्य पुरुषस्य ॥2॥
शब्दार्थ-शीलम् = सदाचार, शौचम् = पवित्रता, शान्ति = क्षमा, दाक्षिण्यम् = उदारता, विराजन्ति = सुशोभित होते हैं, हि क्योंकि, वित्तविहीनस्य = धनहीन, पुरुषस्य = पुरुष के।
सरलार्थ-सदाचार, पवित्रता, क्षमा, उदारता, माधुर्य (वाणी का) और उच्च कुल में जन्म इत्यादि समस्त गुण भी धनहीन पुरुष को सुशोभित नहीं करते हैं।
मानो वा दर्पो वा विज्ञानं विभ्रमः सुबुद्धिर्वा ।
सर्वं प्रणश्यति समं वित्तविहीनो यदा पुरुषः॥ 3 ॥
शब्दार्थ-मानः सम्मान, वा या, दर्पः = अहंकार, विज्ञानं = कला-कौशल, विभ्रमः- महत्ता,प्रणश्यति-- प्रणश्यति नष्ट हो जाता है,यदा = जब, समं = एक साथ ही।
अर्थ-- मनुष्य धनहीन हो जाता है तो उसका आत्म-सम्मान, अहंकार, कला-कौशल, महत्ता एवं सुबुद्धि इत्यादि एक साथ ही नष्ट हो जाते हैं।
प्रतिदिवसं याति लयं वसन्तवाताहतेव शिशिरश्रीः ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामपि कुटुम्बभरचिन्तया सततम्॥4॥
शब्दार्थ-याति = प्राप्त होती है, लयं = नाश को, वसन्तवात वसन्तै ऋतु की वायु से, आहता इव = प्रताड़ित सी, शिशिरश्रीः = शिशिर ऋतु की शोभा, कुटुम्बभरचिन्तया = परिवार के भरण-पोषण की चिन्ता से, सततम् = निरन्तर।
सरलार्थ-(मनुष्य के धनहीन हो जाने पर) परिवार के भरण-पोषण की निरन्तर चिन्ता लगी रहने के कारण बुद्धिमान् पुरुषों की बुद्धि भी प्रतिदिन उसी प्रकार क्षीण हो जाती है, जैसे वसन्त ऋतु की (मन्द सुगन्ध) वायु से शिशिर ऋतु की शोभा क्षीण हो जाती है।
नश्यति विपुलमतेरपि बुद्धिः पुरुषस्य मन्दविभवस्य।घृतलवणतैलतण्डुलवस्त्रेन्धनचिन्तया सततम्॥5॥
शब्दार्थ-नश्यति = नष्ट हो जाती है, विपुलमतेरपि = मेधावी पुरुष की भी, मन्दविभवस्य = दरिद्र पुरुष की, घृत घी, लवण = नमक, तैल = तेल, तण्डुल = चावल, सततम् = निरन्तर
सरलार्थ-मेधावी परन्तु धनहीन पुरुष की बुद्धि भी घी, नमक, तेल, चावल, वस्त्र, ईंधन आदि की निरन्तर चिन्ता के कारण नष्ट हो जाती है।
गगनमिव नष्टतारं शुष्कं सरः श्मशानमिव रौद्रम्।रु
प्रियदर्शनमपि रुक्षं भवति गृहं धनविहीनस्य ॥6॥
शब्दार्थ-गगनम् = आकाश, इव = की तरह, नष्टतारं = तारों से रहित, शुष्कं सूखा, सरः = तालाब, श्मशानम् मुर्दघाट, रौद्रम् = भयानक, प्रियदर्शनम् = सुन्दर, अपि = भी, रुक्षम् = नीरस, भवति = होता है, गृहम् = घर ।
सरलार्थ-दरिद्र व्यक्ति का घर सुन्दर होने पर भी, तारों से रहित आकाश की भाँति (भद्दा, सूखे तालाब के समान (शोभाहीन) एवं श्मशान घाट के समान भयानक एवं रुक्ष प्रतीत होता है।
न विभाव्यन्ते लघवो वित्तविहीनाः पुरोऽपि निवसन्तः ।
सततं जातविनष्टाः पयसामिव बुद्बुदाः पयसि ॥7॥
शब्दार्थ-न = नहीं, विभाव्यन्ते = देखे जाते हैं, लघवः-छोटे, पुरोऽपि = सामने भी, निवसन्तः = विद्यमान, सततम् = निरन्तर, जातविनष्टा = उत्पन्न होते ही नष्ट होने वाले, पयसाम् = जलों के, इव = जैसे, बुबुदाः बुलबुले, पयसि = जल में।
सरलार्थ-दरिद्रता के कारण क्षुद्र माने जाने वाले (धनहीन व्यक्ति) सामने विद्यमान होने पर भी ठीक उसी प्रकार उपेक्षित कर दिए जाते हैं, जिस प्रकार निरन्तर उत्पन्न एवं नष्ट हो जाने वाले जल के बुलबुले जल में नगण्य होते हैं।
सुकुलं कुशलं सुजनं विहाय कुलकुशलशीलविकलेऽपि।
आढ्ये कल्पतरारिव नित्यं रज्यन्ति जननिवहाः ॥8॥
शब्दार्थ-सुकुलम् = कुलीन, कुशलम् = निपुण, सुजनं = सज्जन, विहाय = छोड़कर, विकले = रहित, भी, आढ्ये = समृद्ध, कल्पतरौ = कल्पवृक्ष, इव = की तरह, रज्यन्ति = सम्बद्ध हो जाते हैं, जननिवहाः जनसमूह।
सरलार्थ-कुलीन, निपुण एवं सज्जन (परन्तु धनहीन व्यक्ति) को छोड़कर अकुलीन, अनिपुण एवं सदाचार रहित (परन्तु धनी व्यक्ति) के साथ जनसमूह उसी प्रकार सम्बद्ध हो जाते हैं जैसे समृद्ध कल्पवृक्ष से (लोग चिपक जाते हैं।)
विफलमिह पूर्वसुकृतं विद्यावन्तोऽपि कुलसमुद्भूताः।
यस्य यदा विभवः स्यात्तस्य तदा दासतां यान्ति ॥ १॥
शब्दार्थ-विफलम् = व्यर्थ, इह = इस लोक में, पूर्वसुकृतम् = पूर्वजन्म में कृत पुण्यकर्म, विद्यावन्तः = विद्वान्, कुलसमुद्भूताः = उच्चकुल में उत्पन्न, यस्य = जिसका, यदा = जब, विभवः= धन, स्यात् = होवे, यान्ति होते हैं।
सरलार्थ-इस लोक में विद्वान् व्यक्ति के पूर्वजन्म में कृत पुण्यकर्म व्यर्थ ही हैं (यदि वह धनहीन है) क्योंकि उच्च कुल में जन्मे व्यक्ति भी जिसके पास जब धन है तब उसी के दास बन जाते हैं।
लघुरयमाह न लोकः कामं गर्जन्तमपि पतिं पयसाम्।सर्वमलज्जाकरमिह यत्कुर्वन्तीह परिपूर्णाः ॥10॥
शब्दार्थ-लघुः = बुरा, अयम् = यह, लोकः = संसार, काम = अत्यधिक (व्यर्थ स्वेच्छा से), गर्जन्तम् = गर्जते हुए, पयसाम् = जलों के, अलज्जाकरम् = उचित, यत् = जो कुछ, कुर्वन्ति = करते हैं, परिपूर्णाः-समृद्ध (धनी)।
सरलार्थ-व्यर्थ ही गर्जते हुए समुद्र को भी लोक बुरा नहीं कहते हैं, क्योंकि समृद्ध जो कुछ करते हैं वह सब इस लोक में उचित ही माना जाता है।
एवं संप्रधार्य भूयोऽप्यचिन्तयत्। यदहमनशनं कृत्वा प्राणानुत्सृजामि। किमनेन व्यर्थ जीवितव्यसनेन। एवं निश्चयं कृत्वा सुप्तः। अथ तस्य स्वप्ने पद्मनिधिः क्षपणकरूपेण दर्शनं दत्त्वा प्रोवाच-"भो श्रेष्ठिन् ! मा त्वं वैराग्यं गच्छ। अहं पद्मनिधिस्तव पूर्वपुरुषोपार्जितः। तदनेनैव रूपेण प्रातस्त्वद्गृहमागमिष्यामि। तत्त्वयाहं लगुडप्रहारेण शिरसि ताडनीयो येन कनकमयो भूत्वा अक्षयो भवामि। अथ प्रातः स्मरंश्चिन्ताचक्रमारूढस्तिष्ठति। अहो सत्योऽयं स्वप्नः किं वाऽसत्यो भविष्यति न ज्ञायते। अथवा नूनं मिथ्या भाव्यं यतोऽहं केवलं वित्तमेव चिन्तयामि। उक्तं च
शब्दार्थ-एवम् = इस प्रकार, सम्प्रधार्य = निश्चय करके, भूयः पुनः, अचिन्तयत् = सोचने लगा, यत् = कि, अहम् = मैं, अनशनं कृत्वा = भोजन छोड़कर, उत्सृजामि = छोड़ दूँगा, किम् = क्या, अनेन = इस, जीवित व्यसनेन-जीने की आदत से, सुप्तः = सो गया, अथ = इसके पश्चात्, तस्य = उसके, स्वप्ने = स्वप्न में, पद्मनिधि : = पद्मनामक खजाना, क्षपणकरूपेण = भिक्षु के रूप में, प्रोवाच = बोला, मा = मत, त्वं = तू, वैराग्यम् = विरक्ति को, गच्छ = प्राप्त हो, तव = तेरे, पूर्वपुरुष पूर्वजों द्वारा, उपार्जितः = कमाया हुआ, तत् = तो, अनेन एव = इसी से, त्वत्-तेरे, आगमिष्यामि = आऊंगा, त्वया = तेरे द्वारा, लगुडप्रहारेण = लाठी की चोट से, शिरसि शिर पर, ताडनीय प्रताड़ित किया जाना चाहिए, येन = जिससे, कनकमयः = स्वर्णमय, भूत्वा = होकर, अक्षय = कभी भी नष्ट न होने वाला, भवामि = हो जाऊंगा, प्रबुद्धः = जागृत, सन् = होकर, स्मरन् = याद करता हुआ, चिन्ताचक्रमारूढ़ः = चिन्तित, तिष्ठति = ठहरता है, न ज्ञायते = समझ नहीं आ रहा है, नूनं = निश्चित रूप से, मिथ्या = झूठा, भाव्यं = होना चाहिए, यतः = क्योंकि, वित्तमेव = धन के विषय में ही।
सरलार्थ-ऐसा निश्चय करके पुनः सोचने लगा कि मैं भोजन त्याग कर प्राणों को त्याग दूंगा। (धनहीन) इस व्यर्थ जीवन से क्या लाभ है। ऐसा निश्चय करके वह सो गया। तत्पश्चात् पद्म नामक निधि ने भिक्षु के रूप में स्वप्न में ही दर्शन देकर कहा "अरे सेठ जी ! तुम वैरागी मत बनो। मैं तुम्हारे पूर्वजों द्वारा अर्जित पद्म नामक निधि हूँ। प्रात:काल मैं इसी रूप में तुम्हारे घर आऊंगा। तब आप लाठी का प्रहार मेरे सिर पर करना, जिससे मैं स्वर्णमय होकर तुम्हारे लिए अक्षय हो जाऊंगा।तत्पश्चात् वह प्रातःकाल उठकर स्वप्न को याद करता हुआ बैठ गया और सोचने लगा न जाने यह स्वप्न सत्य होगा या असत्य। मुझे लगता है कि यह निश्चित रूप से असत्य ही होगा क्योंकि मैं केवल धन के विषय में ही सोचता रहता हूँ। कहा भी है कि
व्याधितेन सशोकेन चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना।
कामार्तेनाथ मत्तेन दृष्टः स्वप्नो निरर्थकः ॥ 11॥
शब्दार्थ-व्याधितेन = रोगग्रस्त द्वारा, सशोकेन शोकयुक्त द्वारा, चिन्ताग्रस्तेन चिन्तित, जन्तुना = प्राणी के द्वारा, कामार्तेन = कामवासनाओं से पीड़ित, अथ = और, मत्तेन = उन्मत्त (पागल) द्वारा, दृष्टः-देखा गया।
सरलार्थ-रोगी, शोकग्रस्त, चिन्तित एवं काम वासनाओं से पीड़ित तथा पागल प्राणी के द्वारा देखा हुआ स्वप्न निरर्थक ही होता है।
एतस्मिन्नन्तरे तस्या भार्यया कश्चिन्नापितः पादप्रक्षालनायाहूतः । अत्रान्तरे च यथानिर्दिष्टः क्षपणकः सहसा प्रादुर्बभूव। अथ स तमालोक्य प्रहृष्टमना यथासन्नकाष्ठ-दण्डेन तं शिरस्यताडयत्। सोऽपि सुवर्णमयो भूत्वा तत्क्षणाद् भूमौ निपतितः । अथ तं स श्रेष्ठी निभृतं स्वगृहमध्ये कृत्वा नापितं सन्तोष्य प्रोवाच-यदेतद्धनं वस्त्राणि च मया दत्तानि गृहाण। भद्र, पुनः कस्यचिन्नाख्येयोऽयं वृत्तान्तः । नापितोऽपि स्वगृहं गत्वा व्यचिन्तयत्। नूनमेते सर्वेऽपि नग्नकाः शिरसि दण्डहताः काञ्चनमया भवन्ति । तदहमपि प्रातः प्रभूतानाहूय लगुडै:शिरसि हन्मि येन प्रभूतं हाटकं मे भविष्यति। एवं चिन्तयतो महता कष्टेन निशा अतिचक्राम। अथ प्रभातेऽभ्युत्थाय बृहल्लगुडमेकं प्रगुणीकृत्य क्षपणकविहारे गत्वा जिनेन्द्रस्य प्रदक्षिणात्रयं विधाय जानुभ्यामवनिं नत्वा वक्त्रद्वारन्यस्तोत्तरीयाचलस्तारस्वरेणेमं श्लोकमपठत्
शब्दार्थ-एतस्मिन् = इसके, अन्तरे = मध्य में, तस्य = उसकी (मणिभद्र सेठ की) भार्यया = पत्नी द्वारा, कश्चित् कोई, नापितः नाई, पादप्रक्षालनाय पैर धुलाने हेतु, आहूतः-बुलाया गया, अत्रान्तरे = उसके पश्चात्, यथानिर्दिष्ट = पूर्व बताए हुए के अनुसार, क्षपणकः = जैन भिक्षु, सहसा = अकस्मात्, प्रादुर्बभूव = प्रकट हुआ, सः-वह, तम् = उसको, आलोक्य = देखकर, प्रहृष्टमना = प्रसन्न चित्त होकर, यथासन्न = पहले ही तैयार किए हुए, काष्ठदण्डेन = लकड़ी के डण्डे से, तम् = उसको, तत्क्षणाद् = उसी समय, भूमौ = भूमि पर, निपतितः = गिर गया,निभृतं= छुपाकर, सन्तोष्य = सन्तुष्ट करके, दत्तानि = दिए हुए, गृहाण = ग्रहण प्रिय, कस्यचित् से भी, न आख्येयः = मत कहना, वृत्तान्तः-घटना, व्यचिन्तयत्- सोचने लगा, नूनम् = निश्चय ही, एते = ये, नग्नकाः नंगे साधु, दण्डहताः =डण्डे से मारे जाने पर, कांचनमया = स्वर्णमय, प्रभूतान् = बहुतों को, आहूय बुलाकर, हन्मि = मारूंगा, येन = जिससे, प्रभूतं = बहुत अधिक, हाटकं = सोना, मे मेरे पास, महत्ता कष्टेन = बड़े दुःख से, निशा = रात्रि, अतिचक्राम = बीती, अभ्युत्थाय = उठकर, बृहत् = बड़े, लगुडम् = डण्डे को, प्रगुणीकृत्य-तैयार करके, क्षपणकविहारे जैन साधुओं के निवास पर, गत्वा जाकर, जिनेन्द्रस्य = महात्मा महावीर की, प्रदक्षिणात्रयं = तीन बार परिक्रमा, विधाय = करके, जानुभ्याम् = घुटनों द्वारा, अवनिं = पृथ्वी को, वक्त्रद्वारे = मुँह पर, न्यस्त = रखकर, उत्तरीयाञ्चलः = दुपट्टे का किनारा, तार-स्वरेण = ऊँचे स्वर से, इमम् = इस, अपठत् = पढ़ा।
सरलार्थ-इसी बीच उस सेठ की पत्नी ने पैर धुलवाने हेतु किसी नाई को अपने घर बुलाया हुआ था। तत्पश्चात् पूर्व निर्देशानुसार एक जैन साधु अचानक ही वहाँ प्रकट हुआ। उसने (सेठ ने) उसे देखकर प्रसन्न चित्त होकर पहले से ही तैयार किये हुए डण्डे से उसके सिर पर प्रहार किया। (ऐसा करने पर) वह (जैन साधु) स्वर्णमय होकर भूमि पर गिर पड़ा। इसके पश्चात् उस सेठ ने उसे छुपा कर घर के भीतर रखने के पश्चात् नाई को सन्तुष्ट करके कहा"मेरे द्वारा प्रदत्त इस धन और इन वस्त्रों को ग्रहण करो तथा हे सज्जन ! इस वृत्तान्त को किसी से भी मत कहना। नाई अपने घर जाकर सोचने लगा कि निश्चय ही ये नंगे भिक्षु सिर पर प्रताड़ित करने से स्वर्णमय हो जाते हैं। तो प्रात:काल मैं भी बहुत-से भिक्षुओं को बुलाकर लाठी से उनके सिरों पर प्रहार करूँगा, जिससे मेरे पास पर्याप्त सुवर्ण हो जाएगा। इस प्रकार सोचते हुए बड़े कष्ट से उसने रात्रि बिताई। प्रातः काल उठकर उसने एक बड़ी लाठी तैयार की और मठ में जाकर महावीर स्वामी की मूर्ति की तीन बार प्रदक्षिणा करके घुटनों को पृथ्वी पर टेक कर मुँह को दुपट्टे के आंचल से ढक कर ऊँचे स्वर में इस श्लोक को पढ़ा
जयन्ति ते जिना येषां केवलज्ञानशालिनाम्।
आजन्मन: स्मरोत्पत्तौ मानसेनोषरायितम् ॥ 12॥
शब्दार्थ-जयन्ति = विजयी हैं, ते = वे, जिनाः = जैनी महात्मा, येषां = जिनके, ज्ञानशालिनाम् = ज्ञानयुक्त, आजन्मनः = जन्म से लेकर, स्मरोत्पत्तौ = काम वासनाओं की उत्पत्ति में, मानसेन = मन द्वारा, ऊषरायितम् = बंजर बन गया है।
सरलार्थ-केवल ज्ञान प्राप्ति में तत्पर वे जैनी महात्मा महान् हैं जिनके मन जन्म से ही कामवासनाओं की उत्पत्ति हेतु बंजर बने हुए हैं। (अर्थात् जिनके मन में कामवासनाएं कभी भी उत्पन्न नहीं होती हैं।) अन्यच्च
सा जिह्वा या जिनं स्तौति तच्चित्तं यज्जिने रतम्।
तावेव च करौ श्लाघ्यौ यौ तत्पूजाकरौ ॥ 13॥
शब्दार्थ-अन्यच्च =और भी, सा = वही, या = जो, स्तौति = स्तुति करती हैं, तत् = वह, यत् = जो, रतम् । तल्लीन, तौ = वे दोनों, करौ = हाथ, श्लाघ्यौ = प्रशंसनीय हैं, यौ = जो (दोनों), तत् = उसकी (जैन धर्म के संस्थापक महावीर की) पूजाकरौ = पूजा करने वाले, करौ = दोनों हाथ।
सरलार्थ-और भी कहा है कि-वही जिह्वा वास्तविक जिह्वा है जो 'जिन' की स्तुति करती है, वही चित्त वास्तविक चित्त है जो 'जिन' में तल्लीन रहता है, वे ही हाथ प्रशंसनीय हैं जो हाथ 'जिन' की पूजा करते हैं। तथा च
ध्यानव्याजमुपेत्य चिन्तयसि कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं पश्यानङ्गशरातुरं जनमिमं त्रातापि नो रक्षसि। मिथ्याकारुणिकोऽसि निपुणतरस्त्वत्तः कुतोऽन्य पुमान् सेयं मारवधूभिरित्यभिहितो बुद्धो जिनः पातु वः ॥ 14॥
शब्दार्थ-तथा च-और भी, ध्यानव्याजमुपेत्य = ध्यान का बहाना बना कर, काम् = , उन्मील्य खोलकर, पश्य = देखो, अनङ्गशरातुरं = कामदेव के बाणों से विद्ध या व्याकुल, वाताऽपि = रक्षक होने पर भी, मिथ्या = झूठा, कारुणिकः = दयालु, निपुणतरः-निर्दयी, त्वत्तः = तुम्हारे से, कुतः = कहां, पुमान् = पुरुष, सेयं ईर्ष्या सहित, मारवधूभिः = कामपीड़ित स्त्रियों के द्वारा, इति = इस प्रकार,अभिहितः -कहा गया, पातु = रक्षा करे, आपकी।
सरलार्थ-और भी कहा है कि ध्यान के बहाने आप किस स्त्री के विषय में सोच रहे हो, क्षण भर के लिए नेत्रों को खोल कर कामवासनाओं से पीड़ित हमारी ओर भी देखो, आप तो रक्षक होकर भी रक्षा नहीं कर रहे हैं, लगता है कि आप वास्तव में दयालु नहीं हैं (हमें तो ऐसा लगता है कि) आपसे बढ़ कर निर्दयी और कौन होगा-इस प्रकार के वचन ईर्ष्या से युक्त होकर काम-पीड़ित स्त्रियां जिनके विषय में कहती हैं वे प्रबुद्ध 'जिन' (सिद्ध पुरुष) आपकी रक्षा करें।
एवं संस्तुत्य सः प्रधानक्षपणकमासाद्य क्षितिनिहित जानुचरणो नमोऽस्तु वन्दे' इत्युच्चार्य लब्ध धर्म वृद्धयाशीर्वादः सुखमालिकानुग्रहलब्धव्रतादेश उत्तरीयनिबद्धग्रन्थिः सप्रश्रयमिदमाह-"भगवन्नद्य विहरणक्रिया समस्तमुनिसमेतेनास्मद्गृहे कर्त्तव्या।" स आह–'भो श्रावक ! धर्मज्ञोऽपि किमेवं वदसि ? किं वयं ब्राह्मणसमाना: ? यत आमन्त्रणं करोषि। वयं सदैव तत्कालपरिचर्यया भ्रमन्तो भक्तिभाजं श्रावकमवलोक्य तस्य गृहे गच्छामस्तेन कृच्छ्रादभ्यर्थिताः। तद्गृहे प्राणधारणमात्रामशनक्रियां कुर्मः । तद्गम्यतां नैवं भूयोऽपि वाच्यम्।
शब्दार्थ-संस्तुत्य = अच्छी प्रकार से स्तुति करके, तब, आसाद्य = समीप जाकर; क्षितिनिहित = भूमि पर,वन्दे -प्रणाम करता हूँ, इति = ऐसा, उच्चार्य = कह कर, लब्धधर्मवृद्ध्याशीर्वाद = तुम्हारी धर्म में रुचि बनी रहे इस प्रकार का आशीर्वाद प्राप्त करके, सुखमलिकाः = सुखों की लम्बी परम्परा, अनुग्रहः = कृपा, व्रतादेशः = व्रत का आदेश, उत्तरीयनिबद्धग्रन्थिः = दुपट्टे में गांठ लगा कर, सप्रश्रयम् = विनय पूर्वक, आह कहा, भगवन्-श्रीमन् अद्यः = आज, विहरण क्रिया = भिक्षार्थ-गमन, अस्मद् = हमारे, श्रावक = भक्त या अनुयायी, वयम् = हम, आमन्त्रणम् -बुलावा, तत्कालपरिचर्यया -उपासना समय दिनचर्या के अनुसार, भ्रमन्तः = घूमते हुए, भक्तिभावं भक्तियुक्त, अवलोक्य = देखकर, तस्य = उसके, गच्छामः = चले जाते हैं, तेन = उसके द्वारा, कृच्छ्राद् = ज़ोर देकर, अभ्यर्थिताः = प्रार्थित, अशनक्रियाम् = भोजन खाने की क्रिया को, कुर्मः = करते हैं, तत् = इसलिए, गम्यताम् =चले जाइए, भूयोऽपि = पुनः वाच्यम्
सरलार्थ-इस प्रकार स्तुति करके मठाधीश के पास जाकर घुटनों को पृथ्वी पर टेक कर प्रणाम करके उसने धर्मवृद्धि का आशीर्वाद पाकर निरन्तर सुखों को देने वाले व्रत का आदेश प्राप्त किया तथा (आदेश ग्रहण कर लेने के संकेत स्वरूप) दुपट्टे में गांठ लगाकर विनयपूर्वक ऐसा कहा- "श्रीमन् ! आज भिक्षा याचना की क्रिया समस्त मुनियों सहित हमारे घर पर कीजिए।" मठाधीश ने कहा-'अरे भक्त ! धर्मज्ञ होने पर भी इस प्रकार की बात क्यों कहते हो ? क्या हम ब्राह्मण हैं जो हमें बुलावा दे रहे हो। हम तो हमेशा विहरण के समय दिनचर्या के अनुसार घूमते हुए प्रगाढ़ भक्ति से युक्त किसी भक्त को देखकर उसके द्वारा बल देकर प्रार्थना करने पर उसी के घर चले जाते हैं और उसी के घर में केवल प्राण-धारण निमित्त भोजन ग्रहण कर लेते हैं। इसलिए आप जाइए, पुनः ऐसा मत कहना।
तच्छ्रुत्वा नापित आह-"भगवन् वेद्मि अहं युष्मद्धर्मम्। परं भवतो बहुश्रावका आह्वयन्ति साम्प्रतं पुनः पुस्तकाच्छादनयोग्यानि कर्पटानि बहुमूल्यानि प्रगुणीकृतानि तथा पुस्तकानां लेखनाय च वित्तं संचितमास्ते। तत्सर्वथा कालोचितं कार्यम्। ततो नापितोऽपि स्वगृहं गतः। तत्र व गत्वा खदिरमयं लगुडं सज्जीकृत्य कपाटयुगलद्वारे समाधाय सार्धप्रहरदिवससमये भूयोऽपि विहारद्वारमाश्रित्य सर्वान् क्रमेण निष्क्रामतो गुरुप्रार्थनया स्वगृहमानयत्। तेऽपि सर्वे कर्पटवित्तलोभेन भक्तियुक्तानपि परिचितश्रावकान्परित्यज्य प्रहृष्टमनसस्तस्य पृष्ठतो ययुः। अथवा साध्विदमुच्यते
शब्दार्थ-तत् = इस बात को, श्रुत्वा = सुनकर, वेद्मि = जानता हूँ, युष्मद् = तुम्हारे,परं = परन्तु, भवतः = आपको, बहुश्रावकाः - अनेक भक्त, आह्वयन्ति = बुलाते हैं, साम्प्रतं = इस समय, पुस्तकाच्छादन = पुस्तकों को लपेटने के, योग्यानि = योग्य, कर्पटानि = वस्त्र, प्रगुणीकृतानि = तैयार किये हैं, सञ्चितम् आस्ते = सर्वथा = हर प्रकार से, कालोचितं = समयानुसार खदिरमयं = खैर के, लगुडं = डण्डे को, सज्जीकृत्य = तैयार करके, कपाटयुगलद्वारे = दरवाजे के दोनों पल्लों के बीच, समाधाय = रखकर, सार्धप्रहरदिवससमये = दो घड़ी दिन शेष रहने पर, भूयोऽपि = पुनः । विहारद्वारमाश्रित्य = मठ के द्वार पर जाकर, निष्कामतः = निकलते हुए, गुरुप्रार्थनया = विनम्र प्रार्थना करके, स्वगृहम् = अपने घर, आनयत् = ले आया, प्रहृष्टमनसः-प्रसन्न चित्त हुए, पृष्ठतः = पीछे-पीछे,ययुः- चले गये, साधु = उचित ही, उच्यते = कहा है।
सरलार्थ-यह सुनकर नाई बोला-" श्रीमन् ! मैं आपके धार्मिक नियमों को जानता हूँ, परन्तु आपको अनेक भक्त बुलाते हैं। मैंने इस समय पुस्तकों को लपेटने योग्य (सुरक्षा हेतु) बहुमूल्य वस्त्र तैयार किये हैं तथा पुस्तकों को लिखने के लिए लेखकों हेतु धन भी सञ्चित किया है। इसलिए कृपया समयानुसार कार्य कीजिए। ऐसा कह कर नाई अपने घर चला गया। वहाँ जाकर खैर का डण्डा तैयार करके उसे दरवाज़े के पास रखकर जब दो घड़ी दिन शेष बचा तो पुनः मठ के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया और क्षपणकों के क्रमश: बाहर निकलने पर उनसे विनम्र प्रार्थना करता हुआ उन्हें अपने घर ले आया। वे सब भी वस्त्र-धन के लोभ से भक्ति-युक्त अन्य परिचित भक्तों को छोड़ कर प्रसन्न होते हुए उसके पीछे-पीछे चले गये। किसी ने ठीक ही कहा है कि
एकाकी गृहसंत्यक्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
सोऽपि संवाह्यते लोके तृष्णया पश्य कौतुकम् ॥ 15॥
शब्दार्थ-एकाकी = अकेला, गृहसंत्यक्तः = घर-बार छोड़े हुए, पाणिपात्रः = हाथ ही हैं पात्र जिसके, दिगम्बरः दिशाएं ही जिसके वस्त्र हैं अर्थात् नग्न, संवाह्यते = आकर्षित कर लिया जाता है, कौतुकम् आश्चर्य को।
सरलार्थ-तृष्णा का नज़ारा देखो कि अकेला, परिवाररहित, करपात्री एवं दिगम्बर भी इस लोक में इसके द्वारा आकर्षित कर लिया जाता है।
जीर्यन्ते जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
चक्षुः श्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका तरुणायते ॥ 16॥
शब्दार्थ-जीर्यन्ते = जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, जीर्यतः = जीर्ण होते हुए (वृद्ध होते हुए के), केशाः = बाल, दन्ताः दान्त, चक्षुः-नेत्र, श्रोत्र = कान, तरुणायते = बलवान् होती जाती है।
सरलार्थ-वृद्धावस्था को प्राप्त होते हुए (पुरुष के) केश जीर्ण (श्वेत) हो जाते हैं तथा दान्त भी जीर्ण हो जाते हैं अर्थात् गिर जाते हैं, आँखें और कान भी जीर्ण हो जाते हैं अर्थात् अपनी-अपनी क्रियाओं को त्याग देते हैं परन्तु तृष्णा हमेशा बलवती ही होती जाती है।
अतः परं गृहमध्ये तान्प्रवेश्य द्वारं निभृतं पिधाय लगुडप्रहारैः शिरस्यताडयत्। तेऽपि ताड्यमाना एके मृता अन्ये भिन्नमस्तकाः फूत्कर्तुमारब्धाः अत्रान्तरे तमाक्रन्दमाकर्ण्य कोटरक्षपालैरभिहितम् भो भोः ! किमयं महान्कोलाहलो नगरमध्ये ? तद् गम्यताम्।" ते च सर्वे गत्वा यावत्पश्यन्ति तावद्रुधिरप्लावित देहा: पलायमानाः क्षपणका दृष्टाः। तैः स नापितो बद्धः। हतशेषैः क्षपणकैः सह धर्माधिष्ठानं नीतः। तैर्नापितः पृष्टः। भोः किमेतद् भवता कुकृत्यमनुष्ठितम्। स आह–किं करोमि। मया श्रेष्ठिमणिभद्रगृहे दृष्ट एवंविधो व्यतिकरः। सोऽपि सर्वमणिभद्र वृत्तान्तं यथादृष्टमकथयत्। ततः श्रेष्ठिनमाहूय भणितवन्तः भो श्रेष्ठिन्, किं त्वया कश्चित्क्षपणको व्यापादितः ? ततस्तेनापि सर्वः क्षपणक वृत्तान्तस्तेषां निवेदितः अथ तैरभिहितम्- अहो शूलमारोप्यतामसौ दुष्टात्मा कुपरीक्षितकारी नापितः । तथानुष्ठिते तैरभिहित
शब्दार्थ-अतः परं = इसके पश्चात्, तान् = उनको, निभृतं :,पिधाय = बन्द करके, तेऽपि वे भी, ताड्यमाना = पीटे जाते हुए। एके = कुछ, मृता = मर गए, भिन्न मस्तकाः = सिर फूटे हुए, फूत्कर्तुमारब्धाः चिल्लाने लग पड़े, अत्रान्तरे = इसी बीच, तम् = उस, आक्रन्दम् = रोने की आवाज़ को, आकर्ण्य = सुन कर, कोटरक्षपालैः = थानेदारों ने, अभिहितम् = कहा, किमयम् = यह कैसा, गम्यताम् = जाइए, यावत् = जब, पश्यन्ति- देखते हैं, तावत् = तो, रुधिर = खून से, प्लावित = लथ-पथ, देहाः- शरीर वाले पलायमानाः - भागते हुए, हृष्टाः देखे, तैः = उन्होंने, बद्धः = बन्दी बना लिया, हतशेषैः = मरने से बचे हुओं के साथ, धर्माधिष्ठानम् = न्यायालय को, नीतः = ले जाया गया, पृष्टः = पूछा, एतद् = यह, भवता = आपने, कुकृत्यम् = बुरा काम, अनुष्ठितम् = किया, मया = मेरे द्वारा, एवंविधः = इस प्रकार का, व्यतिकरः = उल्टा घटनाक्रम, वृत्तान्तम् = समाचार को, यथा दृष्टम् = जैसा देखा था, अकथयत् = कह दिया, आहूय = बुलाकर, भणितवन्तः = कहने लगे, त्वया = तूने, कश्चित् = कोई, व्यापादितः = मारा है, तेषां = उनके (पास) निवेदितः = कह दिया, शूलम् = शूली पर, आरोप्यताम् = चढ़ा दीजिए, असौ = इस, दुष्टात्मा = दुष्ट, कुपरीक्षितकारी = विना परीक्षा किए कार्य करने वाले, तथा = वैसा ही, अनुष्ठिते करने पर, अभिहितम् = कहा।
सरलार्थ-इसके पश्चात् उनको घर में प्रविष्ट करवाकर द्वार को भली-भान्ति बन्द करके उसने उनके सिरों पर डण्डे से प्रहार किये। पीटे जाने पर उनमें से कतिपय मर गये तथा कई सिर फट जाने के कारण रोने, चिल्लाने लग पड़े। इसी मध्य इस रुदन को सुनकर नगर के रक्षक थानेदारों ने कहा-'अरे नगर में यह कोलाहल कैसा है ? तो जाइए-जाइए अर्थात् इसका पता लगाइए।' वे सभी सिपाही वहाँ जाकर जब देखते हैं तो उन्हें रक्त से लथ-पथ शरीर वाले भागते हुए जैन भिक्षु दिखाई दिये। उन्होंने (सिपाहियों ने) उस नाई को बन्दी बना लिया तथा मरने से बचे हुए भिक्षुओं सहित उसे न्यायालय में ले गये। उन्होंने नाई को पूछा-"अरे ! आपने यह क्या कुकर्म कर डाला ?" उसने कहा क्या बताऊं, मैंने सेठ मणिभद्र के घर पर इसी प्रकार का उल्टा घटनाक्रम देखा था। फिर उसने सेठ मणिभद्र वाली सारी घटना जैसी देखी थी वैसी ही सुना डाली। तब उन्होंने सेठ को बुलाकर कहा- अरे सेठ ! क्या तूने किसी भिक्षु को मारा है ? तब उसने भी भिक्षु वाला सारा वृत्तान्त सुना दिया। तब उन्होंने कहा- "विना सोचे-समझे कार्य करने वाले इस दुष्टात्मा नाई को शूली पर चढ़ा दो। वैसा ही किये जाने पर उन्होंने कहा
कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुश्रुतं कुपरीक्षितम्।
तन्नरेण न कर्त्तव्यं नापितेनात्र यत्कृतम् ॥ 17।।
Mohini sharma
ReplyDeleteSr no.18
History
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ReplyDeleteAnchal
ReplyDeleteSr. No 22
Major history
Major history
ReplyDeleteSr no 29
Name:Priti
ReplyDeleteSr.no24
Major hindi
Name Priyanka devi Major History Ser No 30
ReplyDeleteMajor Hindi
ReplyDeleteSr no 16
Poonam devi
ReplyDeleteSr no 23
Major political science
Name. MOnika
ReplyDeleteSr.no23
Major hisrory
Taniya sharma
ReplyDeleteSr no. 21
Pol. Science
Taniya sharma
ReplyDeleteSr no. 21
Pol. Science
Anshika Kumari
ReplyDeleteSr. No. 7
Major Hindi
Rahul kumar
ReplyDeleteMajor- history
Sr.no. 92
Name _ Tanu Guleria
ReplyDeleteSr. no._32
Major _ Political Science
Minor_Hindi
Rahul kumar
ReplyDeleteMajor- history
Sr.no. 92
Anish khan
ReplyDeleteSr no.78
Major history
Priyanka Devi
ReplyDeleteSr.no.23
Major history
Mehak
ReplyDeleteSr.no.34
Major.political science
Sejal Mehta
ReplyDeleteSr no 33
Major Hindi
Name Richa Sr.no 35
ReplyDeleteMajor hindi
Komal major hindi sr no 43
ReplyDeleteSujata Sharma serial no 8 major history
ReplyDeleteIsha
ReplyDeleteMajor history
Sr.no 10
Pritika
ReplyDeleteMajor history
Sr no.39
Vivek Kumar Pol science sr no 38
ReplyDeleteRiya thakur
ReplyDeleteSr. No. 22
Major political science
Anjlee
ReplyDeleteSrno 36
Major history
Jagriti Sharma
ReplyDeleteSerial no. 2
Major-Hindi
Name Akshita Kumari Major Political Science Sr. No. 70
ReplyDeleteName Akshita Kumari Major Political Science Sr. No. 70
ReplyDeleteDivya Kumari
ReplyDeleteSr.no 60.
Major pol science.
Name damini Sr no 42 major hindi
ReplyDeleteSajid khan
ReplyDeleteSr.no 86
Major history
Name jyotika Kumari Major hindi Sr no 5
ReplyDeleteTanvi Kumari
ReplyDeleteSr. No. 69
Major. Pol. Science
Shweta sharma
ReplyDeleteSr no.36
Hindi
Rishav sharma major pol science sr no 65
ReplyDeleteVarsha Devi
ReplyDeleteMajor political science
Sr no. 24
Leela devi sr no 41 major hindi
ReplyDeleteNeha Devi
ReplyDeleteMajor History
Sr no 62
Name: Priti
ReplyDeleteSr.no.24
Name Tanu Guleria
ReplyDeleteSr. No.32
Major political science
Sourabh singh major Hindi minor history Sr no 20
ReplyDeleteMonika kalia
ReplyDeleteMajor history
Srno26
Monika kalia
ReplyDeleteMajor history
Srno26
Chetna choudhary Major pol science minor Hindi sr no 13
ReplyDeleteMehak
ReplyDeleteSr.no. 34
Major political science
Priyanka choudhary major political science and minor Hindi sr no 12
ReplyDeleteShikha
ReplyDeleteSr.no.7
Major history
Name:Palak
ReplyDeleteSr. No. 22
Major:Hindi
Diksha Devi
ReplyDeleteMajor history
Minor Hindi
Sr. No. 50
Akshita kumari major political science sr no 70
ReplyDeleteSonali dhiman major political science sr no. 19
ReplyDeleteAnjlee
ReplyDeleteSr no 36
Major history
Bharti choudhary major political science and minor Hindi Sr no 30
ReplyDeleteSejal Kasav
ReplyDeleteMajor sub.-pol science
Minor sub.-hindi
Sr.no.-1
01
Anuj Riyal
ReplyDeleteMajor Pol. Science
Sr. No. _ 02
(Dheri)
Name damini Sr no 42 major hindi
ReplyDeleteVIVEk kumar major political science sr no 38
ReplyDeletePallvi choudhary
ReplyDeleteMajor-pol.sc
Minor-history
Sr.no-72
Name Sakshi
ReplyDeleteAre no 14
Major Hindi
Minor history
Shivam choudhary
ReplyDeleteMajor-political science
Sr. No. 78
Mamta Bhardwaj
ReplyDeleteSr no 01
Major history
Priyanka Devi
ReplyDeleteSer no 30
Major History
Minor Hindi.
Anjli
ReplyDeleteMajor political science
Minor history
sr.no 73
Name Richa Sr no 35
ReplyDeleteMajor Hindi
Name Richa Sr no 35 Major
ReplyDeleteHindi
Tanvi Kumari
ReplyDeleteSr no. 69
Major. Political science
Name Priya major history roll number 29
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