ब्रह्मचर्य सूक्तानुसार आचार्य शिष्य परम्परा
अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्तानुसार आचार्य शिष्य परम्परा
आधुनिकता के झंझावात में फँसकर आज अनेक भारतीय परम्पराएँ या तो विलुप्त हो गयी हैं या विकृत हो गयी हैं। गुरु शिष्य परम्परा भी इस अन्धड़ में फंसकर प्रायः विकृत होती जा रही हैं। इस परम्परा की विकृति से समाज में एक अद्भुत प्रकार की अनुशासनहीनता तथा अपरिपक्वता एवं उच्छृखलता का समावेश हो रहा है। जिससे जनसाधारण से लेकर विचारक तक चिन्तित हैं। अतः आज यह आवश्यक हो गया है कि हम भारत की प्राचीनतम ज्ञान धरोहर वैदिक वाङ्मय तथा प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के परिप्रेक्ष्य में इस परम्परा पर विचार करें और तदनुसार इस परम्परा में आयी विकृतियों को दूर करके समाज को समुचित दिशा में ले जाने का प्रयास करें।
आज यदि हम गम्भीरता पूर्वक विचार करें तो हम पायेंगे कि गुरू शिष्य परम्परा के दोनों ही घटक अर्थात् आचार्य (गुरू) और शिष्य अपनी-अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे हैं। आज गुरुजनों में ज्ञान से आने वाला गुरुत्व तथा शिष्य में अभिवाञ्छित अनुशासन ये दोनों तत्व प्रायः लुप्त ही होते जा रहे हैं, जो गम्भीर चिन्ता का विषय है।
अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में आचार्य (गुरू) एवं ब्रह्मचारी (शिष्य) के सम्बन्धों पर किञ्चित् प्रकाश डाला गया है, जो इस प्रकार है।
1. जितेन्द्रियत्व-अथर्ववेद की मान्यता है कि गुरु शिष्य परम्परा में सामञ्जस्य बनाये रखने के लिए दोनों का जितेन्द्रिय होना आवश्यक है। यदि गुरु जितेन्द्रिय (ब्रह्मचारी) नहीं होगा तो गुरु शिष्य के सम्बन्धों के तार-तार होने की सम्भावना बनी रहेगी और यदि शिष्य जितेन्द्रिय नहीं होगा तो वह अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पायेगा। इसलिए ब्रह्मचर्य सूक्त में कहा गया है कि
आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते।" (काण्ड-II सूक्त-5 मन्त्र-17) अर्थात् आचार्य (गुरू) ब्रह्मचर्य से (जितेन्द्रियत्व) से ब्रह्मचारिणम् = जितेन्द्रिय शिष्य का वरण करे। स्पष्ट है कि गुरुशिष्य परम्परा का आदर्श रूप दोनों से जितेन्द्रियत्व की अपेक्षा करता है।
2. शिष्य का परिश्रमी होना-अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त के अनुसार गुरु शिष्य परम्परा के सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों के लिए यह परम आवश्यक है कि शिष्य कठोर परिश्रम करने वाले हों। यदि वे परिश्रमी नहीं होगें तो गुरू क्षुभित होंगे और डाँट-डपट से सम्बन्धों में तनाव पैदा होगा। इसीलिए ब्रह्मचर्य सूक्त के प्रथम मन्त्र में ही यह कहा गया है कि ब्रह्मचारी आचार्य को अपने कठोर परिश्रम से सन्तुष्ट करे। यथा
"स आचार्य तपसा पिपर्ति।" इस उपदेश का अनुसरण करते हुए वर्तमान कालिक विद्यार्थियों को चाहिए कि वे परिश्रमी (Hard worker) बनें।
3. केवल पात्र शिष्यों को प्रवेश-ब्रह्मचर्य सूक्त के अनुसार शिक्षण संस्थानों में विद्याध्ययन की उत्कट इच्छा विद्यार्थियों को ही प्रवेश होना चाहिए। अन्यथा अनिच्छुक विद्यार्थी अनुशासनहीनता करके गुरु शिष्य परम्परा को विकृत कर देते हैं। इसके लिए 'प्रवेश परीक्षा' का होना अनिवार्य होना चाहिए। अथर्ववेद के अनुसार यदि वैदिक ऋषि के आश्रम में कोई विद्यार्थी प्रवेश लेने के लिए आता था तो आचार्य उसके व्यवहार की परीक्षा लेने हेतु तीन दिन-रात उसे अपने पास रखता था। पुन: यदि वह व्यावहारिक दृष्टि से, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, तथा जिज्ञासा की दृष्टि से सही पाया जाता था तभी उसे प्रवेश दिया जाता था। यथा
"आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्त्रिन उदरे विभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (11-5-3) वर्तमान युग में भी कई विख्यात संस्थानों में प्रवेश पूर्व परीक्षा का विधान है तथा स्थल, जल एवं नभ सेना में NDA तथा TES में चार दिनों तक प्रवेशार्थियों के विभिन्न गुणों की परीक्षा ली जाती है।
अतः प्रवेश पूर्व परीक्षा गुरु शिष्य परम्परा को सौहार्दपूर्ण बनाने हेतु परमावश्यक है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में गुरुशिष्य परम्परा के समुचित निर्वाहण हेतु गुरु शिष्य दोनों का जितेन्द्रिय होना, शिष्य का परिश्रमी होना एवं शिक्षण संस्थानों में केवल जिज्ञासु प्रवृत्ति के शिष्यों को प्रवेश देना अनिवार्य है।
Poonam devi sr no 23 major political science
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Sejal Kasav
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Monir sub.- hindi
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Priyanka choudhary
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Anjli
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Priyanka Devi
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Pallavi pathania majer history sr.45
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Sourabh Singh Major Hindi Minor History SR no 20
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Monika kalia
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Pallvi choudhary
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Chetna choudhary Major pol science minor Hindi sr no 13
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Isha
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Bharti choudhary major political science and minor Hindi Sr.no 30
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Name -Riya
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Sr. No. -76
ektaekta982@gmail.com
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Shivam choudhary
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Major political science (dehri)
Manu
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