महाकवि कालिदास का जीवनवृत्त
✡️ महाकवि कालिदास का जीवनवृत्त ✡️
सामान्यपरिचय-महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के सर्वोत्कृष्ट कवि माने जाते हैं। समीक्षकों ने उन्हें कविकुलगुरु की उपाधि से विभूषित किया है। उनके शृंगार रस के वर्णनों को देखकर जयदेव ने उन्हें कविताकामिनी का विलास कहा है। यथा भासोहास: कालिदासोविलासः।" महाकवि कालिदास इन्दुमती के स्वयंवर काल के एक वर्णन के आधार पर दीपशिखा कालिदास भी कहलाते हैं। काव्यरचना के मर्मज्ञ इन महोदय ने उपमा अलंकार के वर्णन में विशेष प्रसिद्धि पायी है। अत: यह आभाणक भी उनके सन्दर्भ में विख्यात है कि
'उपमाकालिदासस्य।" जन्मस्थान-हम सभी जानते हैं कि संस्कृत साहित्य के बहुत कम कवि ऐसे हैं, जिन्होंने अपने विषय में कुछ लिखा हो। महाकवि कालिदास भी उन रचनाकारों में से एक हैं, जिनके विषय में उन्हीं के द्वारा लिखित प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। अतः उनका निवास स्थान अज्ञात है तथापि विद्वानों ने कतिपय तर्कों के आधार पर उनके जन्म- स्थान का निर्णय किया है। महाकवि कालिदास के जन्म स्थान के सन्दर्भ में निम्न धारणाएं प्रचलित हैं(1) महाकवि कालिदास की रचनाओं में उपलब्ध हिमालय प्रदेशों और कश्मीर के वर्णनों के आधार पर लक्ष्मीधर कल्ला ने अपनी पुस्तक “The Birth Place of Kalidasa' में इनका जन्म स्थान कश्मीर माना है। (2) काली माता की उपासना से उनके विद्वान् बनने की जनश्रुति के आधार पर कुछ विद्वान् उन्हें शक्ति का
उपासक होने के कारण बंगाल का निवासी मानते हैं, क्योंकि उसी प्रदेश में काली माता की उपासना अधिक प्रचलित है। (3) एक लोकश्रुति के आधार पर कालिदास जी का सम्बन्ध लंका के राजा कुमारदास से बताया जाता है। इसके
आधार पर कतिपय विद्वान् उन्हें लंका निवासी मानते हैं। (4) वैदर्भी रीति के विशेष वर्णन के आधार पर कुछ लोग उन्हें विदर्भ प्रान्त का निवासी भी मानते हैं। (5) अधिकांश विद्वान् उनकी रचनाओं में उज्जयिनी के सूक्ष्म वर्णनों को देखकर उन्हें उज्जयिनी का निवासी मानते हैं। अभी तक बहुमत इसी पक्ष में है कि महाकवि कालिदास उज्जयिनी के ही निवासी थे स्थितिकाल-महाकवि कालिदास का स्थितिकाल भी उनके जीवनवृत्त और जन्म स्थान की तरह ही अनिश्चितता की स्थिति में है। तथापि विद्वानों ने तर्क-वितर्क के पश्चात् इनका स्थितिकाल ई० पूर्व प्रथम शताब्दी स्वीकार किया है। उनका यह स्थितिकाल उनके विक्रमादित्य के आश्रितकवि होने के आधार पर माना गया है। ऐसा माना जाता है कि महाकवि कालिदास ने अपनी रचनाओं में जिस विक्रम का उल्लेख किया है; वह वही विक्रमादित्य थे जिन्होंने ई० पू० प्रथम शताब्दी में शकों को पराजित किया था।
इस मत के समर्थन में निम्न प्रबल तर्क दिया जाता हैप्रयाग के समीप भोटा नामक स्थान पर एक मुद्रा मिली है जिस पर मृग का पीछा करते हुए राजा और वृक्षों को सींचती हुई कन्याएं दर्शायी गई हैं। यह अभिज्ञानशाकुन्तलम् का दृश्य है। मुद्रा का काल ई० पू० प्रथम शताब्दी माना गया है। अत: महाकवि कालिदास का स्थितिकाल ई० पू० प्रथम शताब्दी ही है।
जीवनवृत्त-संस्कृत के अन्य कवियों की भान्ति ही महाकवि कालिदास जी ने अपने जीवन के सन्दर्भ में अपनी रचनाओं में कुछ भी नहीं लिखा है। अत: उनका जीवनवृत्त किंवदतियों का पुलिन्दा मात्र है। एक जनश्रुति के आधार पर महाकवि कालिदास बचपन में सर्वथा मूर्ख थे। विद्योत्तमा नामक विदुषी राजकन्या के गुरु ने अपने अपमान का बदला चुकाने के लिए छल से महाकवि कालिदास का विवाह विद्योत्तमा से करवा दिया। पश्चात् विद्योत्तमा को उसकी मूर्खता का पता लगा तो उसने लताड़कर उसे घर से निकाल दिया। कालिदास ने माता काली की उपासना करके प्रचुर ज्ञानार्जन किया और विद्वान् होकर घर लौटे। तब दरवाजा खटखटाने पर अन्दर से विद्योत्तमा ने पूछा-'अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ।' कहते हैं महाकवि कालिदास जी ने इन सभी शब्दों से आरम्भ होने वाले पृथक्-पृथक् काव्यों की रचना कर डाली। अस्ति से कुमारसम्भव, कश्चिद् से मेघदूत और वाग् से रघुवंश महाकाव्य का आरम्भ होता है। एक अन्य जनश्रुति कालिदास को विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक मानती है। यथा
धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह-शंकु-बेताल भट्ट घटकर्पर कालिदासाः।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वैवररुचिर्नव विक्रमस्य॥ जो भी हो महाकवि की रचनाएँ ही उनके जीवन का निदर्शन हैं। रचनाएँ-संस्कृत साहित्य का एक काल ऐसा था जब संस्कृत जगत् में कालिदास का ही वर्चस्व था। उस काल में जिस किसी विद्वान् ने जो कुछ भी लिखा उस पर अपना नाम न लिखकर कालिदास ही लिख दिया ताकि उनकी रचनाओं को भी लोग पढ़ें। इस प्रवृत्ति के कारण कालिदास के नाम से आज लगभग 200 रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। पुनश्च आज तक संस्कृत साहित्य की रचना करने वाले नौ कालिदास हो चुके हैं। इसलिए यह निर्णय कर पाना कि कौनसी रचनाएँ कविता कामिनीविलास महाकवि कालिदास की हैं, एक कठिन कार्य है तथापि विद्वानों ने रचना शैली-विशिष्ट प्रयोगों एवं अन्य तर्कों के आधार पर तीन साहित्यिक विधाओं में लिखी गई सात रचनाएँ निर्विवाद रूप से महाकवि कालिदासकृत मानी हैं
1. ऋतुसंहारम् 2. मेघदूतम् 3. कुमारसम्भवम् 4. रघुवंशम् 5. मालविकाग्निमित्रम् 6. विक्रमोर्वशीयम् 7. अभिज्ञानशाकुन्तलम् इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
1. ऋतुसंहारम्-ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम काव्यरचना माना जाती है। यह खण्ड काव्यों की श्रेणी में आता है, क्योंकि इसमें महाकाव्य में वर्ण्यमान सभी पक्षों का वर्णन न होकर मात्र एक ही पक्ष अर्थात् प्रकृति का ही वर्णन है। यह छः सर्गों में निबद्ध है। एक-एक सर्ग में एक-एक ऋतु का वर्णन होने से इसमें छ: ऋतुओं का वर्णन है। काव्य का आरम्भ ग्रीष्म ऋतु से होता है और अन्त वसन्त ऋतु से किया गया है। ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर और वसन्त इन सभी ऋतुओं का वर्णन 144 पद्यों में यहाँ किया गया है।
2. मेघदूतम्-मेघदूत खण्ड काव्यों में गीति काव्य के नाम से जाना जाता है। यह काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द के 115 पद्यों में निबद्ध है तथा पूर्वमेघ और उत्तरमेघ दो भागों में विभक्त है। इसकी कथावस्तु के अनुसार कुबेर के पास रहने वाला एक यक्ष विवाह होने के पश्चात् अपने कर्त्तव्यपालन में प्रमाद करने लगता है। इसलिए उसे देश से निर्वासित कर दिया जाता है। वह जाकर रामगिरि पर्वत पर रहने लगता है। आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश में बादल उमड़-घुमड़ करने लगते हैं । यक्ष अपनी पत्नी के विरह में व्याकुल हो उठता है; उसने देखा कि बादल उसकी प्रियतमा की नगरी अलकापुरी की ओर ही जा रहा है। इसलिए उसने उससे अपना सन्देश ले जाने की प्रार्थना की। यक्ष पूर्वमेघ में रामगिरि से अलकापुरी तक के मार्ग का पता मेघ को बताता है तथा उत्तरमेघ में यक्ष द्वारा अपनी पत्नी को दिया गया सन्देश वर्णित है।इस काव्य में मेघ को दूत बनाने के कारण ही इसका नाम मेघदूत पड़ा है। इसके पश्चात् संस्कृत वाङ्मय में दूतकाव्यों की एक परम्परा बन गयी और हँसदूत, पवनदूत आदि कई दूतकाव्य लिखे गये।
3. कुमारसम्भवम्-कुमारसम्भवम् में महाकवि कालिदास जी ने शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के सम्भव अर्थात् जन्म की कहानी वर्णित की है। किस प्रकार शिव बाबा का विवाह करने के लिए देवताओं के प्रयास और पार्वती का तप प्रभावशाली होता है; यह सब इस महाकाव्य में वर्णित है। इसमें 17 सर्ग उपलब्ध होते हैं जिनमें से प्रथम आठ सर्ग ही महाकवि कालिदासकृत माने जाते हैं। शेष नौ सर्ग किसी पश्चाद्वर्ती लेखक द्वारा जोड़े हुए माने जाते हैं। इसका कारण है लेखकों द्वारा प्रथम आठ सर्गों तक के पद्यों को ही यत्र-तत्र उद्धृत करना तथा प्रसिद्ध विद्वान् मल्लिनाथ द्वारा प्रथम आठ सर्गों तक ही टीका किया जाना।
महाकाव्य का मुख्योद्देश्य है कार्तिकेय का जन्म जो बड़े होकर तारकासुर का वध करके देवताओं की रक्षा करना। माँ पार्वती के अश्लीलतापूर्ण वर्णनों के कारण यह काव्य सदैव विद्वान् की आलोचना का आधार रहा है।
4. रघुवंशम्-रघुवंशम् महाकवि की प्रौढ़ावस्था की प्रौढ़तम कृति है। इसमें 19 सर्गों में सूर्यवंश के राजा दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक का वर्णन प्राप्त होता है। दिलीप के पुत्र रघु के जन्म की पूर्वपीठिका से ही काव्य आरम्भ होता है। इसका उपजीव्य काव्य वाल्मीकि रामायण है। इसी महाकाव्य के आधार पर महाकवि कालिदास जी को "रघुकार" और “दीपशिखा" आदि उपनाम प्राप्त हुए हैं। इस महाकाव्य पर विद्वानों द्वारा लिखी गई 40 टीकायें इस महाकाव्य के महत्त्व को प्रदर्शित करती हैं
5. मालविकाग्निमित्रम्-मालविकाग्निमित्रम् महाकवि कालिदास की प्रथम नाट्य कृति है। इसमें पाँच अंक हैं, जिनमें शुङ्गवंशीय राजा अग्निमित्र और मालविका के स्नेह और विवाह का वर्णन प्रमुख घटना है। यह शृंगाररस प्रधान कृति है। राजाओं की कामुकता एवं अधिक पत्नियाँ होने पर उनके पारस्परिक ईर्ष्या को उजागर करना कवि का प्रमुख उद्देश्य प्रतीत होता है।
6. विक्रमोर्वशीयम्-विक्रमोर्वशीयम् पाँच अंकों का नाटक है, जिसके नायक राजा पुरुरवा और नायिका उर्वशी है। इस नाटक के कथानक का आधार शतपथ ब्राह्मण तथा ऋग्वेद का प्रेमाख्यान है। राजा पुरूरवा अत्यन्त उपकारी भूपाल है जो राक्षस द्वारा ग्रसित उर्वशी का उद्धार करते हैं। इसी उपकार से अभिभूत उर्वशी राजा के प्रति प्रेमासक्त हो जाती है और कई शर्तों के साथ पुरुरवा की पत्नी बनना स्वीकार कर लेती है। नाटक में प्रणय तथा प्रणयोन्माद के वर्णन को प्राथमिकता दी गयी है।
7. अभिज्ञानशाकुन्तलम्-अभिज्ञानशाकुन्तलम् महाकवि कालिदास जी की वह प्रौढ़तम और विश्वविख्यात कृति है जिसके अनुवाद को पढ़कर ही जर्मन के कवि गेटे महोदय उसे शिर पर रखकर नाचने लग पड़े थे। इसमें सात अंक हैं तथा हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त और मेनका की आत्मजा एवं महर्षि कण्व की पालिता पुत्री शकुन्तला का प्रेमाख्यान • इसमें वर्णित है। समीक्षकों ने इसे पढ़कर कहा है कि "काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला"। माता-पिता की आज्ञा लिए विना प्रेमविवाह करने वाले युवकों को फटकार लगाना ही इस नाटक का मुख्योद्देश्य प्रतीत होता है। यह शृंगाररस प्रधान नाटक है।
Monikakalia
ReplyDeleteSrno23
Major history
Anish khan
ReplyDeleteSr no.78
Major history
Name -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Sr. No. -76
Name :Priti
ReplyDeleteSr. No.24
Name -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Sr. No. -76
Pritika
ReplyDeleteMajor history
Sr no.39
Monikasharma sr no.26 major hindi
ReplyDeleteMajor Hindi
ReplyDeleteSr no 16
Priyanka Devi
ReplyDeleteSr.no.23
Major history
Jagriti Sharma
ReplyDeleteSerial no. 2
Major-Hindi
Manu
ReplyDeletemajor history
Sr no 75
Isha chaudhry Major hindi sr no 48
ReplyDeleteName Ranjana devi
ReplyDeletesr no 40
Name ranjana devi
ReplyDeletesr no 40
Major hindi
Vivek Kumar Pol science sr no 38
ReplyDeleteAnjli
ReplyDeleteMajor political science
Minor history
Sr.n 73
Sejal Mehta
ReplyDeleteSr no 33
Major Hindi
Isha
ReplyDeleteMajor history sr.no 10
Name Priya major history sr no 6
ReplyDeleteSanjna Dhiman
ReplyDeleteSr no. 10
Major English
Mohini sharma
ReplyDeleteSr no. 18
History
Akriti choudhary
ReplyDeleteMajor history
Sr.no 11
Nikita koundal
ReplyDeleteSr. No 27
Major history
Shivani Devi
ReplyDeleteSr no 46
Major Hindi
Minor history
Name :Palak
ReplyDeleteSr. No. 22
Major:Hindi
Mamta Devi sr no 147
ReplyDeleteName damini.sr 42 major hindi
ReplyDeleteMajor history
ReplyDeleteSr no 29
Anu Devi
ReplyDeleteMajor History
Sr.no.85
Kartik dhiman
ReplyDeleteMajor English
Sr no 06
Name Sakshi
ReplyDeleteSr no 14
Major Hindi
Minor history
Name Tanu Guleria sr. No.32
ReplyDeleteMajor political science
Name Simran kour
ReplyDeleteSr no 36
Major history
Diksha Devi
ReplyDeleteMajor history
Sr. No. 50