अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक का नामकरण

 🏵️अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक का नामकरण 🏵️ संस्कृतसाहित्य में ग्रन्थों के नामकरण की कई विधियाँ प्रचलित हैं। कदाचित् रचनाकार अपनी रचना का नाम रचना के प्रमुख पात्र के आधार पर रख देते हैं। जैसे-रामायण, हर्षचरित, चारुदत्त, प्रियदर्शिका, रत्नावली, कादम्बरी आदि ऐसे ही शीर्षक हैं, जो तत् तत् ग्रन्थों के नायक या नायिका के नाम पर आधारित हैं।

कदाचित लेखक नायक और नायिका दोनों के नाम पर आधारित नामकरण भी करते हैं। यथा-मालविकाग्निमित्रम्, मालतीमाधवम् आदि। कदाचित् विषयवस्तु पर आधारित नामकरण कर दिये गये हैं। यथा-समुद्रमन्थन, उत्तररामचरितम्, शिवराजविजयम्, बालचरितम्, नीतिशतकम्, रावणवधादि। यदा, कदा लेखकों ने अपनी रचना का नाम अपने नाम के अनुसार भी रख दिया है, जैसे-भट्टीकाव्यम्।

परन्तु अधिकतर नामकरण घटना प्रधान नामकरण । जो कोई विशेष घटना किसी रचना का आकर्षण होती है; उसी के आधार पर रचना का नामकरण किया जाता रहा है। जैसे-वेणीसंहारम्, प्रतिमानाटकम्, स्वप्नवासवदत्तम्, मृच्छकटिकम्,मुद्राराक्षसम् आदि।

नामकरण की उपर्युक्त पाँच विधाओं में से "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के नामकरण में महाकवि कालिदास जी ने पाँचवीं विधा को अपनाया है। इस विधा के अन्तर्गत नाटक का नामकरण नाटकीय कथावस्तु की प्रमुख घटना के आधार पर किया दिया जाता है। "अभिज्ञान'' अर्थात् पहचान के लिए प्रयुक्तमुद्रिका की कल्पना अभिज्ञानशाकुन्तलम् की कथावस्तु की अहं घटना है। अतः उसी के आधार पर इस नाटक का नामकरण कर दिया गया है।

अभिज्ञान हेतु प्रयुक्त यह मुद्रिका प्रथमांक में ही कथावस्तु में स्थान पा लेती है। जब राजा शकुन्तला को प्रियंवदा के वृक्षसेचन रूपी ऋण से मुद्रिका देकर अनृण करना चाहता है। यथा-"तदहमेनामनृणां त्वयि करोमि। ( अंगुलीयं दातुमिच्छति।)"

चतुर्थाक में मुद्रिका की पुनः चर्चा आती है, जब मांसल प्रेम के अपराध की सज़ा कथाकार दुर्वासा के अभिशाप के रूप में देते हैं तथा अनुनय-विनय करने पर अभिज्ञानाभरण दर्शन तक सीमित कर देते हैं। तब प्रियंवदा और अनुसूया की बातचीत से पता चलता है कि राजा राजधानी लौटते समय शकुन्तला को निशानी के रूप में स्वनामांकित अंगूठी दे गया है। यथा "अस्ति तेन राजर्षिणा संप्रस्थितेन स्वनाम धेयांकितमगुलीयकं स्मरणीयमिति शकुन्तलायाः हस्ते स्वयं पिनद्धम्।"

चतुर्थांक में ही शकुन्तला की विदाई के समय दोनों सखियाँ पुनः मुद्रिका की बात करती हैं कि 'यदि नाम स राजा प्रत्यभिज्ञान-मन्थरो भवेत् तदा तस्येदमात्म नामधेयांक्तिमङ्गुलीयकं दर्शय।" अर्थात् यदि राजा आपको पहचानने में आनाकानी करे तो उन्हीं के नाम से युक्तमुद्रिका दिखा देना।

पञ्चमांक में राजा द्वारा शकुन्तला को स्वीकार न करने पर शकुन्तला कहती है कि-"यदि परमार्थतः परपरिग्रहशङ्किना त्वयैवं प्रवृत्तं तदाभिज्ञानेन गुरुणा तवाश-कामपनेष्यामि।" अर्थात् मैं पहचान बताकर तुम्हारी शंका दूर कर देती हूँ। परन्तु मुद्रिका हाथ में नहीं थी। सम्भवतः वह शक्रावतार तीर्थ में स्नान करते हुए गिर गयी है।

षष्ठ अंक में धीवर के पास से मुद्रिका के मिलने की घटना प्रधान घटना है। इस प्रकार अभिज्ञानभूता मुद्रिका कथावस्तु का प्रमुख भाग है। अतः पहचान की इस घटना के आधार पर इस नाटक का नामकरण उचित ही है। इस आधार पर “अभिज्ञानशाकुन्तलम्" का अभिप्रायः होगा अभिज्ञानवस्तुना स्मृता शकुन्तला यत्र तत् “अभिज्ञानशाकुन्तलम्"।




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