गीता का द्वितीय अध्याय,, विषयवस्तु

 🏵️गीता का द्वितीय अध्याय 🏵️

गीता का द्वितीय अध्याय महत्त्वपूर्ण है। इसे सांख्य योग के नाम से जाना जाता है। दोनों सेनाओं के मध्य में रथ खड़ा करके अर्जुन भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को देखकर युद्ध न करने का निश्चय करता है। अर्जुन को मोहग्रस्त देखकर श्री कृष्ण उसे युद्ध करने का उपदेश देते हैं। यह युद्ध अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध है। यह युद्ध धर्म के लिए लड़ा जा रहा है, इसलिए इस युद्ध को धर्म-युद्ध की संज्ञा दी गई है। इस युद्ध को करना क्षत्रिय का धर्म है। इस प्रकार के युद्ध को एक क्षत्रिय भाग्य से ही प्राप्त करता है। इस युद्ध के दो ही परिणाम रहेंगे। यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग प्राप्ति होगी। यदि तुम्हें युद्ध में विजय प्राप्त होती है तो इस पृथ्वी पर अखण्ड साम्राज्य प्राप्त करोगे। श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि मृत्यु से भय नहीं करना चाहिए। किसी मनुष्य पर शोक करना व्यर्थ है। आत्मा न मरती है न उत्पन्न होती है। इस सिद्धान्त के अनुसार, वास्तव में न कोई मरता है और न ही कोई किसी को मार सकता है। आत्मा अपने जीर्ण शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करती है। इस पर शोक करना अज्ञानता ही है। आत्मा अजर, अमर, नित्य, शाश्वत, अव्यक्त, अक्षर एवं पुरातन है। यदि इसे जन्म लेने वाली तथा मरणशील भी मान लिया जाए, तो भी इस पर शोक करना व्यर्थ है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है। इसी प्रकार मृत का जन्म भी निश्चित है। इस पर शोक करना अज्ञानी का काम है।

आत्मा अजर, अमर, नित्य, शाश्वत, अव्यक्त, अक्षर एवं पुरातन है। यह शरीर के नष्ट हो जाने पर भी नष्ट नहीं होती है। वास्तव में मृत्यु शरीर की होती है। आत्मा पुराने शरीर के नष्ट हो जाने पर नवीन शरीर को प्राप्त कर लेती है। आत्मा को सत् कहा गया है। सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं हो सकता। आत्मा को शस्त्र भी काट नहीं सकता है। इसे अग्नि से नहीं जलाया जा सकता है। इसे जल नहीं भिगो सकता है। इसे वायु सुखा नहीं सकती है इसे अव्यक्त, अचिन्त्य, अविकार्य कहा गया है। यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल और सनातन है।

अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। व्यक्ति के लिए धर्म निर्धारित किया गया है। इसे सकाम नही करना चाहिए। व्यक्ति का कर्त्तव्य कर्म करना है, उसके फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। एक क्षत्रिय का कर्तव्य युद्ध करना है। इसलिए हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो। विजय, पराजय, लाभ-हानि का विचार न करो। कर्म फल की इच्छा रखना उचित नहीं है। कर्म न करना भी उचित नहीं है। यदि विजय, पराजय, लाभ-हानि, सुख या दु:ख की भावना को छोड़कर युद्ध करोगे तो तुम्हें पाप नहीं लगेगा। फल प्राप्ति की इच्छा को छोड़कर अमासक्ति से किए गए कर्म को ही निष्काम कर्मयोग कहते हैं।

व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ होना आवश्यक है। जो व्यक्ति सुख-दुःख, लाभ-हानि तथा जय-पराजय में समत्व बुद्धि रखता है, वह स्थितप्रज्ञ, स्थितधी अथवा स्थिरबुद्धि कहा जाता है। सुख में प्रसन्न तथा दुःख में व्याकुल रहने वाला पुरुष स्थितप्रज्ञ नहीं है। जो व्यक्ति लाभ होने पर हर्षित हो जाए और हानि होने पर दु:खी हो जाए, वह स्थितप्रज्ञ नहीं है। समत्वबुद्धि तो जय-पराजय में भी होनी चाहिए। स्थितधी पुरुष अनुराग तथा द्वेष से सर्वथा दूर रहता है। वह भय तथा क्रोध से भी मुक्त रहता है। ऐसा व्यक्ति संयमी भी होता है। इन्द्रियों को विषयों की ओर आकर्षित न होने देना संयम है। ऐसा बलपूर्वक भी नहीं करना चाहिए। वास्तव में स्थितप्रज्ञ व्यक्ति वही है, जो विषय प्राप्ति के लिए विचलित नहीं होता है। जिसके वश में इन्द्रियां हैं, उसकी बुद्धि स्थिर मानी जा सकती है। स्थितप्रज्ञ सागर के समान शान्त होता है। जिस प्रकार नदियों के जल से भरने पर भी सागर कभी विचलित नहीं होता, उसी प्रकार स्थितधी भी विषयों से कभी प्रभावित नहीं होता।

इस प्रकार इस सांख्य-योग नामक द्वितीय अध्याय में अर्जुन का मोह दूर करने के लिए आत्मा की नित्यता, शरीर का नाश, निष्काम कर्मयोग तथा स्थितप्रज्ञ बनने का उपदेश दिया गया है।



Comments

  1. Sr no. 27
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    Nikita koundal

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  7. Name-Riya
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  14. Nikita koundal
    Sr no 27
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  15. Nikita koundal
    Sr no 27
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  20. SHIKHA DEVI
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  22. Name -Riya
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  23. Name Richa Sr.no 35
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  25. Priyanka Devi serial no 25 major Hindi and minor history

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