मयूरभट्ट

मयूरभट्ट,,समय  ई. 7 वीं शती। काशी के पूर्व में निवास ।

'सूर्यशतक' के रचयिता । संस्कृत में मयूर नामक कई लेखक

मिलते हैं उदाहरणार्थ बाण के संबंधी मयूरभट्ट, 'पद्मचंद्रिका'

नामक ग्रंथ के लेखक मयूर, सिंहलद्वीप के लेखक मयूरपाद

थेर आदि। किंतु 'सूर्यशतक' के प्रणेता मयूरभट्ट इन सभी से

भिन्न एवं प्राचीन हैं। ये बाणभट्ट के समकालीन थे और दोनों

हर्षवर्धन की सभा में सम्मान पाते थे । ये बाण के संबंधी,

संभवतः जामा: कहे गए हैं। कहा जाता है कि इन्हें कुष्ठ-रोग

हो गया था और उसकी निवृत्ति के के लिये इन्होंने 'सूर्यशतक'

की रचना की थी। बाण और मयूर के संबंध में एक

आख्यायिका प्रचलित है :- एक बार रात्रि को बाण पति-पत्नी

का प्रेमकलह हुआ। तब बाण ने पत्नी को प्रसन्न करने के

लिये निम्न श्लोक कहना प्रारम्भ किया-

गतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शीर्यत इव

प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव।

प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो ।।

संयोगवश तभी मयूर वहां बाण से मिलने के लिये

पहुंचे थे। उन्होंने उपर्युक्त तीन चरण सुन लिये थे।

अतः चौथा चरण स्वयं उन्होंने ही इस प्रकार पूर्ण कर

डाला- 'कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम् ।'

चतुर्थ चरण सुनकर बाण को क्रोध हो आया। उन्होंने

मयूर को शाप दिया कि वह कुष्ठरोगी होगा। शापनिवृत्ति

के लिये मयूर ने सूर्यस्तुतिपरक सौ श्लोक (स्त्न्रा

वृत्त में) लिखे। तब उनकी रोग से मुक्ति हुई।

उपयुक्त श्लोक का अर्थ है- हे कृशांगि रात्रि प्रायः

समाप्त होती आयी है। चंद्र फीका पड गया है। यह

दीप भी निद्रावश होकर बुझने को है। पति के चरण

छूने पर (पत्नी का) मान दूर होता है, परंतु तूने अभी

तक क्रोध नहीं छोडा है। हे चण्डि, कठिन स्तनों के

समीप रहने से तेरा हृदय भी कठिन हो गया है।


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