नीतिशतक2️⃣6️⃣🕉️2️⃣7️⃣🕉️2️⃣8️⃣

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सूनुः सच्चरित: सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुख:

 स्निगधं मित्रमवञ्चकः परिजनो निष्क्लेशलेशं मनः । 

आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं 

तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ संप्राप्यते देहिना ।। 26।।

🇮🇳अन्वयःहरौ तुष्टे देहिना सच्चरितः सूनुः सती प्रियतमा, प्रसादोन्मुखः स्वामी, स्निग्धं मित्रम्, अवञ्चकः परिजनः निष्क्लेशं मनः, रुचिरः आकारः स्थिर: विभवः विद्यावदातं मुखं च सम्प्राप्यते ।

🇮🇳 शब्दार्थ एवं व्याकरण-विष्टपकाष्टहारिणि = सांसारिक कष्टों को हरने वाले । हरौ = भगवान् के । तुष्टे - प्रसन्न मनुष्य के द्वारा। सच्चरितः

(सत् + चरितः व्यंजन सन्धि) सदाचारी। सुनुः = पुत्र। सती सदाचारिणी। प्रियतमा = पत्नी। प्रसादोन्मुखः = (प्रसाद + उन्मुखः गुणसन्धि) प्रसन्न रहने वाला। स्वामी = मालिक। स्निग्धम् = स्नेही। मित्रम् = साथी। अवञ्चकः = विश्वसनीय । परिजनः = सेवक। निष्क्लेशम् = क्लेश (कष्ट) रहित मन । रुचिरः = सुन्दर। आकारः = आकृति। स्थिरः = स्थायी। विभवः = सम्पत्ति। च = और। विद्यावदातम् = ज्ञान से उज्ज्वल। मुखम् = चेहरा। सम्प्राप्यते = प्राप्त होता है।

🇮🇳हिन्दी-अनुवाद-ईश्वर कृपा सब सुखों की प्राप्ति का साधन है। इस तथ्य को प्रकट करते हुए भर्तृहरि जी कहते हैं कि संसार के कष्टों को दूर करने वाले परमात्मा के प्रसन्न होने पर मनुष्य को सदाचारी पुत्र, साध्वी पत्नी, प्रसन्न रहने वाला स्वामी, स्नेही मित्र, विश्वासपात्र सेवक निश्चिन्त मन, सुन्दर आकृति, स्थायी सम्पत्ति तथा विद्या से दमकता हुआ मुख प्राप्त होता है

🇮🇳भावार्थ यह है कि समस्त सांसारिक सुखों का मूलभूत कारण ईशकृपा ही है।

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प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं

, काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।

 तृष्णास्त्रोतो विभङ्गो गोगुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा,

सामान्या सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेषः पन्थाः ।। 27 ।।

,🇮🇳 अन्वयः-प्राण-आघातात् निवृत्तिः परधनहरणे संयमः, सत्यवाक्यम् काले शक्त्या प्रदानम्, परेषां युवतिजन-कथा मूकभावः तृष्णास्रोतः विभङ्गः गुरुषु च विनयः, सर्वभूतानुकम्पा च सर्वशास्त्रेषु एषः सामान्या अनुपहतविधिः (एषः) श्रेयसां पन्थाः।

🇮🇳शब्दार्थ एवं व्याकरण-प्राणाघातात् = प्राणानाम् आघातः तस्मात् षष्ठी त० पु० समास) हिंसा से। निवृत्तिः दूर रहना। परधनहरणे = दूसरे के धन को चुराने में। संयमः इन्द्रियनिग्रह (मन को रोकना)। सत्यवाक्यम् = सत्य बोलना। काले = समय पर। शक्त्या = अपनी सामर्थ्य के अनुसार। प्रदानम् = दान-देना। परेषाम् = दूसरों की। युवतिजनकथामूकभावः = (युवतिजनानां कथाः = युवतिजनकथाः षष्ठी त० पु० स० तासु मूकभावः सप्तमी त० पु० समास) युवतियों की बातचीत के प्रति चुप रहना यानि परायी स्त्रियों की चर्चा न करना। तृष्णास्रोतः = लालच के स्रोत (कारण) का। विभङ्ग = नाश करना। च = और। गुरुषु = बड़ों के प्रति। विनयः = विनम्रता। सर्वभूतानुकम्पा (सर्वभूतेषु अनुकम्पा सप्तमी समास तथा दीर्घ सन्धि) समस्त प्राणियों के प्रति दया करना। सर्वशास्त्रेषु = सभी शास्त्रों में। एषः = यह । अनुपहतविधिः = सर्वमान्य सिद्धान्त है। एषः = यही। श्रेयसां = कल्याण का। पन्थाः =मार्ग है।

🇮🇳हिन्दी-अनुवाद-भर्तृहरि जी सुखी रहने की विधि बतलाते हुए कहते हैं कि हिंसा न करना, दूसरे के धन को चुराने से अपने मन को नियन्त्रित रखना, सत्य बोलना, समुचित समय पर अपने सामर्थ्य के अनुसार दान देना, दूसरों की स्त्रियों की चर्चा के समय मौन रहना, लालच के प्रवाह को रोकना, गुरुजनों के प्रति विनम्रता प्रदर्शित करना तथा सब प्राणियों पर दया करना यह सबके कल्याण का सर्वमान्य सिद्धान्त है, जिसका सब शास्त्रों में विधान है।

🇮🇳भावार्थ यह है कि सत्य, अहिंसा, दया, दान, अस्तेय (चोरी न करना), विनम्रता एवं अलोभ ये सुखी रहने के सर्वशास्त्रमान्य सिद्धान्त हैं।

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प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः,

 प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः। 

विघ्नैः पुनः पुनरपि परतिहन्यमानाः

 प्रारभ्य चोत्तमजना न परिज्यजन्ति।। 28 ।।

🇮🇳अन्वयः-नीचैः विघ्नभयेन न प्रारभ्यते खलु मध्याः प्रारभ्य विघ्नविहताः विरमन्ति च उत्तमजनाः पुनः पुनः प्रतिहन्यमानाः अपि प्रारभ्य न परित्यजन्ति ।

🇮🇳शब्दार्थ एवं व्याकरण-नीचैः = निकृष्ट व्यक्तियों के द्वारा। विघ्नभयेन = कार्य में आने वाली बाधाओं के भय से। न प्रारभ्यते = कार्य आरम्भ ही नहीं किया जाता है। खलु = निश्चित रूप से। मध्याः = मध्यम श्रेणी के लोग प्रारभ्य कार्य आरम्भ करके। विजविहताः = विघ्नों से सताये जाने पर। विरमन्ति = रुक जाते हैं। च = और। उत्तमजनाः = उत्तम श्रेणी के लोग। विनैः = बाधाओं से। पुनः पुनः बार-बार। प्रतिहन्यमानाः = प्रताड़ित किये जाने पर। अपि भी। प्रारभ्य = प्रारम्भ कर देने पर। परित्यजन्ति = नहीं छोड़ते हैं (परि + त्यज् लट् लकार प्र० पु० बहुवचन)।

🇮🇳हिन्दी-अनुवाद-भर्तृहरि जी मनुष्य की तीन श्रेणियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो सबसे निकृष्ट प्रकार के मनुष्य होते हैं; वे विघ्नों के भय से कार्य आरम्भ ही नहीं करते हैं। मध्यम श्रेणी के लोग वे हैं जो कार्य आरम्भ करके विघ्न आने पर कार्य को छोड़ देते हैं। परन्तु उत्तम श्रेणी के लोग विघ्नों से बार-बार प्रताड़ित होने पर भी आरम्भ किये हुए कार्य को समाप्ति से पहले नहीं छोड़ते हैं।

🇮🇳भावार्थ यह है कि जोखिम न उठाने वाले निम्न श्रेणी के लोग होते हैं, जोखिम उठाकर बाधाओं के आने पर मैदान छोड़ने वाले व्यक्ति मध्यम श्रेणी के तथा विघ्नों का सामना करते हुए कार्य को पूर्ण करने वाले व्यक्ति उत्तम कोटि के मनुष्य होते हैं।

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