नाटक की अर्थप्रकृतियाँ

 🌺 पाँच अर्थप्रकृतियाँ🌺 

कार्यावस्थाओं के साथ-साथ चलने वाली सम्बद्ध इतिवृत्त की घटक रूप पांच अर्थप्रकृतियों की योजना रूपकों में की जाती है। दशरूपक के अनुसार अर्थप्रकृतियों की संख्या पाँच है

बीजबिन्दुपताकाख्यप्रकरीकार्यलक्षणाः ।

अर्थप्रकृतयः पञ्च ता एताः परिकीर्तिताः॥ दशरूपक, 1.17 

1.बीज, 2. बिन्दु, 3. पताका, 4. प्रकरी, 5. कार्यलक्षणा।

साहित्यदर्पणकार ने के अनुसार ये पाँच अर्थप्रकृतियाँ नाटक के फल एवं प्रयोजन की सूचक हैं और नाटककार को नाटक की कथावस्तु में इनकी योजना ध्यानपूर्वक करनी चाहिए

बीजं बिन्दुः पताका च प्रकरी कार्यमेव च । 

अर्थप्रकृतयः पञ्च ज्ञात्वा योज्या यथाविधि ।।

अर्थप्रकृतयः प्रयोजनसिद्धिहेतवः । साहित्यदर्पण 6.64-65

 कार्यावस्था और अर्थप्रकृतियों में अन्तर यह होता है कि कार्यावस्थाएँ विषयनिष्ठ होती हैं जबकि अर्थप्रकृतियों की व्यवस्था व्यक्तिनिष्ठ होती है। बीज बिन्दु पताका, प्रकरी, कार्य ये पाँच अर्थ प्रकृतियाँ कथा विभाजन के लिए होती है।

बीजबिन्दु पताकाश्च प्रकरी कार्यमेव च।

अभिनव भारती में अभिनव गुप्त ने लिखा है-

 'यत्रार्थः फलं तस्य प्रकृतयः उपाया फलहेतवः' 

अर्थात् फल के लिए जो उपाय है वे फल हेतु ही अर्थप्रकृति कहे जाते हैं। 

🌻बीज🌻

जो शुरु में अल्पमात्र अंकुरित होकर अनेक प्रकार से विस्तार को प्राप्त करता है। फल का प्रथम हेतुभूत उसको बीज कहते हैं

अल्पमात्रं समुद्दिष्टं बहुधा यद्विसर्पति ।

फलस्य प्रथमो हेतुर्बीजं तदभिधीयते॥ - साहित्यदर्पण, 

दशरूपककार के अनुसार रूपक के आरम्भ में स्वल्पतया संकेतिक और फल का कारणभूत तत्व बीज कहा जाता है जो कि कथानक में अनेक प्रकार से फैलता है

स्वल्पोद्दिष्टस्तु तद्धेतुर्बीजं विस्तार्यनेकधा ।

अवान्तरार्थविच्छेदे बिन्दुरच्छेदकारणम् ॥ दशरूपक, 1.16 

आचार्य भरत के अनुसार अत्यल्प मात्रा में निक्षिप्त, जो अनेक प्रकार से पल्लवित होता है और जिसका परिणाम फल के रूप में होता है उसे 'बीज' कहते हैं।

अल्पमात्रं समुत्सृष्टं बहुधा यद्विसर्पति ।

फलावसानं पञ्चैव बीजं तत् परिकीर्तितम् ॥ नाट्यशास्त्र, 19.22 

आचार्य अभिनव गुप्त ने उसे कहीं उपायमात्र, कहीं फलमात्र और कहीं दोनों से युक्त होता है

-तच्च क्वचिदुपायमात्रं क्वचित्फलमात्रं क्वचिद्यम्।- अभिनवभारती। 

🌻2. बिन्दु🌻

जब मुख्य कथा के प्रभाव के कारण अवान्तर कथा क्षीण होने लगती है, उस समय उस क्षीण कथा को पुनर्जीवित करने वाले फल का हेतु बिन्दु कहलाता है

अवन्तरार्थ विच्छेदे बिन्दु विच्छेदकारणम्। - साहित्यदर्पण, 6.66 

धनंजय के अनुसार दूसरी कथा से विच्छिन्न हो जाने पर इतिवृत्त जोड़ने और आगे बढ़ाने में जो कारण होता है बिन्दु कहलाता है।

अवान्तरकथाविच्छेदे बिन्दु विच्छेदकारणम्।

 🌻3-4. पताका एवं प्रकरी 🌻

ये दोनों भी अर्थ-प्रकृतियाँ हैं, 

सानुबन्धं पताकाख्यं प्रकरी च प्रदेशभाक् ॥ दशरूपक 1.13

🌺जो कथा काव्य या रूपक में दूर तक बराबर चलती है वह सानुबन्ध होती है उसे 'पताका' कहते हैं 

🌺तथा जो केवल एक प्रदेश में ही सीमित रहती है वह 'प्रकरी' कहलाती है 

रामायण की कथा में सुग्रीव, विभीषण आदि की कथाएँ 'पताका' नाम से अभिहित की जाती हैं तथा श्रमणा, शबरीआदि के कथावृत्त 'प्रकरी' कहे जाते हैं। 'पताका' कथा का नायक मूल नायक से भिन्न होता है, यह पताका नायक कहलाता है।

5. कार्य- नाटक का प्रधान साध्य कार्य होता है, इसी कार्य की सिद्धि हेतु सम्पूर्ण प्रयत्न और उसका आरम्भ किया जाता है। इस कार्य की सिद्धि ही उसकी समाप्ति होती है। कार्य नामक अर्थप्रकृति की पाँच अवस्थाएँ होती हैं।



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