संस्कृत दिवस रक्षाबंधन के दिन क्यों मनाया जाता है जाने
यह निर्विवाद है कि संस्कृत दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं में है बहुत सारी भाषाओं ने इससे शब्द लेकर अकी समृद्ध किया है। इस भाषा में ज्ञान विज्ञान की अगाध संपदा है। पर हैरानी की बात है कि भारत में यह भाषा अब सिमटते-सिमटते विलुप्ति के कगार पर आ गई है। इसे बचाने के अनेक प्रयास किए गए। संस्कृत महाविद्यालय और हर राज्य में संस्कृत विश्वविद्यालय खोलने की सिफारिशें की गई। पर, इस दिशा सें अब तक का उल्लेखनीय कार्य नहीं हो पाया है। आइए संस्कृत दिवस तथा सप्ताह के चलते संस्कृत के विषय में कुछ चर्चा करें
आजादी के बाद देश को विदेशी भाषाओं के प्रभाव से मुक्त करने के लिए देशज भाषाओं के उत्थान के प्रयास हुए।
जिसके परिणाम में केंद्र सरकार ने भारतीय भाषाओं को बढ़ाने और बचाने के लिए विशेष 'दिवस' मनाने शुरू किए। मुखतः ये दिवस दो भाषाओं के हैं पहला है हिंदी दिवस,
जो प्रतिवर्ष 14 सिंतबर को आता है। दूसरा है,रक्षाबंधन के दिन मनाया जाना वाला संस्कृत दिवस।
संस्कृत दिवस का इतिहास 52 वर्ष पुराना है।1968 में एक प्रस्ताव बना कि केंद्र और राज्य सरकारें हर साल 'संस्कृत दिवस' मनाएं। तत्कालीनशिक्षामंत्री डॉ. बीकेआर वरदशजराव ने इस दिशा में मजबूत काम किया। इसका नतीजा 1969 में आया, जब संस्कृत दिवस मनाने का सरकारी परिपत्र जारी हुआ। डॉ. राव उच्च कोटि के शिक्षाविद और सांस्कृतिक परंपराओं के गहरे जानकार थे। इसीलिए उन्होंने संस्कृत दिवस के लिए श्रवण माह की पूर्णिमा वानी रक्षाबंधन का दिन चुना।
संस्कृत दिवस के लिए रक्षाबंधन का दिन चुनने के पीछे जो
रहस्य है, वह शाश्वत परंपरा से जुड़ा है। मनुस्मृति में 'श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वा उपाकृत्य वचाविधि' यानी यह दिन सदियों से गुरुकुलों में वेदों की शाखाएं दोहराने का है। यही दिन पुरोहितों द्वारा तीर्थों में |उपाकर्म करने का है, जिसे 'श्रावणी' कहा जाता है उपाकर्म यानी शास्त्र पढ़ने की शुरुआत। मान्यता है कि गुरुकुलों में श्रावणी पुर्णिमा
से शैक्षणिक सत्र आरंभ होता था। दूसरे लोगों का कहना है कि माघ महीने से चले आ रहे शैक्षणिक सत्र का समापन दिन श्रावणी है जो भी कारण रहा हो, पर गुरुकुलों में यह दिन अध्ययन और अध्यापन के हिसाब से सबसे महत्त्व का रहा है। इसी दिन रक्षाबंधन का त्योहार मनाया भी जाता है। यही कारण था कि डॉ. राव ने इस दिन को 'संस्कृत दिवस' के रूप में चुना, जिससे इस दिन की पारंपरिक महत्ता जीवित
संस्कृत दिवस मनाना संस्कृत भाषा पर उपकार नहीं, बल्कि वह इस अमर भाषा के प्रति आभार प्रकट करने का दिन है। नई पीढ़ी को संस्कृत का ऐतिहासिक महत्त्व समझाने के लिए है, जिससे वह संस्कृत के ज्ञान- विज्ञान और साहित्य को समझ कर इसका उपयोग कर सके। संस्कृत में आदर्श और अनुशासन का मेल है। आध्यात्मिक और नैतिक स्तर पर व्यक्ति को मजबूत करने का साधन है।
संस्कृत आयोग का गढन
आजादी के बाद भारतीय भाषाओं की स्त्रोत भाषा संस्कृत का जमीनी सच आनने के लिए पॉडित जवरलाल नेहरू ने 1956 में सस्कृत आयोग बनाया। इसके अध्यक्ष भाषाविद सुनीति कुमार
चटर्जी थे।वी. राघवन, विश्वबंधु शास्त्री और आरएन दांडेकर
जैसे मनीषी इस आयोग के सदस्य थे। आयोग ने लबे विचार-
विमर्श के बाद शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद को
30 नवबर, 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। आयोग की रिपोर्ट
में संस्कृत के पारंपरिक अध्ययन-अध्यापन और उसे फैलाने
को लेकर अनेक सुझाव थे।
संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए पंडित नेहरू ने 1961
में तिरुपति (आध्र प्रदेश) में एक केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ
खोला। 1 अप्रैल, 1967 को लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय
संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना दिल्ली में हुई। 1970 में
इदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए देश भर में संस्कृत
महाविद्यालय खोलने के लिए दिल्ली में केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ स्थापित किया। अब यह राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान है, जिसे वर्तमान सरकार द्वारा केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय बना दिया गया। जिसके अधीन तेरह संस्कृत शिक्षण केंद्र विभिन्न प्रांतों में संचालित हैं।
1987 में राजीव गांधी सरकार ने उज्जैन में महर्षि संदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठन स्थापित किया। इस तरह संस्कृत आयोग की सिफारिशों के हिसाब से संस्कृत को मजबूत करने के निर्णय से हुए, जिसके बेहतर परिणाम सामने आए।
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