भट्टनायक,, नाट्यशास्त्र के आचार्य
भट्टनायक.10वीं शती। काव्य-शास्त्र के आचार्य।"राजतरंगिणी" में उल्लेखित भट्टनायक से भिन्न । "हृदय-दर्पण" नामक (अनुपलग) अंथ के प्रणेता । इनके मत, अभिनवभारती, व्यक्ति विवेक, काव्य-प्रकाश, काव्यानुशासन माणिक्यचंद्र-कृत काव्यप्रकाश की संकेत-रीका में उद्धत है। भट्टनायक ने भरतकृत "नाट्यशास्त्र" की भी टीका लिखी थी। भरत मुनि के रस-सूत्र के तृतीय व्याख्याता के रूप में भट्टनायक का नाम काव्यप्रकाश में आता है। इन्होंने रसविवेचन के क्षेत्र में "साधारणीकरण" के सिद्धांत का प्रतिपादन कर भारतीय काव्य शास्त्र के इतिहास में युग-प्रवर्तन किया है। इनका समय ई.9वो शती का अंतिम चरण या 10वीं शती का प्रथम चरण है। इनके रसविषयक सिद्धांत को भुक्तिवाद कहते है। तदनुसार न तो रस की उत्पत्ति होती है और न अनुमिति, अपि तु भक्ति होती है। इन्होंने रस की स्थिति सामाजिकगत मानी है। भट्टनायक के अनुसार शब्द की तीन व्यापार है- अभिधा, भावकत्व व भोजकत्व। भोजकत्व नामक तृतीय व्यापार के द्वारा रस का साक्षात्कार होता है। इसी को भट्टनायक "भुक्तिवाद' कहते हैं। भोजकत्व की स्थिति, रस के भोग करने की होती है। इस स्थिति में दर्शक के हृदय के राजस र तामस भाव सर्वथा तिरोहित हो जाते है और (उन्हें दबा कर) सत्वगुण का उद्रेक हो जाता है।भट्टनायक ध्वनि-विरोधी आचार्य है। इन्होंने अपने "हदय-दर्पण"नामक ग्रंथ की रचना ध्वनि के खंडन के लिये ही की थी।
"ध्वन्यालोकलोचन" में भट्टनायक के मत अनेक स्थानों पर बिखरे हुए हैं। उनसे पता चलता है कि इन्होंने ध्वनि-सिद्धांत का खंडन, बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ किया है। ये काश्मीर-निवासी थे। इनके "सदय-दर्पण" का उल्लेख महिमभट्ट कृत भट्टनायक, नाट्यशास्त्र के भी प्रमुख व्याख्याता है। अभिनवगुप्त ने छ: स्थानों पर इनका उल्लेख किया है। जयस्थ, माहिमभट्ट तथा रुक ने भी इनका उल्लेख किया है। ये ध्वनि-सिद्धान्त के विरोधी आचार्य थे। काश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा (855-884 ई.) इनके आश्रयदाता थे। अतः संभव है कि ये आनन्दवर्धन के समकालीन रहे हो। रसशास्त्र के व्याख्यान-क्रम में साधारणीकरणके उद्भावक तथा भुक्तिवाद के प्रवर्तक रूप में आप प्रसिद्ध हैं।
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