भर्तुप्रपंच
भर्तुप्रपंच
ये भेदाभेद-सिद्धांत के पक्षपाती थे शंकराचार्यजी ने इनके
मत का उल्लेख तथा खंडन बृहदारण्यक के भाष्य में किया
है (2-3-6, 2-5-1, 3-4-2, 4-3-30)। इनका मत है कि
परमार्थ एक भी है तथा नाना भी है। ब्रह्म रूप में एक और
जगद्रूप में नाना है। जीव नाना तथा परमात्मा का एकदेश
मात्र है
आद्य शंकराचार्यजी के पूर्ववर्ती वेदांताचाय्ों में
। काम बासनादि जीव के धर्म हैं। अत: घर्म तथा
दृष्टि के भेद से जीव का नानात्व औपाधिक नहीं है, अपि
तु वास्तविक है। ब्रह्म एक होने पर समुद्र-तरंग न्याय से
द्वैताद्वैत है जिस प्रकार समुद्र-रूप से समुद्र की एकता है,
परन्तु विकार-रूप तरंग, बुद्बुद आदि की दृष्टि से वही समुद्र
नानात्मक है। इनके मतानुसार परमात्मा तथा जीव में अंशांशि-भाव
अथवा एकदेश-एकदेशिभाव सिद्ध होता है। इन्होंने क्रठ तथा
बृहदारण्यक- उपनिषद पर भाष्य लिखे हैं। बादरायण-पूर्व
आचार्यों की भेदाभेद- परंपरा का अनुसरण भर्तृप्रपंच ने अपने
ग्रंथों में किया है।
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