पाणिनि
पाणिनि (भगवान्) - "अष्टाध्यायी' नामक अद्वितीय व्याकरण
ग्रंथ के प्रणेता। पाश्चात्य व आधुनिक भारतीय विद्वानों के
अनुसार, इनका समय ई. पू. 7 वीं शती है, किन्तु पं. युधिष्ठिर
मीमांसक के अनुसार ये वि.पू. 2900 वर्ष में हुए थे। इनका
जीवन वृत्त, अद्यावधि अज्ञात है। प्राचीन ग्रंथों में इनके कई
नाम मिलते हैं यथा पाणिन, पाणि, दाक्षीपुत्र, शालकि,
शालातुरीय व आहिक। इन नामों के अतिरिक्त पाणिनेय व
पाणिपुत्र ये नाम भी इनके लिये प्रयुक्त किये गये हैं। पुरुषोत्तम
देव कृत "त्रिकांड शेष' नामक ग्रंथ में सभी नाम उल्लिखित हैं।
कात्यायन व पतंजलि ने पाणिनि नाम का ही प्रयोग किया
है। पाणिन नाम का उल्लेख "काशिका" व "चांद्रवृत्ति" में
प्राप्त होता है। दाक्षीपुत्र नाम का उल्लेख "महाभाष्य",
समुद्रगुप्त कृत "कृष्णचरित' व श्लोकात्मक "पाणिनीय-शिक्षा"
में है। शालातुरीय नाम का निर्देश भामहकृत "काव्यालंकार",
"काशिका विवरण पंजिका", "न्यास" तथा "गुणरत्न महोदधि"
में प्राप्त होता है।
वंश व स्थान पं. शिवदत्त शर्मा ने "महाभाष्य" की
भूमिका में पाणिनि के पिता का नाम शलङ्क व उनका पितृ
व्यपदेशक नाम "शालाकि" स्वीकार किया है। शालातुर
अटक के निकट एक ग्राम था, जो लाहुर कहलाता था।
पाणिनि को वहीं का रहनेवाला बताया जाता है। वेबर के
अनुसार पाणिनि उदीच्य देश के निवासी थे, क्यों कि शालंकियों
का संबंध वाहीक देश से था। श्यू आङ् चुआङ् के अनुसार
पाणिनि गांधार देश के निवासी थे। इनका निवास स्थान
शालातुर, गांधार देश (अफगनिस्तान) में ही स्थित था, जिसके
कारण पाणिनि शालातुरीय कहलाते थे। इनकी माता का नाम
दाक्षी होने के कारण इन्हें "दाक्षीपुत्र" कहा जाता था। कुछ
ने बताया कि पाणिनि केवल ऋष्वेद, सामवेद व यजुवेद से
ही परिचित थे पर अथर्वेद व दर्शन ग्रंथों से वे अपरिचित
थे किन्तु डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस मत का खंडन
कर दिया हैं । पाणिनि को वैदिक साहित्य के कितने अंश,
का परिचय था,इस विषय में विस्तृत अध्ययन के आधार पर
थीमे का निष्कर्ष है कि ऋग्वेद, मैत्रायणी संहिता, काठक
संहिता, तैत्तिरीय संहिता, अथर्ववेद, संभवतः सामवेद, ऋष्वेद
के पद पाठ और पैप्पलाद शाखा का भी पाणिनि को परिचय
था। अर्थात् यह सब साहित्य उनसे पूर्व युग में निर्मित हो
चुका था। गोल्डस्कूटर ने यह माना था कि पाणिनि को
उपनिषद् साहित्य का परिचय नहीं था, अतः उनका समय
उपनिषदों की रचना के पूर्व होना चाहिये यह कथन निराधार
है, क्योंकि सूत्र 1-4-79 में पाणिनि ने उपनिषद् शब्द का
प्रयोग ऐसे अर्थ में किया है, जिसके विकास के लिये उपनिषद्
युग के बाद भी कई शतीयों का समय अपेक्षित था । कीथ
ने इसी सूत्र के आधार पर पाणिनि को उपनिषदों के परिचय
की बात प्रामाणिक मानी थी। तथ्य तो यह है कि पाणिनिकालीन
साहित्य की पारिधि वैदिक ग्रंथों से कही आगे बढ चुकी
थी। अद्यावधि शोध के आधार पर पाणिनि का समय ई.पू.
700 वर्ष माना जा सकता है।
पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" भारतीय जन जीवन व तत्कालीन
सांस्कृतिक परिवेश को समझने के लिये स्वच्छ दर्पण है।
इसमें अनेकानेक ऐसे शब्दों का सुगुंफन है, जिनमें उस युग
के सांस्कृतिक जीवन के चित्र का साक्षात्कार होता है। तत्कालीन
भूगोल, सामाजिक जीवन, आर्थिक अवस्था, शिक्षा व विद्या
संबंधी जीवन, राजनैतिक व धार्मिक जीवन, दार्शनिक चिंतन,
रहन सहन, वेश भूषा व खान पान का सम्यक् चित्र
"अष्टाध्यायी" में सुरक्षित है।
किंवदंतियां - ई. 7 वीं शताब्दी में भारत भ्रमण करते
हुए चीनी यात्री युआन च्वांग शलातुर भी गया था तब उन्हें
पाणिनि से संबंधित अनेक दंतकथाएं सुनने को मिलीं। उनके
कथनानुसार वहां पर पाणिनि की एक प्रतिमा भी स्थापित की
हुई थी। वह प्रतिमा संप्रति लाहोर के संग्रहालय में है किन्तु
दीक्षित उसे बुद्ध की प्रतिमा मानते हैं। पाणिनि के जीवन
चरित्र की दृष्टि से किंवदंतियों तथा आख्यायिकों पर ही निर्भर
रहना पडता है। कथासरित्सागर में एक किंवदती इस प्रकार है :
वर्ष नामक एक आचार्य पाणिनि के गुरु थे। उनके पास
पाणिनि और कात्यायन पढा करते थे। इन दोनों में काल्यायन
कुशाग्र बुद्धि के थे जब कि पाणिनि मंदबुद्धि के। कात्यायन
सभी विषयों में पाणिनि से आगे रहा करते। यह स्थिति
पाणिनि को असह्य हो उठी। अतः गुरुगृह का त्याग कर वे
हिमालय गये। वहां पर शिवजी का प्रसाद प्राप्त करने हेतु
उन्होंने घोर तपस्या की । शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें
पतिभाशाली बुद्धि प्रदान को। पाणिनि के सम्मुख नृत्य करने
हुए शिकी मे अपना इमरू 14 बार बजाया हमरू से जो
धनि निकले उनका अनुकरण करते हुए पाणिनि ने अहउण्,
ম, एओ आदि 14 प्रत्याहार सूत्र बनाए (कथासरिलागर
1.4) । पाणिनि की अष्टाध्यायी, इन 14 शिवसूत्रों पर ही
आधारित है।
शलातुर गोव में युआन च्यांग को पाणिनि के बारे में जो
आख्यायिकाएँ विद्वानों से सुनने को मिली उनका सारांश इस
प्रकार है
अंति प्राचीन काल में साहित्य का विस्तार अल्यधिक या।
कालक्रम से उसका हास होता गया और एक दिन सभी कुछ
शुन्य हो गया। उस समय ज्ञान की रक्षा हेतु देवताओं ने
पृथ्वी पर अवतार लिया। उन्होंने फिर व्याकरण व साहित्य
की निर्मिति की । आगे चल कर व्याकरण का विस्तार होने
लगा । उसे अत्यधिक वृद्धिंगत हुआ देख ग्रहादेव व इ्र ने
लोगों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, व्याकरण के
कुछ नियम बनाए और शब्दों के रूपों को स्थिर किया। आगे
चल कर विभिन्न ऋषियों ने अपने अपने मतानुसार अलग
अलग व्याकरणों की रचना की उनके शिष्य व प्रशिष्य उन
व्याकरणों का अध्ययन करने लगे किन्तु उनमें जो मंदबुद्धि
के थे उन्हें उन सब का यथावत् आकलन न हो पाता था।
उमी काल में पाणिनि का जन्म हुआ।
पाणिनि की प्रहण शक्ति जन्मतः ही तीव
थी। उन्होंने देखा कि मानव की आयुमय्यादा तथा व्याकरण
* क विस्तार का आपस में मेल बैठना संभव नहीं। अत:
अध्ययन यात्रा -
पाणिनि ने व्याकरण में सुधार करने तथा नियमों के निर्धारण
द्वारा अशुदध शब्द प्रयोगों को ठीक करने का निश्चय किया।
व्याकरण विषयक सामग्री के संग्रह हेतु ये तुरंत यात्रा पर
चल पडे। इस यात्रा में उनकी भेट हुई ई्रदेव नामक एक
प्रकांड पंडित से। पाणिनि ने ईश्वरदेव के सम्मुख अपने नवीन
व्याकरण की योजना प्रस्तुत की। ईश्रदेव का मार्गदर्शन प्राप्त
कर पाणिनि एकात स्थान में पहुंचे। वहा बैठ कर उन्होंने
आठ अध्यायों के एक नये व्याकरण की निर्मिति की । फिर
उन्होने अपना वह व्याकरण प्रेथ पाटलिपुत्र स्थित सम्राद् नेद
के पास आया। सम्राट् ने उस प्रेथ को उपयुक्त व सारभूत
चाषित किया। तथ सम्राद् ने एक आज्ञापत्र [प्रसारित करते हुए
आदेश दिया कि वह प्रथ उनके साम्राज्य में पढाया जाये।
मगध सम्राद नंद पाणिनि के मित्र बन गए थे|।
महती सूक्ष्म दृष्टि- पाणिनि इस दृष्टि से नर्मदा के उत्तर
के. प्रायः संपूर्ण भू-भाग में घूमे थे विविध प्रकार के पदार्थों
के बारे में पाणिनि की आष्टाध्यायी में नियम और उल्लेख
मिलते हैं। इस पर से अनुमान किया जा सकता है कि
भाषा-विषयक सामग्री जुदाने हेतु, पाणिनि ने विभिन्र प्रदेशों
की कितनी व्यापक यात्रा की थी। पाणिनि ने उदीच्याम्, प्राच्याम्
के निदेशों के साथ अपनी आष्टाध्यायी में यह भी बताया है
कि किस प्रदेश के लोग किसी शब्द विशेष का न्हस्व-दौर्घ
आदि की टृष्टि से किस प्रकार उच्चारण किया करते है। इन्हीं
बातों से प्रभावित होकर काशिकाकार के गौरवोद्गार व्यक्त
हुए- "अहो महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य (पाणिनि की
यह कितनी महान् सूक्ष्मदृष्टि है) पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी
में जनपद, ग्राम, नगर, संघ गोत्र, वरण आदि की सुदीर्ष
सूचि भी दी है। गोत्रों के लगभग एक हजार नाम पाणिनीय
गणों ने संप्रहित किये हुए हैं। अष्टाध्यायी में 500 ग्रामों व
नगरों की पूरी सूची मिलती है। साथ ही तत्कालीन रीति-रिवाज
कला-कौशल, देव-धर्म, उपासना की पद्धतियां, लोगों की
रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा, जीवन-व्यवयसाय आदि अनेक बातों
की भी जानकारी पाणिनि के इस व्याकरण-प्रथ से उपलब्ध होती है।
वेदत्रयी, वेदों की विभिन्न शाखाएं, वेदांग, ब्राह्मण, महाभारत,
कथागाथात्मक साहित्य, श्रीतसूत्र व धर्मसूत्र, उपनिषद् तथा दृष्ट
व प्रोक्त के अन्तर्गत आने वाला अधिकांश वाङ्मय पाणिनि
को ज्ञात था, ऐसा दिखाई देता है।
अपने इस सर्वप्राही स्वरूप के कारण पाणिनि की अष्टाध्यायी,
प्रातिशाख्यों के समान संबंधित वेद-विशेष तक ही सीमित
नहीं रही। उसने अपना संबंध सभी वेदों से स्थापित किया।
सामवेद के ऋकृतंत्र नामक प्रातिशाख्य के अनेक सूत्र पाणिनि
के सूत्रों से मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं। उन दोनों की तुलना
करते हुए डा. वासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं- पाणिनि ने
अपने पहले के सूत्रों को भाषा, अर्थ एवं विस्तार इन तीनों
ही दृष्टियों से पल्लवित किया। पाणिनि ने किसका और कितना
ऋण लिया यह निर्धारित करने की दृष्टि से निश्चित साधन
उपलब्ध नहीं फिर भी यह कहा जा सकता है कि विषय-प्रतिपादन
की दृष्टि से अष्टाध्यायी अपने-आप में परिपूर्ण है वेदों से
लेकर समस्त संस्कृत वाड्मय का अध्ययन उसके कारण सुलभ
होता है।
भट्टोजी दीक्षित ने अष्टाध्यायी पर आधारित "सिद्धांत:कौमुदो"
नामक प्रंथ की रचना की। उसमें वैदिकी प्रक्रिया व ख्र-प्रक्रिया
नामक दो प्रकरण हैं। बैदिकी प्रक्रिया में बताया गया है कि
पाणिनि के व्याकरण-विषयक नियम किस प्रकार समस्त वैदिक
वाङ्मय को लागू पडते हैं और स्वर-प्रक्रिया मे वैदिक भाषा
के उच्चार किस प्रकार किये जायें इसका विवेचन है। अपने
व्याकरण-विषयक सूत्रों की रचना करते समय पाणिनि ने संपूर्ण
वैदिक प्रंथ-भांडार व उपनिषदों का आलोडन किया था ऐसा
प्रतीत होता है।
पाणिनि व्याकरण की सर्वकष विशेषता को ध्यान में रखते
हुए शिक्षा-प्रंथों में निम्न श्लोक अंकित किया गया है-
येन धौता गिरः पुंसां विमलैः शब्दवारिभिः ।
तमक्चाज्ञनज भिन्ने तस्मै पाणिनये नमः ।।
Priya choudhary 1807ph124
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ReplyDeletePriyanka 1901hi059
Pooja 1901HI029
ReplyDeleteShaveta kaler 1901hi058
ReplyDeletePooja 1901HI029
ReplyDeleteNitika1901hi067
ReplyDeleteNitika1901hi067
ReplyDeleteRuchika 1901Hi048
ReplyDeleteTamanna 1901HI068
ReplyDeleteRupinder 1901HI004
ReplyDelete1901HI031
ReplyDeleteKalpna choudhary Roll no 1901HI065
ReplyDeleteShweta kumari 1901hi011
ReplyDelete1801EN036
ReplyDeletePooja
simran devi
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major hindi
Anubala 180hi058
ReplyDeleteManisha 1901hi010
ReplyDeleteManisha 1901hi054
ReplyDeleteKartik sr no 06 dehri collage
ReplyDeleteName ranjana Devi
ReplyDeleteSr no 40
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