पराशर
वसिष्ठ ऋषि के पौत्र, गोत्र प्रवर्तक व ग्रंथकार ।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 65 से 73 तक के सूक्त पराशर
के नाम पर हैं ये सभी सूक्त अग्निविषयक एवं काव्यमय
हैं। अपने उपमेयों को अनेक उपमानों से विभूषित करना है
पराशरजी की विशेषता। इस दृष्टि से निम्न ऋचा उल्लेखनीय है।
पुष्टिर्न रण्वा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिर्न भुज्म क्षोदो न शंभु।
अत्यो नाज्मन् त्सर्गप्रतक्तः सिंधुर्न क्षोदः क ई वराते।
(ऋ. 1.65.3.)
अर्थ - उत्कर्ष के समान रमणीय, पृथ्वी के समान विस्तीर्ण,
पर्वत के समान (फल पुष्पादि) भोग्य वस्तुओं से परिपूर्ण,
उदक (जल) के समान हितकारी, तथा तीव्र वेग से निकला
अश्व मैदान में जिस प्रकार अधिक गतिमान् होता है, महानदी
जिस प्रकार अपने दोनों तटों को भग्न करने की क्षमता रखती
है, उसी प्रकार की है यह अग्नि । वस्तुतः इसे कौन प्रतिबंधित
कर सकेगा।
पाराशरजी को अग्नि का दिव्यत्व तथा महनीयत्व प्रतीत
हुआ है। कात्यायन की सर्वानुक्रमणी में, पराशर को वसिष्टपुत्र
शक्ति का पुत्र कहा गया है, किन्तु निरुक्त में की गई व्युत्पत्ति
के आधार पर उन्हें बताया गया है वसिष्ठ का पुत्र । वहां
पराशर शब्द की "पराशीर्णस्य स्थविरस्य जज्ञे" अत्यंत थके
हुए वृद्ध से इनका जन्म हुआ, ऐसी व्युत्पत्ति दी है। परन्तु
उस पर से पराशर को वसिष्ठ का पुत्र मानना समुचित नहीं
क्यों कि अपने सभी पुत्रों का निधन हो जाने के कारण,
वसिष्ठ को केवल इन्हीं का आधार उत्पन्न हुआ था, और
उसी पर से यह व्युत्पत्ति निर्माण हुई होगी तत्संबंधी कथा
इस प्रकार है
एक बार वसिष्ठ हताश स्थिति में अपने आश्रम के बाहर
निकले। तब उनके पुत्र शक्ति की विधवा पत्नी अदृश्यंती भी
चुपके से उनके पीछे हो निकली। कुछ समय के उपरान्त
वसिष्ठ के कानों पर वेद ध्वनि आने लगी। पीछे मुड कर
देखने पर उनके ध्यान में आया की वह ध्वनि अदृश्यंती के
उदर से आ रही है तब अपने वंश का अंकुर जीवित है।
यह जानकर वसिष्ठ आश्रम में लौटे।
यह विदित होने पर कि अपने पिता शक्ति को राक्षसों ने
मार डाला है, पराशर ने सभी राक्षसों का संहार करने हेतु
राक्षस सत्र आरंभ किया परिणाम स्वरूप उसमें निरपराध
राक्षसभी मारे जाने लगे। अतः पुलक्यादि ऋषियों ने उन्हें
सत्र से परावृत्त किया। पराशर ने उनकी बाते मानते हुए
उस सत्र को रोक दिया। तब ऋषि पुलस्त्य ने "तुम सकल
शास्त्र पारंगत तथा पुराण वक्त बनोगे" ऐसा उन्हें वरदान
किया (विष्णु पु. 1.1) । राक्षस सत्र हेतु सिद्ध की गई अग्नि
को पराशर ने हिमालय के उत्तर में स्थित एक अरण्य में
डाल दिया। अग्नि अभी तक पर्व के दिन राक्षसों, पाषाणों
व वृक्षों का भक्षण करती है ऐसा विष्णु पुराण (1.1) एवं
लिंग पुराण (1.64) में कहा गया है।
एक बार पराशरजी तीर्थ यात्रा पर थे। यमुना
सत्यवती नामक एक धीवरकन्या उन्हें दिखाई दी। वे उसके
रूप व यौवन पर लुब्ध हो उठे। उसके शरीर से आने वाली
मत्स्य की दुर्गधि की ओर ध्यान न देते हुए जब कामातुर
होकर वे उससे भोग की याचना करने लगे, तब वह बोली
"आपकी इच्छा पूर्ण करने पर मेरा कन्या भाव दृषित होगा" ।
तव पराशर ने सत्यवती को दो वरदान दिये। 1) तेरा कन्याभाव
नष्ट नहीं होगा और 2) तेरे शरीर की मतस्य गंध नष्ट होकर
उसे सुगंध प्राप्त होगी और वह एक योजन तक फैलेगी। ये
वरदान दिये जाने पर सत्यवती पराशरजी की इच्छा पूर्ति हेतु
सहमत हुई। तब पराशरजी ने भरी दोपहर में नाव पर कोहरा
निर्माण करते हुए अपने एकांत को लोगों की दृष्टि से ओझल
बनाने की व्यवस्था की और फिर सत्यवती का उपभोग लिया।
उस संबंध से सत्यवती को वेदव्यास नामक पुत्र हुआ।
पराशर ने राजा जनक को जिस तत्त्ज्ञान का उपदेश दिया
था, उसी का सारांश आगे चलकर भीष्म पितामह ने धर्मराज
(युधिष्ठिर) को बताया उसे पराशरगीता कहते हैं (महा.
शांति, 291-299) । इसके अतिरिक्त पराशरजी के नाम पर
जो प्रंथ मिलते हैं उनके नाम हैं- बृहत्पाराशर होराशास्त्र
(12 हजार श्लोकों का ज्योतिष विषयक ग्रंथ), लघु पाराशरी,
बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता (3300 श्लोक, पाराशर धर्मसंहिता
(स्मृति), पराशरोदितं वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने इसका उल्लेख
किया है), पाराशर संहिता (वैद्यक शास्त्र) पराशरोपपुराण,
पराशरोदितं नौतिशास्त्रम् एवं पराशरोदितं केवलसारम् । ये सब
प्रेथ लिखने वाले पराशर, सूक्तद्रष्टा पराशर से भिन्न प्रतीत होते हैं।
इसी प्रकार कृषिसंप्रह, कृषिपराशर व पराशर तंत्र नामक
प्रंथ भी पराशर के नाम पर हैं किन्तु ये पराशर कौन, इस
बारे में विद्वानों में मतभेद है। कृषिपराशर नामक ग्रंथ की
शैली पर से यह प्रंथ ईसा की 8 वीं शताब्दी के पहले का
प्रतीत नहीं होता।
कृषिपराशर नामक ग्रंथ में खेती पर पडने वाला ग्रह नक्षत्रों
का प्रभाव, बादल और उनकी जातियां, वर्षा का अनुमान,
खेती की देखभाल, बेलों की सुरक्षितता, हल, बीज की
बोआई, कटाई व संग्रह, गोबर का खाद आदि से संबंधित
जानकारी है। इस ग्रंथ पर से अनुमान किया जाता सकता
है कि उस काल में यहां की खेती अत्यधिक समृद्ध थी।
पराशर आयुर्वेद के एक कर्ता व चिकित्सक थे। अग्निवेश,
भेल और पराशर समकालीन थे यह बात चरक संहिता से
विदित होती है (सूत्र 1, 31)। पराशर तंत्र में कार्यचिकित्सा
पर विशेष बल दिया गया है।
पराशरजी ने हस्त्यायुर्वेद नामक एक और ग्रंथ की भी
रचना की है। हेमाद्रि ने उनके मतों पर विचार किया है।
पराशरजी का यह ग्रंथ स्वतंत्र था अथवा उनकी ज्योतिष संहिता
का ही वह एक भाग था, इस बारे में मतभेद है।
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