भट्ट लोल्लट
भट्ट लोल्लट (आपराजिति)ये भरतकृत “नाट्यशास्त्र"
के प्रसिद्ध टीकाकार व उत्पत्तिवाद नामक रस-सिद्धांत के
प्रवर्तक हैं। संप्रति इनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता,
पर अभिनवभारती, काव्य-प्रकाश (4-5), काव्यानुशासन,
ध्वन्यालोक-लोचन, मल्लिनाथ की तरला टीका और गोविंद
ठाकुर-कृत "काव्य-प्रदीप" (4-5) में इनके विचार व उद्धरण
प्राप्त होते हैं। राजशेखर व हेमचंद्र के ग्रंथों में इनके कई
श्लोक "आपराजिति" के नाम से प्राप्त होते है। इनसे ज्ञात
होता है कि इनके पिता का नाम अपराजित था। लोल्लट
नाम के आधार पर इनका काश्मीरी होना सिद्ध होता है। ये
उद्भट के परवर्ती थे क्यों कि अभिनवगुप्त ने उद्भट के मत
का खंडन करने के लिये इनके नाम का उल्लेख किया है।
भरत-सूत्र के व्याख्याकारों में इनका नाम प्रथम है। इनके
मतानुसार रस की उत्पत्ति अनुकार्य में( मूल पात्रों में) होती
है. और गौण रूप में अनुसंधान के कारण नट को भी इसका
अनुभव होता है। विभाव, अनुभाव आदि संयोग से अनुकार्य
गम आदि में रस की उत्पत्ति होती है। उनमें भी विभाव
सीता आदि मुख्य रूप से इनके उत्पादन होते हैं। अनुभाव
उस उत्पन्न रस के परिपोषक होते हैं। अतः स्थायी भावों के
साथ विभावों का उत्पाद्य उत्पादक, अनुभावों का गम्य-गमक
और व्याभिचारियों का पोष्य-पोषक संबंध होता है।
"काव्य-मीमांसा'' में भट्ट लोल्लट के तीन श्लोक उद्धृत हैं।
काव्यप्रकाश के प्राचीन व्याख्याकार माणिक्यचन्द्र ने लोल्लट
तथा शंकुक की तुलना में लोल्लट को ही रसशास्त्र का
मार्मिक पंडित माना है। इन्होंने कल्लट की "स्पंदकारिता' पर
"वृत्ति" नामक टीका भी लिखी जिसका उल्लेख अभिनवगुप्त
के परम शिष्य क्षेमराज ने किया है।
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