महाकवि वाल्मीकि,,
महाकवि वाल्मीकि,,
रामायण' नामक विश्वविख्यात महाकाव्य के प्रणेता।
कहा जाता है कि संसार में सर्वप्रथम इन्ही के मुख से काव्य का
आविर्भाव हुआ था। रामायण के बालकांड में यह कथा प्रारंभ में
ही मिलती है कि एक दिन तमसा नदी के किनारे महर्षि भ्रमण
कर रहे थे। तभी एक व्याध आया और उसने वहां विद्यमान
क्रौंच पक्षी के युगुल पर बाण-प्रहार किया। बाण के लगने के क्रौं
मर गया और क्रौंची करुण स्वर में आर्तनाद करने लगी। इस
करुण दृश्य को देखते ही महर्षि के हृदय में करुणा का स्रोत फूट
पड़ाऔर उनके मुख से अकस्मात् अनुष्टुप छंद में शापवाणी फूट
पड़ी। उन्होंने व्याध को शाप देते हुए कहा- ' जाओ, तुम्हें जीवन
में कभी भी शांति न मिले, क्यों कि तुमने काम-मोहित क्रौंच-युग्म
में से एक को मार दिया '। कवि वाल्मीकि का यह कथन सम-
अक्षर युक्त चार पादों के श्लोक में व्यक्त हुआ था।
कहा जाता है कि उक्त श्लोक को सुन कर, स्वयं ब्रह्माजी
वाल्मीकि के समक्ष उपस्थित हुए और बोले- ' महर्षे, आप
आद्यकवि हैं। अब आपकी प्रतिभाचक्षु का उन्मेष हुआ।
है
महाकवि भवभूति ने इस घटना का वर्णन अपने ' उत्तररामचरित
'नामक नाटक में किया है। महाकवि कालिदास ने भी अपने
रघुवंश ' नामक महाकाव्य में इस घटना का वर्णन किया है(14-
70)। ध्वनिकार ने भी अपने ग्रंथ में इस तथ्य की अभिव्यक्ति की है
(ध्वन्यालोक 1-5)।
महर्षि वाल्मीकि ने ' रामायण ' के माध्यम से राजा राम के
लोकविश्रुत, पावन तथा आदर्श चरित्र का वर्णन किया है।
इसमें उन्होंने कल्पना, भाव, शैली एवं चरित्र की उदात्तता का
अनुपम रूप प्रस्तुत किया है। वे नैसर्गिक कवि हैं जिनकी लेखनी
किसी भी विषय का वर्णन करते समय उसका यथातथ्य चित्र
खींच देती है। अपनी अन्य विशेषताओं के कारण, उनके'
रामायण ' को वेदों के समान पूज्य माना जाता रहा है और उसका
उपयोग जन-जागृति-ग्रंथ के रूप में किया जाता रहा है।
वाल्मीकि के संबंध में अनेक प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं।
अध्यात्म रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने रामनाम की महत्ता
प्रतिपादित करते हुए अपनी कथा संक्षेप में इस प्रकार बतायी हैं-
' मैं ब्राह्मण-कुल में पैदा हुआ, किन्तु किरात लोगों में पला और
बढा। मुझे शूद्र पत्नी से अनेक पुत्र हुए। मैं सदा धनुष बाण लेकर
लूट-मार करता था। एक बार मुझे देवर्षि मिले। उन्हें लूटने के
इरादे से मैने उन्हें रोका, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपनी
पत्नी और बच्चों से जाकर यह पूछ आऊं कि क्या वे मेरे पापों में
सहभागी हैं। मैने घर जाकर जब पत्नी और बच्चों से उक्त प्रश्न
किया, तो उन्होंने यह कहकर हाथ झटक दिये कि आपके पापों
से हमारा क्या संबंध। यह सुन कर मुझे बडा पश्चाताप हुआ। में
देवर्षि की शरण में गया, तो उन्होंने मुझे राम-नाम के उलटे अक्षरों
वाला मंत्र ' मरा-मरा ' जपने का परामर्श दिया। मैंने वैसा किया
तो वह मंत्र ' राम-राम ' ही सिद्ध हुआ।मैने एक ही स्थान पर खडे
रह कर वर्षों तक इस मंत्र का जप किया। तब मेरा शरीर चीटियों के
भीटे से ढंक गया था। तपस्या पूर्ण होने पर ऋषि ने वहां आकर मुझे
चीटियों के भीटे (वल्मीक) से बाहर निकलने का आदेश दिया और
कहा कि वल्मीक से निकलने के कारण ' वाल्मीकि के नाम
से मेरा पुनर्जन्म हुआ है।ईसा पूर्व प्रथम शती से ही वाल्मीकि को
रामायण की घटनाओं का समकालीन माना गया है। परित्यक्ता
सीता उन्हीं के आश्रय में प्रसूत हुई और उन्हें लव तथा कुश
नामक दो पुत्र हुए। वाल्मीकि ने स्वरचित रामायण इन पुत्रों को
राम के अश्वमेध-यज्ञ के अवसर पर वाल्मीकि ने ही सीता
के सतीत्व की साक्ष्य प्रस्तुत की। कालान्तर से वाल्मीकि विष्णु के
अवतार माने जाने लगे। वाल्मीकिकृत रामायण न केवल श्रेष्ठ सा
की दृष्टि से ही उनकी अमर कृति है, परन्तु वह भारतीय
संस्कृति का प्रतीकस्वरूप राष्ट्रीय ग्रंथ भी है।
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