बिना कारण कार्य नहीं ,,पंचतंत्र की कहानी
2. बिना कारण कार्य नहीं
हेतुरत्र भविष्यति ।
हर कार्य के कारण की खोज करो,
अकारण कुछ भी नहीं हो सकता।
एक बार मैं चौमासे में एक ब्राह्मण के घर गया था। वहाँ रहते हुए एक दिन मैंने सुना कि ब्राह्मण और ब्राह्मण-पत्नी में यह बातचीत हो रही थी :
ब्राह्मण-कल सुबह कर्क-संक्रान्ति है, भिक्षा के लिए मैं दूसरे गाँव जाऊँगा। वहाँ एक ब्राह्मण सूर्यदेव की तृप्ति के लिए कुछ दान करना चाहता है।
पत्नी-तुझे तो भोजन योग्य अन्न कमाना भी नहीं आता। तेरी पत्नी होकर मैंने कभी सुख नहीं भोगा, मिष्ठान नहीं खाए, वस्त्र और आभूषणों की तो बात ही क्या कहनी।
ब्राह्मण-देवी! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। अपनी इच्छा के अनुरूप धन किसी को नहीं मिलता । पेट भरने योग्य अन्न तो मैं भी ले ही आता हैं। इससे अधिक की तृष्णा का त्याग कर दो। अति तृष्णा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है।
ब्राह्मणी ने पूछा-यह कैसे?
तब ब्राह्मण ने सूअर, शिकारी और गीदड़ की यह कथा सुनाई :
3. अति लोभ नाश का मूल
अतितृष्णा न कर्त्त्या, तृष्णां नेव परित्यजेत्
लोभ तो स्वाभाविक है, किन्तु अतिशय लोभ मनुष्य का सर्वनाश कर देता है।
एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया । जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर उसने अपनी धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींचकर निशाना मारा। निशाना ठीक स्थान पर लगा । सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दीड़ा शिकारी भी तीखे दाँतों वाले सूअर के हमले से गिरकर घायल हो गया। उसका पेट फट गया। शिकारी और शिकार दोनों का अन्त हो गया । इसी बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहाँ आ निकला।वहाँ सूअर और शिकारी, दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा, आज देववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है। कई बार बिना उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल
जाता है। इसे पूर्व जन्मों का फल ही कहना चाहिए।
यह सोचकर वह लाशों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा।
उसे याद आ गया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही कहना चाहिए; इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है। इस तरह अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है। अतः उसका भोग में इस रीति से करँगा कि बहुत दिन तक इनके उपयोग से मेरी प्राण-यात्रा चलती रहे।यह सोचकर उसने निश्चय किया कि पहले धनुष की डोरी को खाएगा।
उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कस कर बँधी हुई थी। गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया। चबाते बेग से टूट गई; और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेद कर ऊपर निकल आया, मानो माथे पर शिखा निकल आई
हो। इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वहीं मर गया।
ब्राह्मण ने कहा-इसीलिए मैं कहता हूँ कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है।
ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा-यदि यही बात है तो मेरे घर में थोड़े-से तिल पड़े हैं। उनका शोधन करके कूट-छाँटकर अतिथि को खिला देती हूँ।
ब्राह्मण उसकी बात से सन्तुष्ट होकर भिक्षा के लिए दूसरे गाँव की ओर चल दिया। ब्राह्मणी ने भी अपने वचनानुसार घर में पड़े तिलों को छाँटना शुरू कर दिया। छाँट-पछाड़कर जब उसने तिलों को सुखाने के लिए धूप
में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तिलों को मूत्र -विष्ठा से खराब कर दिया।
ब्राह्मणी बड़ी चिन्ता में पड़ गई। यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसे अतिथि भोजन देना था। बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोघित तिलों के बदले अशोधित तिल माँगेंगी तो कोई भी दे देगा। इसके उच्छिष्ट
होने का किसी को पता ही नहीं लगेगा-यह सोचकर वह उन छटे हुए तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने लगी और कहने लगी-कोई इन छटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छंटे तिल दे दे। अचानक यह हुआ कि जिस घर में मैं भिक्षा के लिए गया था उसी घर में वह भी तिलों को बेचने पहुँच गई और कहने सगी-बिना छंटे हुए तिलों के स्थान पर छंटे हुए तिलों को ले लो। उस घर की गृह-पत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी तब उसके लड़के ने, जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा :
-मामा! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छटे हुए तिलों को लेकर छंटे हुए तिल दे देगा, वह बात निष्कारण नहीं हो सकती।
अवश्यमेव इन छटे हुए तिलों में कोई दोष होगा। पुत्र के कहने पर माता ने सौदा नहीं किया।
यह कहानी सुनाने के बाद वृहत्स्फिक ने ताम्रचूर्ण से पूछा- क्या तुम्हे उसके आने-जाने का मार्ग मालूम है?
ताम्रचूड़-भगवन्! वह तो मालूम नहीं। वह अकेला नहीं आता,दलबल समेत आता है। उनके साथ ही वह आता है और साथ ही जाता है।
बृहत्फिक-तुम्हारे पास कोई फावड़ा है।
ताम्रचूड़ ने कहा-हाँ, फावड़ा तो है।
दोनों ने दूसरे दिन फावड़ा लेकर हमारे (चूहों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए) बिल तक आने का निश्चय किया। मैं उनकी बातें सुनकर बड़ा चिन्तित हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि वे इस तरह मेरे दुर्ग तक पहुँचकर फावड़े से उसे नष्ट कर देंगे। इसलिए यह सोचकर मैं अपने दुर्ग की ओर न जाकर किसी अन्य स्थान की ओर चल देता हूँ-इस तरह सीधा रास्ता छोड़कर दूसरे रास्ते से जब मैं सदल-बल जा रहा था तो मैंने देखा कि एक मोटा बिल्ला आ रहा है। यह बिल्ला चूहों की मण्डली देखकर उस पर टूट पड़ा। बहुत-से चूहे मारे गए, बहुत से घायल हुए। एक भी चूहा ऐसा न
था जो लहूलुहान न हुआ हो। उन सबने इस विपत्ति का कारण मुझे ही माना। मैं ही उन्हें असली रास्ते के स्थान पर दूसरे रास्ते से ले जा रहा था। बाद में उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। वे सब पुराने दुर्ग में चले गए।
इस बीच बृहत्स्फिक और ताम्रचूड़ भी फावड़ा समेत दुर्ग तक पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर उन्होंने दुर्ग को खोदना शुरू कर दिया। खोदते-खोदते उनके हाथ वह खज़ाना लग गया। जिसकी गर्मी से मैं बन्दर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था। खज़ाना लेकर दोनों ब्राह्मण मन्दिर को लौट गए। मैं जब अपने दुर्ग को गया तो उसे उजड़ा देखकर मेरा दिल बैठ गया।उसकी यह अवस्था देखी नहीं जाती थी। सोचने लगा, क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?कहाँ जाऊँ? मेरे मन को कहाँ शान्ति मिलेगी?
बहुत सोचने के बाद मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मन्दिर में चला गया जहाँ ताम्रचूड़ रहता था। मेरे पैरों की आहट सुनकर ताम्रचूड़ फिर खूँटी पर टंगे भिक्षा-पात्र को फटे बॉँस से पीटना शुरू कर दिया।
बृहत्स्फिक ने उससे पूछा-मित्र! अब भी तू निःशंक होकर नहीं सोता। क्या बात है?
ताम्रचूड़-भगवन्! वह चूहा फिर यहाँ आ गया है। मुझे डर है, मेरे भिक्षा-शेष को वह फिर न कहीं खा जाए।
बृहत्स्फिक-मित्र! अब डरने-की कोई बात नहीं। धन के खज़ाने के छिनने के साथ उसके उछलने का उत्साह भी नष्ट हो गया। सभी जीवों के साथ ऐसा होता है। धन-बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर होता है और दूसरों को पराजित करता है।
यह सुनकर मैंने पूरे बल से छलाँग मारी, किन्तु खूँटी पर टंगे पाव तक न पहुँच सका, ओर मुख के बल ज़मीन पर गिर पड़ा। मेरे गिरने की आवाज़ सुनकर मेरा शत्रु बृहत्स्फिक ताम्रचूड़ से हँसकर बोला-देख ताम्रचूड।
इस चूहे को देख! खज़ाना छिन जाने के बाद यह फिर मामूली चूहा ही रह गया है। इसकी छलौंग में अब वह वेग नहीं रहा, जो पहले था । धन में बड़ा चमत्कार है। धन से ही सब बली होते हैं, पण्डित होते हैं। धन के बिना मनुष्य की अवस्था दन्तहीन साँप की तरह हो जाती है।
धनाभाव से मेरी भी बड़ी दुर्गति हो गई। मेरे ही नौकर मुझे उलाहना देने लगे कि यह चूहा हमारा पेट पालने योग्य तो है नहीं; हाँ हमें बिल्ली को खिलाने योग्य अवश्य है। यह कहकर उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे साथी मेरे शत्रुओं के साथ मिल गए।
मैंने भी एक दिन सोचा कि मैं फिर मन्दिर में जाकर खज़ाना पाने का यत्न करूँगा। इस यल्न में मेरी मृत्यु भी हो जाए तो भी चिन्ता नहीं।
यह सोचकर मैं फिर मन्दिर में गया । मैंने देखा कि ब्राह्मण खजाने की पेटी को सिर के नीचे रखकर सो रहे हैं। मैं पेटी में छिद्र करके जब धन चुराने लगा तो वे जाग गए। लाठी लेकर वे मेरे पीछे दौड़े। एक लाठी मेरे सिर पर लगी। आयु शेष थी इसलिए मृत्यु नहीं हुई, किन्तु घायल बहुत हो गया। सच तो यह है कि जो धन भाग्य में लिखा होता है वह तो मिल ही जाता है। संसार की कोई शक्ति उसे हस्तगत होने में बाधा नहीं डाल सकती। इसलिए मुझे कोई शक नहीं है। जो हमारे हिस्से का है, वह हमारा अवश्य होगा।
इतनी कथा कहने के बाद हिरण्यक ने कहा-इसीलिए मुझे वैराग्य हो गया है और इसीलिए मैं लघुपतनक की पीठ पर चढ़कर यहाँ आ गया हूँ।
मन्थरक ने आश्वासन देते हुए कहा-मित्र! जवानी और धन की चिन्ता न करो। जवानी और धन का उपयोग क्षणिक ही होता है। पहले धन के अर्जन में दुःख है; फिर उसके संरक्षण में दुःख । जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है उससे शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करे तो उसे मोक्ष मिल जाए। विदेश-प्रवास का भी दुःख मत करो। व्यवसायी के लिए कोई स्थान दूर नहीं, विद्वान के लिए कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिए कोई पराया नहीं।
इसके अतिरिक्त धन कमाना तो भाग्य की बात है। भाग्य न हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी अर्थोपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता; जैसे मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था।
हिरण्यक ने पूछा-कैसे?
मन्थरक ने तब सोमिलक की यह कथा सुनाई :
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