संधि प्रकरण,, संधि की परिभाषा तथा भेद
संधि प्रकरण
मनुष्य की प्रवृत्ति प्रत्येक क्षेत्र में सुविधा शीघ्रता और स्वल्प प्रयत्न से काम चलाने की होती है इसीलिए भाषा में भी कहीं.सुविधा की दृष्टि से, कहीं शीघ्रता के कारण, कहीं प्रयत्न की स्वल्पता से आस-पास आने वाले वर्षों में परिवर्तन हो जाता है, उनके स्थान पर एक नया ही वर्ण आ जाता है, किसी एक वर्ण का लोप हो जाता है, कहीं एक नया वर्ण बीच में आ जाता है किसी वर्ण को द्वित्व हो जाता है। ये सभी परिवर्तन बोलचाल में प्रयोग में आने वाली भाषा स्वाभाविक रूप से हो जाते । व्याकरण के नियमों की खोज करने वाले विद्वान् इन परिवर्तनों को एकत्र करके इनका वर्गीकरण और विभाजन करके नियम निश्चित कर लेते हैं। इन नियमों को सन्धि के नियम कहते हैं।🌼संधि की परिभाषा (लक्षण) :- "व्यवधान रहित दो वर्गों के मेल से जो विकार होता है उसे संधि कहते हैं।” अतः दो शब्द या पद जब एक-दूसरे के पास होते हैं, तब उच्चारण की सुविधा के लिए पहले शब्द अन्तिम और दूसरे शब्द के प्रारम्भिक अक्षर एक-दूसरे से मिल जाते हैं, यही मिलावट सन्धि है।
🌻संधि और संयोग में अंतर :- दो व्यंजनों के अत्यंत समीपवर्ती होने पर भी उनका मेल संयोग कहलाता है, संयोग की अवस्था में उन वर्गों के स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता, जबकि सन्धि की अवस्था में उन वर्गों के रूप में परिवर्तन हो जाता है।
👉जैसे संयोग का उदाहरण -
जगत + तलम् =जगत्तलम् ।
तत् + कालः = तत्कालः ।
वाक् + चातुर्यम् = वाक्चातुर्यम्।
इनमें वों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आया है।
👉सन्धि का उदाहरण -
रमा + ईशः = रमेशः।
इति + आदि = इत्यादि।
यहाँ पर वर्गों के स्वरूप में परिवर्तन हो गया है इसलिए यहाँ सन्धि है। यह विकार कभी उनमें से एक में ही होता है, कभी-कभी दोनों में हो जाता है। कभी दोनों वर्ण मिलकर किसी नये वर्ण को जन्म दे देते हैं।
💫 जैसे :- इति + उवाच = इत्युवाच । यहाँ केवल 'ई' को 'य' हो गया है।
💫तत् + श्रुत्वा = तच्छुत्वा । यहाँ 'त्' को 'च' तथा 'श' को 'छ' हो गया है।
💫 नर + इन्द्रः = नरेन्द्रः यहाँ 'अ' तथा 'इ' के स्थान पर एक नया वर्ण 'ए' हो गया है।
यह आवश्यक नहीं कि सभी जगह संधि की जाये। कहीं-कहीं प्रयोग करने वाले की इच्छा पर निर्भर है कि वह संधि करे अथवा न करे। संधि कहाँ अनिवार्य है तथा कहाँ इच्छा पर निर्भर है इसके लिए भी संस्कृत में कुछ नियम निर्धारित किए गये हैं। उनमें कुछ विशेष नियम निम्नलिखित हैं।
1. एक पद में संधि करना आवश्यक है । जैसे :- ‘देवाः' शब्द देव + अस्' से बना है । इस जगह दीर्घ संधि करना आवश्यक है। देव + देव अस् प्रयोग करना अशुद्ध होगा ।
2. धातु और उपसर्ग के योग में संधि आवश्यक है । जैसे :- वि + अचिन्त्यत्= व्यचिन्तयत्। यहाँ पर 'वि' उपसर्ग के बाद अचिन्तयत् धातु से बना रूप है, इसलिए यहाँ पर वि अचिन्तयत् प्रयोग करना अशुद्ध है।
3. समास में संधि आवश्यक है । जैसे :- नराणां + इन्द्रः
:- नराणां + इन्द्रः = नरेन्द्रः । यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास है अतः यहाँ पर नर + इन्द्रः में गुण संधि करके नरेन्द्रः प्रयोग करना ही उचित है 'नरइन्द्रः' प्रयोग करना ठीक नहीं है ।
4. किसी वाक्य में आए हुए पदों की संधि करना आवश्यक नहीं है, वहाँ पर प्रयोग करने वाले की इच्छा पर निर्भर है कि वह संधि करे अथवा न करे। जैसे :- मम अयं पुत्रः वर्तते । इस वाक्य को इसी रूप में रखा जा सकता है। अथवा ‘ममायं पुत्रों वर्तते' इस प्रकार संधि करके भी इस वाक्य का प्रयोग किया जा सकता है। यहाँ संधि करना आवश्यक नहीं है ।
👉संधियों के भेद
संधि तीन प्रकार की होती हैं :
1. स्वर संधि (अच् संधि)
2. व्यंजन संधि (हल् संधि)
3. विसर्ग संधि ।
Tanu Bala 1901hi079
ReplyDeleteSunali panjaria roll no 1901hi050
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ReplyDeletePriyanka
roll number 1901hi059
Pooja Devi
ReplyDelete1901HI029
simran devi
ReplyDelete1901hi077
major Hindi
2nd year
Tamanna 1901hi068
ReplyDeleteShaweta choudhary
ReplyDelete1901hi038
Manisha 1901hi010
ReplyDeletePooja 1801en036
ReplyDeleteShikha manhas1901hi072
DeleteShruti Pathania
ReplyDelete1901hi014
Sakshi1901hi005
ReplyDeleteShweta kumari 1901hi011
ReplyDeleteShaveta kaler 1901hi058
ReplyDeleteAnu bala 1801hi058
ReplyDeleteManisha 1901hi054
ReplyDeleteAmisha 1901HI001
ReplyDeleteSonia Dadwal
ReplyDelete1901HI012