गणपतिशास्त्री द्वारा प्रकाशित तेरह नाटकों के भासकृत माने जाने हेतु युक्तियाँ

 🌻गणपतिशास्त्री द्वारा प्रकाशित तेरह नाटकों के भासकृत माने जाने हेतु युक्तियाँ 🌻

सन् 1913 से पूर्व भास के नाटकों का यत्र-तत्र उल्लेख उपलब्ध होता था। परन्तु 1913 में महामहोपाध्याय गणपति शास्त्री को केरल राज्य के त्रावणकोर के एक पुस्तकालय में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में तेरह नाटक उपलब्ध हुए। उन्हें सम्पादित करके शास्त्रीमहोदय ने उन्हें भास के नाम से प्रकाशित किया। उन्होंने तथा अन्य विद्वानों ने इन सभी नाटकों को महाकवि भासकृत क्यों माना है इसके लिए निम्न तर्क दिये जाते हैं

1. सूत्रधार से आरम्भ-संस्कृत के नाटक प्राय: नान्दीपाठ से आरम्भ होते हैं, उसके पश्चात् रंगमंच पर सूत्रधार का प्रवेश होता है परन्तु ये सभी नाटक सूत्रधार के प्रथमप्रवेश से आरम्भ होते हैं। अतः इनका एक कर्तृक होना माना जाता है।

2. प्रस्तावना के स्थान पर स्थापनाप्रयोग-संस्कृत नाटकों के प्रथमांक का आरम्भिक भाग प्रस्तावना कहलाता है। परन्तु इन सभी नाटकों में प्रस्तावना के स्थान पर स्थापना शब्द का प्रयोग हुआ है जो इनके एक कर्तृत्व को सिद्ध करता है।

3. प्ररोचना का अभाव-संस्कृत के नाटककार भूमिका भाग में अपना संक्षिप्त परिचय दे देते हैं जिसे प्ररोचना कहा जाता है। परन्तु इन सभी तेरह नाटकों में प्ररोचना का अभाव है; जो इनके एक कर्तृत्व को प्रकट करता है।

4. भरतवाक्य की समानता-गणपतिशास्त्री द्वारा सम्पादित इन नाटकों में से अधिकांश में समान ही भरतवाक्य"इमामपि महीं कृत्सनां राजसिंह प्रशास्तु नः।" इत्यादि रूप में उपलब्ध होता है।

5. शास्त्री महोदय द्वारा प्रकाशित इन नाटकों में से चार नाटकों के आरम्भ में मुद्रालंकार का प्रयोग हुआ है। मुद्रालंकार में मंगलाचरण के साथ-साथ श्लेष के माध्यम से नाटक के प्रमुख पात्रों का नामोल्लेख भी कर दिया जाता

🌻 बाणभट्ट द्वारा समर्थन-उपर्युक्त सभी विशेषताओं का वर्णन महाकवि बाणभट्ट ने भास के नाटकों के सन्दर्भ में किया है। यथा

सूत्रधार कृतारम्भैः नाटकैः बहुभूमिकैः।।                           सपताकैः यशो लेभे भासो देवकुलैरिव॥                               इसके अतिरिक्त निम्न साम्य भी इन नाटकों में देखे जाते हैं(i) शब्दप्रयोगसाम्य-स्वप्नवासवदत्तम् तथा अभिषेक नाटक में निम्न वाक्य समान रूप से मिलता है-

"कःइह भोः काञ्चन तोरणद्वारमशून्यं कुरुते।"                       अतः इनका एक कर्तृक होना स्वाभाविक ही है। 

(ii) प्रतिज्ञायौगन्धरायण एवं स्वप्नवासवदत्तम् की कथावस्तु एक दूसरे की पूरक है तथा प्रतिमा एवं अभिषेक नाटक एक दूसरे के पूरक कथानक पर आधारित हैं; अतः इनका एक कर्तृक होना सिद्ध होता है। (ii) अधिकांश नाटकों में प्रतिहारी का नाम विजया ही निर्दिष्ट है। (iv) पुत्रों के नाम निर्देश में समानता-भास पुत्रों के नाम के साथ माता के नाम का भी निर्देश करते हैं। यथा  कौशल्यामातः(राम), सुमित्रामातः (लक्ष्मण) तथा कैकेयीमातः (भरत)

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