नाटककार भवभूति का व्यक्तित्व एवं कृतित्व . व्यक्तित्व-

  नाटककार भवभूति का व्यक्तित्व एवं कृतित्व . व्यक्तित्व-

संस्कृत के कविप्रायः आत्मदर्शन से कोसों दूर रहते हैं तथापि हर्ष का विषय है कि नाटककार भवभूति ने अपने तीनों नाटकों की प्रस्तावना में अपना परिचय दिया है। उनके नाटक 'महावीरचरित' की प्रस्तावना के अनुसार वे विदर्भ बरार के पद्मपुर के निवासी थे। इसी नगर के उदुम्बरवेशी ब्राह्मणों के परिवार में इनका जन्म हुआ था।उदुम्बरब्राह्मण वैदिक परम्परा के अनुयायी और सोमपा यानि सोमरस का पान करने वाले थे। भवभूति के पीछे पांचवे पूर्वज का नाम महाकवि था। इनके दादा का नाम भट्टगोपाल तथा पिता का नाम नीलकण्ठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने ज्ञाननिधि नामक विद्वान् गुरू से शिक्षा ग्रहण की थी। यथा

(i) अस्ति दक्षिणपथे पद्मपुरं नाम नगरम्। तत्र केचित्तैत्तिरीयाः कश्यपाश्चरणगुरवः पंक्तिपावना धृतव्रता सोमपायिनः उदुम्बरनामानो ब्रह्मवादिनः प्रतिवसन्ति। यदमुष्यायणस्य तत्र भवतो वाजपेययाजिने महाकवेः पञ्चमः सुगृहीनाम्नो भट्टगोपालस्य पौत्रः, पवित्रकीर्तेर्नीलकण्ठस्यात्मसम्भवः श्रीकण्ठपदलाञ्छनः पदवाक्यप्रमाणज्ञो भवभूति म जातूकर्णीपुत्रः" [महावीरचरित, प्रस्तावना] (ii) श्रेष्ठः परमहंसानां महर्षीणां यथाङ्गिराः। यथार्थनामा भगवान् यस्य ज्ञाननिधिर्गुरुः।।(महावीरचरित 1-5) 

उपर्युक्त वर्णन में आये "पदवाक्य-प्रमाणज्ञः" पद से स्पष्ट है कि भवभूति व्याकरण, न्याय व मीमांसा आदि शास्त्रों के ज्ञाता थे। भवभूति जी का आरम्भिक नाम "श्रीकण्ठ" था पश्चात् “गिरिजायाः कुचौ वन्दे-भवभूतिसिताननौ।" तथा साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः" 

इन पद्यों के आधार पर उनका नाम भवभूति विख्यात हुआ। वीरराघव ने इनके भवभूति नाम की व्याख्या करते हुए कहा है कि इन्हें भव अर्थात् शंकर ने इनके भवभूति नाम की व्याख्या करते हुए कहा है कि इन्हें भव अर्थात् शंकर ने स्वयं भिक्षुरूप में आकर भूति = ऐश्वर्यप्रदान किया था। इसलिए ये भवभूति कहलाये तथापि कतिपय विद्वान् इनका वास्तविक नाम श्रीकण्ठ ही मानते हैं तथा भवभूति को इनकी उपाधि मानते हैं। वाणी पर भवभूति जी का अद्भुत अधिकार था। यह उनकी अनुचरी की भान्ति उनके भावों का अनुकरण करती थे। उन्होंने स्वयं उत्तररामचरित में लिखा भी है कि-

मार यं ब्रह्माणमियं देवी वाग् वश्येवानुवर्तते । (उत्तररामचरितम् 1-2)-

अध्ययन करने पर भी उनका हृदयशुष्क नहीं अपितु सरस था। वे भावुक और रससिद्ध कवि थे।

भवभूति को अपनी विद्वता पर गर्व था। अपने नाटकों में उन्होंने यत्र-तत्र ऐसे भाव व्यक्त किये हैं। परन्तु उनको अपने जीवन काल में उतना सम्मान न मिल सका जितना वे चाहते थे तथापि उन्हें आशा थी कि समय आने पर लोग उनकी विद्वता की गम्भीरता को अवश्य समझेंगे। परन्तु ऐसी स्थिति उनकी आरम्भिक अवस्था में रही होगी। क्योंकि उत्तररामचरित की रचना के बाद तो उन्हें अपूर्वख्याति प्राप्त हो गयी थी। उनके सारे नाटक कालप्रियनाथ की यात्रा के समारोहों के अवसर पर खेले गये थे। विद्वान् कालप्रियनाथ से उज्जैन के महाकालेश्वर का ग्रहण करते हैं। प्रौढावस्था में ये कन्नौज के राजा यशोवर्मा के आश्रय में रहे। ये स्वभाव से गम्भीर व्यक्ति थे।

🏵️. स्थितिकाल-संस्कृतनाटक साहित्य में भवभूति अतीव समादृत नाटक का हैं। नाटककारों में महाकविकालिदास के पश्चात् इनका ही स्थान आता है। इनका स्थितिकाल आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। यद्यपि उन्होंने स्वयं अपने स्थितिकाल के विषय में कुछ नहीं लिखा है तथापि निम्न साक्ष्य इसका समर्थन करते हैं:1. वामन जिनका काल 800 ई० माना जाता है उन्होंने भवभूति के उत्तररामचरित से निम्न पद्य उद्धृत किया हैइयं गेहे लक्ष्मीरियममृत-वर्तिनयनयोः।" ( उत्तर 01-38) अतः स्पष्ट है कि भवभूति 800 ई० से पूर्ववर्ती थे। 2. कल्हणकृत राजतरंगिणी जो 12 वीं सदी में लिखी गयी थी में लिखा है कि भवभूति कन्नौज के राजा यशोवर्मा के सभाकवि थे। 

यथाकविर्वाक्पति राजश्री भवभूत्यादिसेवितः ।                       जितो ययौ यशोवर्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम्"(राजतरंगिणी 4-144)     डॉ० स्टीन के अनुसार कश्मीर के राजा ललितादित्य ने कन्नौज (उत्तर प्रदेश) के राजा यशोवर्मा को 736 ई० के आस-पास हराया था। इससे भी स्पष्ट है कि भवभूति आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के आसपास ही धराधाम पर रहे होंगे। 3. 900 ई० में प्रादुर्भूत हुए राजशेखर ने अपनी रचना वालरामायण में स्वयं को भवभूति का अवतार माना है।यथा

बभूव वल्मीकभवः कविः पुरा ततः प्रपेदे भुवि भर्तृमेण्ठताम् ।    स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया, स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः (बालरामायण 1-16) 

स्पष्ट है कि 900 ई० तक भवभूति कवियों में अतीव लोकप्रिय हो चुके थे। उधर हर्षवर्धन के सभाकवि बाणभट्ट ने भासकालिदास आदि का नाम तो अपने हर्षचरित में लिया है परन्तु भवभूति का उल्लेख नहीं किया है जिससे विदित होता है कि सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भवभूति पैदा नहीं हुए थे।अतः स्पष्ट है कि भवभूति का स्थितिकाल आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध ही रहा होगा।

🌻 रचनाएँ-भवभूति की तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं और ये तीनों ही नाटक हैं-1. मालतीमाधव 2. महावीरचरित 3. उत्तररामचरित । इनमें से कौन सी रचना पहले लिखी और कौन बाद में इस क्रम के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है तथापि सभी आलोचक विद्वान् उत्तररामचरित को इनकी अन्तिम रचना मानते हैं। मालवीमाधव और महावीरचरित के पूर्वापरभाव का निर्णय नहीं हो पाया है। इन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:

(i) मालतीमाधव-इन नाटक में मालती एवं माधव के प्रेम विवाह की काल्पनिक कथा वर्णित है। मालवी नाटक की नायिका तथा माधव नायक है। इसमें 10 अंक हैं तथा रूपक के दस भेदों में से यह प्रकरण नामक विधा के अन्तर्गत आता है। इस नाटक की संक्षिप्त कथा वस्तु इस प्रकार है-भूरिवसु और देवरात क्रमश: पद्मावती और विदर्भ के राजमन्त्री थे। उन्होंने परस्पर यह प्रण किया था कि वे अपने पुत्र-पुत्रियों का परस्पर विवाह करेंगे अर्थात् यदि भूरिवसु के पुत्र होता है और देवरात के पुत्री तो देवरात अपनी पुत्री का विवाह भूरिवसु के पुत्र से करेगा यदि इसके विपरीत होता है तो भूरिवसु अपनी पुत्री का विवाह देवरात के पुत्र से करेगा। समय आने पर देवरात के पुत्र और भूरिवसु के पुत्री हुई। भूरिवसु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपनी पुत्री मालती का विवाह देवरात के पुत्र माधव से करना चाहते थे, परन्तु राजा का साला नन्दन से विवाह करने के लिए लालायित था। राजा का समर्थन भी उसे प्राप्त था। माधव का एक मित्र मकरन्द है तथा मालती की सखी नन्दन की बहन मदयन्तिका है। ये दोनों भी एक दूसरे को प्रेम करते हैं। मालती और माधव एक शिव मन्दिर में मिलते हैं। उधर मदयन्तिका को मकरन्द एक सिंह से बचाता है। मकरन्द की वीरता देखकर मदयन्तिका माधव के मित्र मकरन्द के प्रति आकृष्ट हो जाती है। उधर राजा मालती का विवाह नन्दन से करवाने के लिए तैयार हैं। माधव मालती को पाने के लिए श्मशान पर तन्त्र-सिद्धि कर रहा है। वहाँ उसे एक स्त्री की चीख सुनायी पड़ती है। वह चीख का अनुसरण करता है तो देखता है कि एक तान्त्रिक अघोरघण्ट और उसकी शिष्या कपालकुण्डला मालती की चामुण्डा के लिए बलि देने का प्रयास कर रहे हैं। माधव अघोरघण्ट की हत्या करके मालती को बचा लेता है। तभी मालती को ढूँढते हुए राजा के सैनिक श्मशान पर पहुँचते हैं और मालती को अपने साथ ले जाते हैं। मालती और नन्दन के विवाह की तैयारी की जाती है। परन्तु भूरिवसु की हितैषिणी तापसी कामन्दकी चतुराई से नन्दन का विवाह मकरन्द से हो जाता है। साथ ही कामन्दकी मालती और माधव का विवाह शिवमन्दिर में सम्पन्न करवा देती है। उधर प्रथम मिलन यानि सुहागरात के अवसर पर मकरन्द नन्दन को पीट देता है। मार खाकर नन्दन अपने कक्ष से चला जाता है। भाई की पिटाई की बात सुनकर नन्दन की बहन अपनी भाभी को समझाने उसके कक्ष में जाती है परन्तु वहां अपने प्रेमी मकरन्द को पाकर वह उसके साथ भाग जाती है परन्तु सैनिक मकरन्द को पकड़ लेते हैं। यह सुनकर माधव मालती को छोड़कर अपने मित्र मकरन्द की सहायता के लिए चल पड़ता है। मौके का लाभ उठाकर अघोरघण्ठ की शिष्या कपालकुण्डला अपने गुरु की हत्या का बदला लेने के लिए मालती का अपहरण करके उसे श्रीपर्वत पर ले जाती है। दूसरी ओर सैनिकों के साथ मकरन्द तथा माधव का भयानक युद्ध होता है। उनकी वीरता देखकर राजा उन्हें छोड़ देता है। अब माधव मकरन्द के साथ मालती की खोज में विन्ध्य पर्वत की ओर निकल जाता है। मार्ग में कामन्दकी की शिष्या सौदामिनी बतलाती है कि मालती मेरी कुटिया में सुरक्षित है। मालती के मिलने की सूचना मकरन्द भूरिवसु और मदयन्तिका को देता है। मालती-माधव के मिलन के पश्चात् मकरन्द और मदयन्तिका का विवाह सम्पन्न हो जाता है।

🌼(ii) महावीरचरित-महावीरचरित रामायण पर आधारित नाटक है। महावीर से अभिप्रायः इसके नायक श्री रामचन्द्र जी से है। इसमें रामचन्द्र जी के राज्याभिषेक तक की घटनाओं का वर्णन है। यह सात अङ्कों का नाटक है। कवि ने रामायण की मूल कथा के विपरीत कई नवीन कल्पनाएँ इसमें की हैं। नाटक के आरम्भ में ही रावण को सीता से विवाह करने का इच्छुक दर्शाया गया है। जिससे नाटक संघर्षपूर्ण घटनाओं की ओर अग्रसरित होता है। सीता स्वयंवर में रामचन्द्र जी धनुष तोड़कर सीता से विवाह कर लेते हैं। इससे रावण के मन में अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता है। तभी रावण का मन्त्री कूटनीतिक चाल से परशुराम को राम के विरुद्ध उत्तेजित कर देता है, जब यह युक्ति सफल नहीं होती है तब शूर्पणखा को मन्थरा के वेश भेजकर राम को वनवास दिलवाने का षड्यन्त्र रचता है। वन में निवास के समय माल्यवान् ही अपनी कूटनीति से सीता का हरण करवाता है और बाली को भी राम के विरुद्ध भड़काता है। उत्तेजित्त होकर बाली राम से युद्ध करने आता है और मारा जाता है। अन्त में राम सुग्रीव के सहयोग से लङ्का पर चढाई करते हैं और रावणवध करके पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आते हैं। वहाँ सहर्ष राज्याभिषेक किया जाता है।

🌼(iii) उत्तररामचरित-उत्तररामचरित भवभूति का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। यह सात अंकों का नाटक है तथा इसमें श्रीरामचन्द्र जी के उत्तरचरित अर्थात् रावणवध के पश्चात् अयोध्या आने के बाद की घटनाओं का इसमें वर्णन है।

प्रथमांक में राम को दुर्मुख नामक दूत से सीतापवाद विषयक सूचना मिलती है। राम प्रजारंजन हेतु सीता का त्याग कर देते हैं और लक्ष्मण उसे वन में छोड़ कर आते हैं। सीता को वन भेजने की भूमिका भी बड़े कवि कौशल के साथ संयोजित की गयी है। वनवास कालीन चित्रों को देखकर सीता जी स्वयं गंगा जी के दर्शन करने की इच्छा अभिव्यक्त करती हैं उसे ही आधार बनाकर राम सीता को वन भेज देते हैं ताकि प्रजाओं में प्रचलित उसके चरित्र विषयक अपवाद का अन्त हो जाये।

द्वितीय अङ्क का आरम्भ 12 वर्ष की अवधि के पश्चात् होता है। आत्रेयी नामक तापसी तथा वासन्ती नामक वनदेवी के वार्तालाप से विदित होता है कि श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किया है यह भी सूचना मिलती है कि महर्षि वाल्मीकि किसी देवता के द्वारा समर्पित दो प्रखर बुद्धि बालकों का पालन करते हैं। उधर श्रीराम दण्डकारण्य प्रवेश करके नीच तपस्वी का वध करते हैं ताकि वह दैवी शक्तियाँ प्राप्त करके उनका दुरुपयोग न करे।

तृतीय अङ्क में तमसा एवं मुरला नामक दो नदियों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि परित्यक्त होने के अनन्तर दुःखी होकर सीता प्राणत्याग के लिए गंगाजी में कूद पड़ी और वहीं उन्होंने लव एवं कुश को जन्म दिया। गंगा जी ने ही उन बच्चों को महर्षि वाल्मीकि को सौंपा है। आज उनकी बारहवीं वर्षगाँठ है इसलिए भगवती भागीरथी ने सीता जी को आज्ञा दी है कि वह अपने कुल के उपास्य देव भगवान सूर्य की उपासना करे। उन्हें भागीरथी का वरदान है कि पृथ्वी पर उसे मनुष्य तो क्या देवता भी देख नहीं सकते। गङ्गा जी को यह बात पता है कि अगस्त्याश्रम से लौटते समय राम पञ्चवटी अवश्य आयेंगे। डर यह है कि कहीं पूर्वानुभूत दृश्यों को देखकर वे विक्षिप्त न हो जायें। इसलिए उन्होंने सीता जी को राम का दर्शन कराने की योजना बनायी है तथा उनकी देखरेख के लिए तमसा को साथ भेजा है। तत्पश्चात् वहाँ भगवान् राम का प्रवेश होता है। वे पञ्चवटी में वनदेवी के साथ पूर्वानुभूत विषयों को देखकर सीता जी की स्मृति में अतीव व्याकुल हो जाते हैं। अदृश्य सीता उन्हें स्पर्श करके प्रबुद्ध करती है इसीलिए इस अंक का नाम "छाया" रखा गया है क्योंकि यहां सीता अदृश्य रूप में भूमिका निभाती है।

चतुर्थ अंक में वाल्मीकि आश्रम में जनक, कौशल्या, वसिष्ठ आदिका आगमन होता है। कौशल्या और जनक का मिलन होता है। वही ये लोग एक क्षत्रिय बालक (लव) को देखते हैं। अन्य ब्रह्मचारियों से रामचन्द्र के यज्ञीय अश्व की सूचना सुनकर लव वहाँ से भाग जाता है। पाँचवें अंक में यज्ञीय अश्व के रक्षक लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु से लव का विवाद हो जाता है और वे युद्ध के लिए तत्पर हो जाते हैं।

षष्ठ अंक में एक विद्याधर-युगल के द्वारा चन्द्रकेतु और लव के युद्ध का वर्णन सुनने को मिलता है। इसी बीच रामचन्द्र जी के आने से युद्ध रुक जाता है। उधर कुश भी सूचना पाकर वहाँ पहुँच जाता है। राम के हृदय में अनायास ही उनके प्रति प्रेम उमड़ पड़ता है। परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं हो पाता कि ये उन्हीं के पुत्र

सप्तम अंक में वाल्मीकि जी की योजना से सीता और राम का मिलन होता है तथा यह भी पता चल जाता है कि लव और कुश उन्हीं के पुत्र हैं।

इस नाटक में भवभूति जी ने मूल रामायण की कई घटनाओं में परिवर्तन करके कई नयी उद्भावनाएँ की हैं। मूलतः कथा का स्रोत रामायण ही है। मुख्य परिवर्तन निम्न है

1. वाल्मीकि रामायण के अन्त में सीता पृथ्वी में समा जाती है जबकि उत्तररामचरित में राम से उनका सुखद मिलन होता है।

 2. प्रथम अंक में वनवासकालीन चित्रों की चित्रवीथी की कल्पना नवीन है। मूल रामायण में इसका उल्लेख नहीं है।

 3. तृतीय अंक की छाया सीता की कल्पना भवभूति की निजी उद्भावना है। इस प्रकार कई मौलिक कल्पनाएँ करके भवभूति ने इस नाटक को अतीव रोचक बनाया है। इस नाटक का मुख्य रस करुणरस है। रीतियों में इन्हें गौडी रीति का सम्राट माना जाता हैं।

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