ज्ञानयोग

 "ज्ञानयोग"

भगवद्गीता में शानयोग शब्द का प्रयोग हुआ है परंतु जिस प्रकार कर्मयोग और भक्तियोग नामक स्वतंत्र अध्याय यहाँ हैं, वैसा ज्ञानयोग नामक स्वतंत्र अध्याय नहीं है। ज्ञानयोग का संबंध वेदों के ज्ञानकाण्ड से जोड़ा श सकता है। जानकाण्डी विद्वानों का प्रमुख सिद्धान्त है,

"ज्ञानोदेव तु कैवल्यम्" एवं "तत्त्वज्ञानाधिगमात् निःश्रेयाधिगमः।।"

अर्थात् कैवल्य या निःश्रेयस की प्राप्ति ज्ञान से (तत्वज्ञान से) ही होती है। तत्वज्ञान शब्द का अर्थ है - वस्तु का जो यथार्थरूप हो, उसका उसी प्रकार से अनुभव करना। ज्ञानयोग (या ज्ञानमार्ग) में इस समस्त विश्व के आदि कारण के, यथार्थ ज्ञान (अर्थात् अनुभवात्मक ज्ञान) को ही निःश्रेयस् का एकमात्र साधन माना जाता है। साथ ही "सोहे" (वह विष काआदिकारण ही मैं (याने इस पंचकोशात्मक शरीर में प्रस्फुरित होने वाला चैतन्य) ई). इस अनुभूति की आवश्यकता होती है।इस प्रकार का ज्ञान अध्यात्मविषयक उपनिषदादि ग्रंथों तथा दार्शनिक ग्रंथो के श्रवण, मनन और निदिध्यासन की साधना से जिज्ञासु के हृदय में, ईश्वरकृपा से या गुरुकृपा से उत्पन्न होता है। शनयोग में "अधिकार" प्राप्त करने के लिए नित्यानित्य-वस्तु-विवेक,इहामुत्रफलभोगविराग, यमनियामदि-व्रतपालन और तीन मुमुक्षा इन चार गुणे की नितान्त आवश्यकता मानी गयी है। इसी कारण संन्यासी अवस्था में ज्ञानयोग की साधना श्रेयस्कर मानी गयी है। (चित्तशुद्धि परक) कर्मयोग और (भगवतकृपा परक) भक्तियोग द्वारा, ज्ञानयोग में कुशलता प्राप्त होती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का भी अभ्यास (तत्त्वानुभूति परक) ज्ञानयोग में प्रगति पाने के लिए आवश्यक होता है। यह प्रगति सात भूमिकाओं या अवस्थाओं में यथाक्रम होती है। 

भूमिकाएं 1-1) शुभेच्छा : आत्मकल्याण के हेतु कुछ करने की उत्कट इच्छा होना।

2) विचारणा : सग्रंथों के श्रवण और चिन्तन से चित्त की चंचलता क्षीण होना।

3) तनुमानसा : संप्रज्ञात समाधि के दृढ अभ्यास से, अनाहतनाद, दिव्य प्रकाश दर्शन जैसे अनुभव का सात्त्विक आनंद मिलना।

4) सत्त्वापत्ति । लौकिक व्यवहार करते हुए भी अखण्डित आत्मानुसन्धान रहना।

5) असंसक्ति : इस भूमिका में स्थित साधक को "ब्रह्मविदर” कहते हैं। यह नित्य समाधिस्थ रहता है। केवल प्रारब्ध कर्म का क्षय होने के लिये ही यह देहधारण करता है। किसी भी प्रकार की आपत्ति से यह विचलित नहीं होता।

6) पदार्थभावना : नित्य आनन्दमय अवस्था में रहना। श्रीमद्भागवत में वर्णित जडभरत को यही अवस्था थी।

7) तुर्यगा "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" इस वचन के अनुसार “अहं ब्रह्मास्मि" यह अंतिम अद्वैतानुभूति की अवस्था ।ज्ञानयोग का यही अंतिम उदिष्ट है।


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