महाकविकालिदास द्वारा प्रकृति का मानवीकरण
🌼महाकविकालिदास द्वारा प्रकृति का मानवीकरण🌼
मनुष्य का प्रकृति के साथ अटूट सम्बन्थ है। ज्योहि मनुष्य इस लोक में जन्म लेता है; उसी समय उसे प्रकृति का बैभव दृष्टिगोचर हो जाता है। उसके चारों ओर जो पेड़ पौधे हैं, जल जीव-जन्तु, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द और तारे,खेत हैं, वे सभी प्रकृति के घटक ही तो हैं मनुष्य को जीवन का सर्वोत्तम उपहार जिसके विना वह एक क्षण भी इस लोक में जीवित न रह पाता वह वायु प्रकृति की ही तो देन है अत: स्पष्ट है कि प्रकृति से मनुष्य का चिरन्तन सम्बन्ध है।
अब यह मानव जीवन प्रकृतिमय ही है; तो सहृदय कवि प्रकृति का वर्णन किए विना कैसे रह सकते हैं ? प्रकृति ही तो काव्य रचना की प्रेरणा देती है। प्रकृति को त्याग कर कवि कर्म यानि काव्यरचना सम्भव नहीं है। इसीलिए काव्यशास्त्रीयों ने महाकाव्य के लक्षण में नदी-पर्वतादि के वर्णन यानि प्रकृति के वर्णन को अनिवार्य बताया है।
संस्कृत के अनेक कवियों ने 'प्रकृति की प्रशंसा में काव्य रचे हैं वेदज्ञान का प्रकाश प्रकृति की गोद में रहने वाले आश्रम-वासी ऋषियों के चित्त में ही हुआ था आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के मन में जीव-हिंसा के विरोध में ही
तौकिक संस्कृत का प्रथम पद्य फूटा था।
महाकवि कालिदास को भी ईश्वर कृपा से कविहदय प्राप्त था इसलिए उन्होंने भी अपनी प्रथम रचना की विषय वस्तु प्रकृति को चुनते हुए "ऋतु संहार" नाम काव्य की रचना कर डाली। वे प्रकृति के वर्णन के प्रवीण पुरोहित हैं उन्होंने प्रकृति का आलम्बन, उद्दीपन एवं मानवीकरण आदि कई रूपों में वर्णन किया है।
प्रकृति के मानवीकरण का अर्थ होता है प्रकृति पर मानव के रूप का आरोप करना। ऐसे वर्णनों में महाकवि कालिदास बड़े सिद्धहस्त हैं।
महाकविकालिदास द्वारा प्रकृति के मानवीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण उनका मेघदूत खण्ड काव्य है जिसमें यक्ष मेघ को अपना मित्र मानकर उसके माध्यम से अपना सन्देश अपनी प्रेमिका तक भेजता है।
महाकवि कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक में प्रकृति के मानवीकरण का एक विचित्र उदाहरण प्राप्त होता है। जहाँ शकुन्तला के पतिगृह गमनकाल पर हरिण शकुन्तला के विछोह में मुँह में डाले घास को उगल देते हैं मोर नाचना बन्द कर देते हैं तथा लताएँ पत्ते गिराने के बहाने मानों आँसू बहा रही हों। यथा-
उद्गीर्ण दर्भकवला मृगी परित्यक्तनर्तना मयूरी।
अपसृत पाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रूणीव लताः।।
यहाँ पशु-पक्षी एवं लताएँ भी मानवों की तरह विदायी से विचलित हैं।
महाकवि कालिदास केवल प्रकृति के मानवीकरण के ही पुरोधा नहीं थे अपितु मानव के प्रकृतिकरण के भी वे कुशल कारीगर थे। जैसे-
अधर किसलय रागः कोमलविटपानुकारिणी बाहू।
कुसुममिव लोभनीयं यौवनमंगेषु सन्नद्धम् ।।
यहाँ होठों पर किसलय की लालिमा तथा भुजाओं पर शाखाओं का और यौवन पर फूलों के रूप का आरोप करके मानव का प्रकृतिकरण किया गया है।
'अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के प्रथम अंक में ही कवि ने वकुल के वृक्ष के पल्लवों पर अंगुलियों का आरोप करके उसका मानवीकरण किया है यथा-शकुन्तला-एषः वातेरित-पल्लवांगुलाभिस्त्वरयतीव मां बकुल-वृक्षः ।
यहाँ शकुन्तला अपनी सखी से कहती है कि वकुल का वृक्ष वायु से हिलायी गयी अपनी पल्लवरूपी अंगुलियों से मानों मुझे सिंचाई करने के लिए बुला रहा हो।
प्रथमांक में ही एक स्थान पर प्रियंवदा शकन्तला पर लता के रूप का आरोप करती हुई कहती है कि-हला शकुन्तले!
संस्कृत के अनेक कवियों ने 'प्रकृति की प्रशंसा में काव्य रचे हैं वेदज्ञान का प्रकाश प्रकृति की गोद में रहने वाले आश्रम-वासी ऋषियों के चित्त में ही हुआ था आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के मन में जीव-हिंसा के विरोध में ही
तौकिक संस्कृत का प्रथम पद्य फूटा था।
महाकवि कालिदास को भी ईश्वर कृपा से कविहदय प्राप्त था इसलिए उन्होंने भी अपनी प्रथम रचना की विषय वस्तु प्रकृति को चुनते हुए "ऋतु संहार" नाम काव्य की रचना कर डाली। वे प्रकृति के वर्णन के प्रवीण पुरोहित हैं उन्होंने प्रकृति का आलम्बन, उद्दीपन एवं मानवीकरण आदि कई रूपों में वर्णन किया है।
प्रकृति के मानवीकरण का अर्थ होता है प्रकृति पर मानव के रूप का आरोप करना। ऐसे वर्णनों में महाकवि कालिदास बड़े सिद्धहस्त हैं।
महाकविकालिदास द्वारा प्रकृति के मानवीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण उनका मेघदूत खण्ड काव्य है जिसमें यक्ष मेघ को अपना मित्र मानकर उसके माध्यम से अपना सन्देश अपनी प्रेमिका तक भेजता है।
महाकवि कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक में प्रकृति के मानवीकरण का एक विचित्र उदाहरण प्राप्त होता है। जहाँ शकुन्तला के पतिगृह गमनकाल पर हरिण शकुन्तला के विछोह में मुँह में डाले घास को उगल देते हैं मोर नाचना बन्द कर देते हैं तथा लताएँ पत्ते गिराने के बहाने मानों आँसू बहा रही हों। यथा-
उद्गीर्ण दर्भकवला मृगी परित्यक्तनर्तना मयूरी।
अपसृत पाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रूणीव लताः।।
यहाँ पशु-पक्षी एवं लताएँ भी मानवों की तरह विदायी से विचलित हैं।
महाकवि कालिदास केवल प्रकृति के मानवीकरण के ही पुरोधा नहीं थे अपितु मानव के प्रकृतिकरण के भी वे कुशल कारीगर थे। जैसे-
अधर किसलय रागः कोमलविटपानुकारिणी बाहू।
कुसुममिव लोभनीयं यौवनमंगेषु सन्नद्धम् ।।
यहाँ होठों पर किसलय की लालिमा तथा भुजाओं पर शाखाओं का और यौवन पर फूलों के रूप का आरोप करके मानव का प्रकृतिकरण किया गया है।
'अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के प्रथम अंक में ही कवि ने वकुल के वृक्ष के पल्लवों पर अंगुलियों का आरोप करके उसका मानवीकरण किया है यथा-शकुन्तला-एषः वातेरित-पल्लवांगुलाभिस्त्वरयतीव मां बकुल-वृक्षः ।
यहाँ शकुन्तला अपनी सखी से कहती है कि वकुल का वृक्ष वायु से हिलायी गयी अपनी पल्लवरूपी अंगुलियों से मानों मुझे सिंचाई करने के लिए बुला रहा हो।
प्रथमांक में ही एक स्थान पर प्रियंवदा शकन्तला पर लता के रूप का आरोप करती हुई कहती है कि-हला शकुन्तले!
तिष्ठ इहैव मुहूर्तकं तावद् बकुल-वृक्षसमीपे प्रतिभाति।
यहाँ भी मानव का प्रकृतिकरण किया गया हैं।
.. त्वया समीप स्थितया लता-सनाथ इव में बकुलवृक्षः
एक अन्यस्थल पर जब एक भारा शकुन्तला के मुखमण्डल पर मण्डराता है, तो दुष्यन्त कहता है कि आपने रतिसर्वस्व स्वरूप इसके होंठ का पान करके स्वयं को धन्य कर लिया जबकि हम इसी उधेड़-बुन में रह गए कि यह ब्राह्मण कन्या है या क्षत्रिय ? यथा-
एक अन्यस्थल पर जब एक भारा शकुन्तला के मुखमण्डल पर मण्डराता है, तो दुष्यन्त कहता है कि आपने रतिसर्वस्व स्वरूप इसके होंठ का पान करके स्वयं को धन्य कर लिया जबकि हम इसी उधेड़-बुन में रह गए कि यह ब्राह्मण कन्या है या क्षत्रिय ? यथा-
करौ व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरम्।
यहाँ दुष्यन्त ने भ्रमर पर किसी प्रेमी का आरोप किया है। अत: यह मानवीकरण है।
इसी प्रकार शकुन्तला द्वारा "वनज्योत्स्ना" नामक लता को बहिन बनाना, मृगछौने का पुत्र बनाना तथा वृक्षों द्वारा शकुन्तला को वस्त्राभूषण प्रदान किए जाना ये सब प्रकृति के मानवीकरण के उदाहरण हैं।
अत: हम कह सकते हैं कि महाकविकालिदास प्रकृति के मानवीकरण के चतुर चितेरे हैं।
यहाँ दुष्यन्त ने भ्रमर पर किसी प्रेमी का आरोप किया है। अत: यह मानवीकरण है।
इसी प्रकार शकुन्तला द्वारा "वनज्योत्स्ना" नामक लता को बहिन बनाना, मृगछौने का पुत्र बनाना तथा वृक्षों द्वारा शकुन्तला को वस्त्राभूषण प्रदान किए जाना ये सब प्रकृति के मानवीकरण के उदाहरण हैं।
अत: हम कह सकते हैं कि महाकविकालिदास प्रकृति के मानवीकरण के चतुर चितेरे हैं।
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