वानर एवं मकर (मगरमच्छ) की कथा
वानर एवं मकर (मगरमच्छ) की कथा
अस्ति कस्मिंश्चित् समुद्रोपकण्ठे महान् जम्बूपादपः सदाफलः। तत्र च रक्तमुखो नाम वानरः प्रतिवसति स्म। तत्र च तस्य तरोरधः कदाचित् करालमुखो नाम मकरः समुद्रसलिलात् निष्क्रम्य सुकोमल बालुकासनाथे तीरोपान्ते न्यविशत्। ततश्च रक्तमुखेन स प्रोक्तः-"भोः! भवान् समभ्यागतोऽतिथिः । तद्भक्षयतु मया दत्तानि अमृततुल्यानि जम्बूफलानि।"
शब्दार्थ एवं -अस्ति = है ।अस् लट् लकार प्र० पु० एकवचन, कस्मिंश्चित् = किसी, समुद्रोपकण्ठे समुद्र + उपकण्ठे- गुणसन्धि, समुद्रस्य उपकण्ठे तत्पु० समास, समुद्र के किनारे, सदाफलः = हमेशा जिसमें फल लगे रहते हों ऐसा, महान् = बहुत बड़ा, जम्बूपादयः = जामुन का वृक्ष (अस्ति)। च = और, तत्र = वहाँ, रक्तमुखः = रक्तं मुखं यस्य सः बहुब्रीहिसमास, रक्तमुख नामक या लाल मुँह वाला, वानरः = बन्दर, (हरिः, मरकट, कपि), प्रतिवसति स्म = रहता था, तत्र च = और वहां, तस्य = उस, तरोरधः = तरोः + अधः विसर्गसन्धि वृक्ष के नीचे, कदाचित् = किसी समय, करालमुखो नाम = करालमुख नामक (भयानक मुख वाला शाब्दिक अर्थ), मकरः = मगरमच्छ, समुद्रसलिलात् = सागर के जल से (समुद्रस्य सलिलं तस्मात् षष्ठी तत्पु० स०), निष्क्रम्य = निकलकर निस् + क्रम् + ल्यप, सुकोमलबालुकासनाथे = अतीव मुलायम रेत से युक्त, तीरोपान्ते = तीर + उपान्ते = किनारे के पास न्यविशत् = (नि + अविशत् यण् सन्धि) आया। ततश्च ततः + सः = उस - करालमुख को, प्रोक्तः = (प्र + उक्तः गुणसन्धि) कहा गया, भोः ! = अरे ! भवान् = आप (भवत् शब्द प्रथमा एकवचन पुं०) समभ्यागतोः = भली-भान्ति आये हुए, अतिथि = मेहमान हो। तत् + भक्षयतु = (व्यंजनसन्धि) इसलिए खाइये, मया = मेरे द्वारा, (अस्मत् शब्द तृतीया एकवचन) दत्तानि = दिये हुए, अमृततुल्यानि = अमृत के समान स्वादिष्ट जम्बूफलानि = जामुनों को। उक्तञ्च = (उक्तम् + च परसवर्ण व्यंजनसन्धि) कहा भी है कि
हिन्दी-अनुवाद-किसी समुद्र के किनारे अमृततुल्य फलों को देने वाला या हमेशा फल देने वाला जामुन का एक अतीव विशाल पेड़ था। उस पर रक्तमुख नामक एक बन्दर रहता था। किसी दिन समुद्र के जल से निकल कर करालमुख नाम का एक मगरमच्छ आया। तब रक्तमुख नामक वानर ने उसे कहा-"अरे ! आप समुचित समय यानि भोजनकाल पर आये हुए अतिथि हो इसलिए मेरे द्वारा प्रदत्त अमृततुल्य इन जामुनों को खाओ।" कहा भी है कि
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मूरों वा यदि पण्डितः।
वैश्वदेवान्तमापन्नः सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः ॥2॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-वा = चाहे, प्रियः = प्यारा (मित्र) वा या, द्वेष्यः = शत्रु, वा = या, मूर्खः = मूर्ख वा = या, पण्डितः = विद्वान्, (यदि) वैश्वदेवान्तमापन्न: बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय आया हुआ यानि भोजनकाल पर उपस्थित, सोऽतिथि: = (सः + अतिथिः विसर्ग तथा पूर्वरूप सन्धि) वह मेहमान, स्वर्गसंक्रमः = स्वर्गदायी।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिकार कहते हैं कि यदि मित्र या शत्रु, मूर्ख या विद्वान् कोई भी अतिथि जो बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय घर पर आ जाये तो उसे स्वर्गदायी मोक्षदायी) समझना चाहिए। भावार्थ यह है कि गृहस्थियों के लिए अन्नदान का बड़ा महत्त्व है एतदर्थ उनके लिए शास्त्रों में पञ्च महायज्ञों का वर्णन किया गया है। यहाँ बलिवैश्वदेव का अर्थ है विश्व की समस्त प्राकृतिक शक्तियों के लिए बलि = भोजन देने का विधान अर्थात् यदि भोजनकाल में कोई अतिथि घर आ जाये और उसे भोजन दिया जाये तो यह अतीव पुण्य का कार्य होता है।
न पृच्छेच्छरणं गोत्रं न च विद्यां कुलं न च।
अतिथिं वैश्वदेवान्ते श्राद्धे च मनुरब्रवीत्॥3॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-वैश्वदेवान्ते = (वैश्वदेव + अन्ते दीर्घसन्धि) बलिवैश्वदेवयज्ञ के अन्त में, च = और, श्राद्ध = श्राद्ध के समय पर, अतिथिम् = अतिथि से, शरणम् = आश्रय या निवासस्थान आदि गोत्रम् = गोत्र, विद्याम् उसकी शैक्षणिक योग्यता, कुलम् = वंश के विषय में, न पृच्छेत् = न पूछे। मनुरब्रवीत् = (मनुः अब्रवीत् विसर्गसन्धि) मनु जी ने ऐसा कहा है।
हिन्दी-अनुवाद-अतिथि के सन्दर्भ में मनु जी ने भी कहा है कि बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय तथा श्राद्ध के समय आये हुए अतिथि से उसका निवासस्थान, गोत्र, उसकी शैक्षणिक योग्यता या वंश आदि के विषय में पूछताछ नहीं करनी चाहिए अपितु सीधे उसे भोजन करवाना चाहिए।
दूरमार्गश्रमश्रान्तं वैश्वदेवान्तमागतम् ।
अतिथिं पूजयेद्यस्तु स याति परमां गतिम् ॥4॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-यस्तु = जो (विसर्गसन्धि), दूरमार्गश्रान्तम् = लम्बा रास्ता तय करके थके हुए तथा वैश्वदेवान्तमागतम् = बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय आये हुए अतिथिम् = मेहमान को, पूजयेत् = सम्मानित करे, सः = वह, परमाम् गतिम् = परमगति को यानि जीवन के परमलक्ष्य मोक्ष को, याति = प्राप्त करता है।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिविद् कहते हैं कि जो व्यक्ति लम्बा मार्ग तय करके थके हुए तथा बलिवैश्व देवयज्ञ के समय पधारे हुए अतिथि को भोजनादि देकर सम्मानित करता है; वह परमगति यानि मोक्ष को प्राप्त करता है।
भावार्थ यह कि अपरिचित एवं जरूरतमंद को भोजन करवाना अतीव पुण्य का कार्य है।
अपूजितोऽतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन्।
गच्छन्ति विमुखास्तस्य पितृभिः सह देवताः॥5॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-यस्य = जिसके, गृहात् = घर से, अपूजितोऽतिथिः = (विसर्ग एवं पूर्वरूपसन्धि) निरादृत होकर, विनिःश्वसन् = दुःख से आहे भरता हुआ, याति = जाता है। तस्य उसके पितृभिः सह देवताः = पितरों के साथ देवता भी, विमुखाः = विपरीत, गच्छन्ति = हो जाते हैं। (पितृभिः सह यहाँ सह उपपद के कारण पितृ शब्द में तृतीयाविभक्ति का प्रयोग हुआ है।
हिन्दी-अनुवाद-नीति विशारदों का मानना है कि जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निरादृत होकर आहे भरते हुए निकलते हैं, उसके पितर तथा उनके साथ ही कुलदेवता आदि सभी उससे विमुख हो जाते हैं। भाव यह कि अतिथि का आदर सम्मान न करने पर पितर एवं देवता सभी रुष्ट हो जाते हैं जिससे मनुष्य पितृदोष एवं दैवीयदोष से ग्रसित हो जाता है।
एवमुक्त्वा तस्मै जम्बूफलानि ददौ। सोऽपि तानि भक्षयित्वा तेन सह चिरं गोष्ठीसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वभवनमगात्। एवं नित्यमेव तौ वानरमकरौ जम्बूछायास्थितौ विविधशास्त्रगोष्ठ्या कालं नयन्तौ सुखेन तिष्ठतः। सोऽपि मकरो भक्षितशेषाणि जम्बूफलानि गृहं गत्वा स्वपल्यै प्रयच्छति। अथ अन्यतमे दिवसे तया स पृष्ट"नाथ ! क्व एवं विधानि अमृतफलानि प्राप्नोषि ?"स आह-"भद्रे ! मम अस्ति परमसुहृद् रक्तमुखो नाम वानरः। सः प्रीतिपूर्वकम् इमानि फलानि प्रयच्छति।" अथ तया अभिहितम् - "यः सदा एवं अमृतप्रायाणि ईदृशानि फलानि भक्षयति, तस्य हृदयममृतमयं भविष्यति। तत् यदि मया भार्यया ते प्रयोजनं ततः तस्य हृदयं मह्यं प्रयच्छ। येन तद्भक्षयित्वा जरामरण-रहिता त्वया सह भोगान् भुनज्मि।" स आह-"भद्रे ! मा मा एवं वद। यतः स प्रतिपन्नोऽस्माकं भ्राता, अपरं च फलदाता, ततो व्यापादयितुं न शक्यते।तत् त्यज एनं मिथ्याऽऽग्रहम्।" उक्तञ्च
शब्दार्थ एवं व्याकरण-एवम् = ऐसा, उक्त्वा = (वच् + क्त्वा) कहकर, तस्मै = उसे (मगरमच्छ को), जम्बूफलानि = जामुन के फल, ददौ = दिये, सः अपि = वह भी, तानि = उनको (तत् शब्द नपुं० द्वितीया बहुवचन), भक्षयित्वा = (भक्ष् + क्त्वा) खाकर, तेन सह = उसके साथ, चिरम् = बहुत लम्बे समय तक, गोष्ठीसुखम् = बातचीत के आनन्द को, अनुभूय = (अनु + भू + ल्यप्) अनुभव करके (प्राप्त करके), भूयः अपि = पुनः, स्वभवनम् = अपने आवास को, अगात् = चला गया। एवम् = इस प्रकार, नित्यमेव = प्रतिदिन, तौ = (सः च सः च तौ एकशेष द्वन्द्व) वे दोनों, वानरमकरौ = बन्दर एवं मगरमच्छ, जम्बूछायास्थितौ = (जम्बोः छाया जम्बूछाया तस्याम् स्थितौ, जामुन के पेड़ की छाया में बैठकर, विविधानां शास्त्राणाम् गोष्ठ्या = अनेकानेक शास्त्रों की चर्चा करते हुए, कालम् = समय को, नयन्तौ = (नी प्रापणे + शतृ प्रथमा द्विवचन) बिताते हुए, सुखेन = आराम से, तिष्ठतः = रहते थे, सोऽपि मकरः = (सः + अपि विसर्ग एवं पूर्वरूपसन्धि) वह मगरमच्छ भी, भक्षितशेषाणि = खाने से बचे हुए, जम्बूफलानि = जामुन के फलों को, गृहं गत्वा = घर जाकर (गम् + क्त्वा), स्वपल्यै = अपनी पत्नी को, प्रयच्छति = दे देता। अथ = कुछ समय के पश्चात्, अन्यतमे दिवसे = किसी दिन, तया = उसने मगरमच्छ की पत्नी ने, सः = वह मगरमच्छ पृष्टः (प्रच्छ् + क्त) पूछा। नाथ ! = हे स्वामी। क्व = कहाँ, एवं विधानि = इस प्रकार के, अमृतफलानि = अमृततुल्य फलों ====== को (अमृतम् इव फलानि उपमानपूर्वपद तत्पु० स०), प्राप्नोषि = प्राप्त करते हो। सः = वह, आह = बोला, भद्रे! हे प्रिये!, मम = मेरा, प्रियसुहृत् = स्नेहीमित्र, रक्तमुखोनाम = रक्तमुख नामक, वानरः बन्दर, अस्ति = है, सः = वह, प्रीतिपूर्वकम् = स्नेहपूर्वक यानि बड़े प्रेम से, इमानि फलानि = इन फलों को, प्रयच्छति = देता है। अथ तब, तया = उसने, अभिहितम् = कहा, यः = जो, सदा एव = सदैव (नित्य), अमृतप्रायाणि = लगभग अमृत के तुल्य, ईदृशानि ऐसे, भक्षयति = खाता है। तस्य = उसका, हृदयम् = कलेजा, अमृतमयम् = अमृतबहुल, भविष्यति = होगा। तत् इसलिए, मया = मुझ, भार्यया = पत्नी से, प्रयोजनम् = आपको प्रेम है, ततः = तो, तस्य उसका, हृदयम् = दिल, मह्यम् = मुझे (अस्मत् चतुर्थी एकवचन), प्रयच्छ = दे दो। येन = ताकि, तद् भक्षयित्वा = उसे खाकर, जरामरणरहिता = (जरया मरणेन च रहिता तृतीया तत्पु० स०) वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्त होकर, त्वया सह = तुम्हारे साथ, भोगान् = सांसारिक सुखों को, भुनज्मि = भोगूंगी (भुज् धातु लट् लकार उत्तम पु० एकवचन निकट भविष्य के अर्थ में लट् लकार का प्रयोग हुआ है। स आह = वह बोला, भद्रे ! = प्रिये ! एवम् ऐसा, मा मा = मत (शीघ्रता में द्विरुक्ति होती है।) वद = बोलो। यतः = क्योंकि, सः = वह, अस्माकम् हमारा, भ्राता = भाई, प्रतिपन्नः = बन चुका है। अपरं च = और, फलदाता = (फलस्यदाता षष्ठी तत्पु० स०) फल देने वाला भी है। ततः = इसलिए, व्यापादयितुम् न शक्यते = मारा नहीं जा सकता। तत् = इसलिए, एनम् = इस, मिथ्याऽऽग्रहम् = व्यर्थ के हठ को (मिथ्या + आग्रहम् यहाँ स्पष्टता हेतु यानि यह स्पष्ट करने के लिए कि मिथ्या का या भी दीर्घ है तथा आग्रहम् का "आ" भी दीर्घ है यह दोहरा अवग्रह (55) चिह्न लगाया गया है।)
हिन्दी अनुवाद-यह कहकर उस वानर ने उसे जामुन के फल दिये। वह भी उन्हें खाकर तथा देर तक उसके साथ बातचीत का आनंद लेकर अपने घर को चला गया। इस प्रकार वे दोनों अर्थात् बन्दर और मगरमच्छ प्रतिदिन जामुन के पेड़ की छाया में बैठकर अनेकानेक शास्त्रों पर चर्चा करते हुए सुखपूर्वक समय बिताने लगे। वह मगरमच्छ खाने से शेष बचे हुए जामुनों को घर ले जाकर अपनी पत्नी को भी दे देता था। कुछ समय के पश्चात् एक दिन मगर की पत्नी ने पूछा- "पति देव ! तुम्हें ये अमृततुल्य फल कहां मिलते हैं।" उसने कहा-"प्रिये ! मेरा एक परममित्र रक्तमुख नामक वानर है। वह स्नेहपूर्वक इन फलों को मुझे देता है।" यह सुनकर वह बोली-"जो सदैव इस प्रकार के अमृततुल्य फलों को खाता है; उसका कलेजा अवश्य ही अमृतमय होगा। इसलिए यदि आपको मुझसे अर्थात् पत्नी से कोई प्रयोजन है यानि यदि आपको पत्नी प्यारी हो तो उस वानर का हृदय लाकर मुझे दो। ताकि मैं उसे खाकर जन्म एवं मृत्यु के भय से मुक्त होकर यानि अमर होकर आपके साथ भोगों को भोग सकूँ।" उसने कहा-"प्रिये ! कृपया ऐसा मत कहो। क्योंकि वह तो हमारा भाई तथा साथ ही फलदाता भी बन चुका है। इसलिए उसे नहीं मारा जा सकता। अतः इस मिथ्या आग्रह को छोड़ दो।" किसी ने इस सन्दर्भ में कहा भी है कि एकं प्रसूयते माता द्वितीयं वाक् प्रसूयते। वाग्जातमधिकं प्रोचुः सोदर्य्यादपि बन्धुवत् ॥6॥ शब्दार्थ एवं व्याकरण-एकम् = एक को, माता प्रसूयते = माता जन्म देती है, द्वितीयम् = दूसरे को, वाक् वाणी, प्रसूयते = जन्म देती है, वाग् जातम् = वचन देकर बनाये हुए को सोदाद् अपि = सगे से भी अधिक (सोदर बन्धुवत् भाई की तरह, प्रोचुः = कहते हैं। (प्र + ब्रूड लिट् लकार प्र० पु० बहुवचन)। हिन्दी 1-अनुवाद -नीतिकारों ने कहा है कि एक भाई वह होता है जिसे अपनी माता जन्म देती है तथा दूसरा वह कहलाता है जिसे वाणी जन्म देती है यानि जिसे हम वचन देकर भाई बनाते हैं। विद्वान् इन दोनों में वचन देकर बनाये गये भाई को सगे भाई की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व देते हैं।
अथ मकरी प्राह-"त्वया कदाचित् अपि मम वचनं अन्यथा न कृतम्। तत् नूनं सा वानरी भविष्यति। यतः तस्या अनुरागतः सकलमपि दिनं तत्र गमयसि। तत् त्वं ज्ञातो मया सम्यक् ।" यतः
शब्दार्थ एवं व्याकरण-वा = चाहे, प्रियः = प्यारा (मित्र) वा या, द्वेष्यः = शत्रु, वा = या, मूर्खः = मूर्ख वा = या, पण्डितः = विद्वान्, (यदि) वैश्वदेवान्तमापन्न: बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय आया हुआ यानि भोजनकाल पर उपस्थित, सोऽतिथि: = (सः + अतिथिः विसर्ग तथा पूर्वरूप सन्धि) वह मेहमान, स्वर्गसंक्रमः = स्वर्गदायी।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिकार कहते हैं कि यदि मित्र या शत्रु, मूर्ख या विद्वान् कोई भी अतिथि जो बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय घर पर आ जाये तो उसे स्वर्गदायी मोक्षदायी) समझना चाहिए। भावार्थ यह है कि गृहस्थियों के लिए अन्नदान का बड़ा महत्त्व है एतदर्थ उनके लिए शास्त्रों में पञ्च महायज्ञों का वर्णन किया गया है। यहाँ बलिवैश्वदेव का अर्थ है विश्व की समस्त प्राकृतिक शक्तियों के लिए बलि = भोजन देने का विधान अर्थात् यदि भोजनकाल में कोई अतिथि घर आ जाये और उसे भोजन दिया जाये तो यह अतीव पुण्य का कार्य होता है।
न पृच्छेच्छरणं गोत्रं न च विद्यां कुलं न च।
अतिथिं वैश्वदेवान्ते श्राद्धे च मनुरब्रवीत्॥3॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-वैश्वदेवान्ते = (वैश्वदेव + अन्ते दीर्घसन्धि) बलिवैश्वदेवयज्ञ के अन्त में, च = और, श्राद्ध = श्राद्ध के समय पर, अतिथिम् = अतिथि से, शरणम् = आश्रय या निवासस्थान आदि गोत्रम् = गोत्र, विद्याम् उसकी शैक्षणिक योग्यता, कुलम् = वंश के विषय में, न पृच्छेत् = न पूछे। मनुरब्रवीत् = (मनुः अब्रवीत् विसर्गसन्धि) मनु जी ने ऐसा कहा है।
हिन्दी-अनुवाद-अतिथि के सन्दर्भ में मनु जी ने भी कहा है कि बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय तथा श्राद्ध के समय आये हुए अतिथि से उसका निवासस्थान, गोत्र, उसकी शैक्षणिक योग्यता या वंश आदि के विषय में पूछताछ नहीं करनी चाहिए अपितु सीधे उसे भोजन करवाना चाहिए।
दूरमार्गश्रमश्रान्तं वैश्वदेवान्तमागतम् ।
अतिथिं पूजयेद्यस्तु स याति परमां गतिम् ॥4॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-यस्तु = जो (विसर्गसन्धि), दूरमार्गश्रान्तम् = लम्बा रास्ता तय करके थके हुए तथा वैश्वदेवान्तमागतम् = बलिवैश्वदेव यज्ञ के समय आये हुए अतिथिम् = मेहमान को, पूजयेत् = सम्मानित करे, सः = वह, परमाम् गतिम् = परमगति को यानि जीवन के परमलक्ष्य मोक्ष को, याति = प्राप्त करता है।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिविद् कहते हैं कि जो व्यक्ति लम्बा मार्ग तय करके थके हुए तथा बलिवैश्व देवयज्ञ के समय पधारे हुए अतिथि को भोजनादि देकर सम्मानित करता है; वह परमगति यानि मोक्ष को प्राप्त करता है।
भावार्थ यह कि अपरिचित एवं जरूरतमंद को भोजन करवाना अतीव पुण्य का कार्य है।
अपूजितोऽतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन्।
गच्छन्ति विमुखास्तस्य पितृभिः सह देवताः॥5॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-यस्य = जिसके, गृहात् = घर से, अपूजितोऽतिथिः = (विसर्ग एवं पूर्वरूपसन्धि) निरादृत होकर, विनिःश्वसन् = दुःख से आहे भरता हुआ, याति = जाता है। तस्य उसके पितृभिः सह देवताः = पितरों के साथ देवता भी, विमुखाः = विपरीत, गच्छन्ति = हो जाते हैं। (पितृभिः सह यहाँ सह उपपद के कारण पितृ शब्द में तृतीयाविभक्ति का प्रयोग हुआ है।
हिन्दी-अनुवाद-नीति विशारदों का मानना है कि जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निरादृत होकर आहे भरते हुए निकलते हैं, उसके पितर तथा उनके साथ ही कुलदेवता आदि सभी उससे विमुख हो जाते हैं। भाव यह कि अतिथि का आदर सम्मान न करने पर पितर एवं देवता सभी रुष्ट हो जाते हैं जिससे मनुष्य पितृदोष एवं दैवीयदोष से ग्रसित हो जाता है।
एवमुक्त्वा तस्मै जम्बूफलानि ददौ। सोऽपि तानि भक्षयित्वा तेन सह चिरं गोष्ठीसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वभवनमगात्। एवं नित्यमेव तौ वानरमकरौ जम्बूछायास्थितौ विविधशास्त्रगोष्ठ्या कालं नयन्तौ सुखेन तिष्ठतः। सोऽपि मकरो भक्षितशेषाणि जम्बूफलानि गृहं गत्वा स्वपल्यै प्रयच्छति। अथ अन्यतमे दिवसे तया स पृष्ट"नाथ ! क्व एवं विधानि अमृतफलानि प्राप्नोषि ?"स आह-"भद्रे ! मम अस्ति परमसुहृद् रक्तमुखो नाम वानरः। सः प्रीतिपूर्वकम् इमानि फलानि प्रयच्छति।" अथ तया अभिहितम् - "यः सदा एवं अमृतप्रायाणि ईदृशानि फलानि भक्षयति, तस्य हृदयममृतमयं भविष्यति। तत् यदि मया भार्यया ते प्रयोजनं ततः तस्य हृदयं मह्यं प्रयच्छ। येन तद्भक्षयित्वा जरामरण-रहिता त्वया सह भोगान् भुनज्मि।" स आह-"भद्रे ! मा मा एवं वद। यतः स प्रतिपन्नोऽस्माकं भ्राता, अपरं च फलदाता, ततो व्यापादयितुं न शक्यते।तत् त्यज एनं मिथ्याऽऽग्रहम्।" उक्तञ्च
शब्दार्थ एवं व्याकरण-एवम् = ऐसा, उक्त्वा = (वच् + क्त्वा) कहकर, तस्मै = उसे (मगरमच्छ को), जम्बूफलानि = जामुन के फल, ददौ = दिये, सः अपि = वह भी, तानि = उनको (तत् शब्द नपुं० द्वितीया बहुवचन), भक्षयित्वा = (भक्ष् + क्त्वा) खाकर, तेन सह = उसके साथ, चिरम् = बहुत लम्बे समय तक, गोष्ठीसुखम् = बातचीत के आनन्द को, अनुभूय = (अनु + भू + ल्यप्) अनुभव करके (प्राप्त करके), भूयः अपि = पुनः, स्वभवनम् = अपने आवास को, अगात् = चला गया। एवम् = इस प्रकार, नित्यमेव = प्रतिदिन, तौ = (सः च सः च तौ एकशेष द्वन्द्व) वे दोनों, वानरमकरौ = बन्दर एवं मगरमच्छ, जम्बूछायास्थितौ = (जम्बोः छाया जम्बूछाया तस्याम् स्थितौ, जामुन के पेड़ की छाया में बैठकर, विविधानां शास्त्राणाम् गोष्ठ्या = अनेकानेक शास्त्रों की चर्चा करते हुए, कालम् = समय को, नयन्तौ = (नी प्रापणे + शतृ प्रथमा द्विवचन) बिताते हुए, सुखेन = आराम से, तिष्ठतः = रहते थे, सोऽपि मकरः = (सः + अपि विसर्ग एवं पूर्वरूपसन्धि) वह मगरमच्छ भी, भक्षितशेषाणि = खाने से बचे हुए, जम्बूफलानि = जामुन के फलों को, गृहं गत्वा = घर जाकर (गम् + क्त्वा), स्वपल्यै = अपनी पत्नी को, प्रयच्छति = दे देता। अथ = कुछ समय के पश्चात्, अन्यतमे दिवसे = किसी दिन, तया = उसने मगरमच्छ की पत्नी ने, सः = वह मगरमच्छ पृष्टः (प्रच्छ् + क्त) पूछा। नाथ ! = हे स्वामी। क्व = कहाँ, एवं विधानि = इस प्रकार के, अमृतफलानि = अमृततुल्य फलों ====== को (अमृतम् इव फलानि उपमानपूर्वपद तत्पु० स०), प्राप्नोषि = प्राप्त करते हो। सः = वह, आह = बोला, भद्रे! हे प्रिये!, मम = मेरा, प्रियसुहृत् = स्नेहीमित्र, रक्तमुखोनाम = रक्तमुख नामक, वानरः बन्दर, अस्ति = है, सः = वह, प्रीतिपूर्वकम् = स्नेहपूर्वक यानि बड़े प्रेम से, इमानि फलानि = इन फलों को, प्रयच्छति = देता है। अथ तब, तया = उसने, अभिहितम् = कहा, यः = जो, सदा एव = सदैव (नित्य), अमृतप्रायाणि = लगभग अमृत के तुल्य, ईदृशानि ऐसे, भक्षयति = खाता है। तस्य = उसका, हृदयम् = कलेजा, अमृतमयम् = अमृतबहुल, भविष्यति = होगा। तत् इसलिए, मया = मुझ, भार्यया = पत्नी से, प्रयोजनम् = आपको प्रेम है, ततः = तो, तस्य उसका, हृदयम् = दिल, मह्यम् = मुझे (अस्मत् चतुर्थी एकवचन), प्रयच्छ = दे दो। येन = ताकि, तद् भक्षयित्वा = उसे खाकर, जरामरणरहिता = (जरया मरणेन च रहिता तृतीया तत्पु० स०) वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्त होकर, त्वया सह = तुम्हारे साथ, भोगान् = सांसारिक सुखों को, भुनज्मि = भोगूंगी (भुज् धातु लट् लकार उत्तम पु० एकवचन निकट भविष्य के अर्थ में लट् लकार का प्रयोग हुआ है। स आह = वह बोला, भद्रे ! = प्रिये ! एवम् ऐसा, मा मा = मत (शीघ्रता में द्विरुक्ति होती है।) वद = बोलो। यतः = क्योंकि, सः = वह, अस्माकम् हमारा, भ्राता = भाई, प्रतिपन्नः = बन चुका है। अपरं च = और, फलदाता = (फलस्यदाता षष्ठी तत्पु० स०) फल देने वाला भी है। ततः = इसलिए, व्यापादयितुम् न शक्यते = मारा नहीं जा सकता। तत् = इसलिए, एनम् = इस, मिथ्याऽऽग्रहम् = व्यर्थ के हठ को (मिथ्या + आग्रहम् यहाँ स्पष्टता हेतु यानि यह स्पष्ट करने के लिए कि मिथ्या का या भी दीर्घ है तथा आग्रहम् का "आ" भी दीर्घ है यह दोहरा अवग्रह (55) चिह्न लगाया गया है।)
हिन्दी अनुवाद-यह कहकर उस वानर ने उसे जामुन के फल दिये। वह भी उन्हें खाकर तथा देर तक उसके साथ बातचीत का आनंद लेकर अपने घर को चला गया। इस प्रकार वे दोनों अर्थात् बन्दर और मगरमच्छ प्रतिदिन जामुन के पेड़ की छाया में बैठकर अनेकानेक शास्त्रों पर चर्चा करते हुए सुखपूर्वक समय बिताने लगे। वह मगरमच्छ खाने से शेष बचे हुए जामुनों को घर ले जाकर अपनी पत्नी को भी दे देता था। कुछ समय के पश्चात् एक दिन मगर की पत्नी ने पूछा- "पति देव ! तुम्हें ये अमृततुल्य फल कहां मिलते हैं।" उसने कहा-"प्रिये ! मेरा एक परममित्र रक्तमुख नामक वानर है। वह स्नेहपूर्वक इन फलों को मुझे देता है।" यह सुनकर वह बोली-"जो सदैव इस प्रकार के अमृततुल्य फलों को खाता है; उसका कलेजा अवश्य ही अमृतमय होगा। इसलिए यदि आपको मुझसे अर्थात् पत्नी से कोई प्रयोजन है यानि यदि आपको पत्नी प्यारी हो तो उस वानर का हृदय लाकर मुझे दो। ताकि मैं उसे खाकर जन्म एवं मृत्यु के भय से मुक्त होकर यानि अमर होकर आपके साथ भोगों को भोग सकूँ।" उसने कहा-"प्रिये ! कृपया ऐसा मत कहो। क्योंकि वह तो हमारा भाई तथा साथ ही फलदाता भी बन चुका है। इसलिए उसे नहीं मारा जा सकता। अतः इस मिथ्या आग्रह को छोड़ दो।" किसी ने इस सन्दर्भ में कहा भी है कि एकं प्रसूयते माता द्वितीयं वाक् प्रसूयते। वाग्जातमधिकं प्रोचुः सोदर्य्यादपि बन्धुवत् ॥6॥ शब्दार्थ एवं व्याकरण-एकम् = एक को, माता प्रसूयते = माता जन्म देती है, द्वितीयम् = दूसरे को, वाक् वाणी, प्रसूयते = जन्म देती है, वाग् जातम् = वचन देकर बनाये हुए को सोदाद् अपि = सगे से भी अधिक (सोदर बन्धुवत् भाई की तरह, प्रोचुः = कहते हैं। (प्र + ब्रूड लिट् लकार प्र० पु० बहुवचन)। हिन्दी 1-अनुवाद -नीतिकारों ने कहा है कि एक भाई वह होता है जिसे अपनी माता जन्म देती है तथा दूसरा वह कहलाता है जिसे वाणी जन्म देती है यानि जिसे हम वचन देकर भाई बनाते हैं। विद्वान् इन दोनों में वचन देकर बनाये गये भाई को सगे भाई की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व देते हैं।
अथ मकरी प्राह-"त्वया कदाचित् अपि मम वचनं अन्यथा न कृतम्। तत् नूनं सा वानरी भविष्यति। यतः तस्या अनुरागतः सकलमपि दिनं तत्र गमयसि। तत् त्वं ज्ञातो मया सम्यक् ।" यतः
शब्दार्थ एवं व्याकरण-अथ = तत् पश्चात्, मकरी = मकर की पत्नी (मकर + डीप्), प्राह = बोली (प्र + ब्रू लट् लकार प्र० पु० एकवचन), त्वया = तूने, कदाचित् अपि = कभी भी, मम वचनम् = मेरी बात, अन्यथा न कृतम् = ठुकराई नहीं है। तत् = इसलिए, नूनम् = निश्चित रूप से, सा = वह (जामुन देने वाली), वानरी = (वानर + डीप्) बन्दरी, भविष्यति = होगी, यतः = जिस कारण से, तस्याः = अनुरागतः : प्रेम के कारण, सकलमपि = सारे, दिनम् = दिन को, तत्र = वहाँ, गमयसि = बिताते हो। (गम् + णिच् लट् म० पु० एकवचन)। तत् = अतः, त्वम् = तू, मया = मेरे द्वारा, सम्यक् = जान लिया गया (ज्ञा + क्तः), यतः क्योंकि
हिन्दी-अनुवाद-तब मगर की पत्नी बोली आपने कभी मेरी बात न मानी हो ऐसा नहीं हुआ है-इसलिए मुझे लगता है कि वह वानर नहीं अपितु वानरी होगी। जिसके कारण उसके प्रेम के वशीभूत होकर तुम सारा दिन वहीं बिता देते हो। अत: मैं आपको भली-भान्ति जान गयी।" क्योंकि
साह्लादं वचनं प्रयच्छति न मे नो वाञ्छितं किञ्चन,
हिन्दी-अनुवाद-तब मगर की पत्नी बोली आपने कभी मेरी बात न मानी हो ऐसा नहीं हुआ है-इसलिए मुझे लगता है कि वह वानर नहीं अपितु वानरी होगी। जिसके कारण उसके प्रेम के वशीभूत होकर तुम सारा दिन वहीं बिता देते हो। अत: मैं आपको भली-भान्ति जान गयी।" क्योंकि
साह्लादं वचनं प्रयच्छति न मे नो वाञ्छितं किञ्चन,
प्रायः प्रोच्छ्ववसिषि द्रुतं हुतवहज्वालासमं रात्रिषु
कण्ठाश्लेषपरिग्रहे शिथिलता यन्नादराच्चुम्बसे
तत्ते धूर्त हृदिस्थिता प्रियतमा काचिन्ममेवापरा ॥7॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-साह्लादम् = (आलादेन सहितम्) प्रसन्नतापूर्वक, मे = मुझसे, वचनम् = बात, न प्रयच्छसि = नहीं करते हो, नो = न ही, वाञ्छितम् किंचन = मनचाही कोई वस्तु, मे = मुझे, प्रयच्छसि = देते हो। रात्रिषु = रात को, प्रायः = आमतौर पर, हुतवहज्वालासमम् = अग्नि की ज्वाला के समान यानि ऊष्णः, द्रुतम् = शीघ्रशीघ्र, प्रोच्छ्वसिषिः श्वास लेते हो, (हुतं वहति इति हुतवहः = अग्नि) । कण्ठाश्लेषपरिग्रहे = गल-जफ्फी मारते समय, शिथिलता = उत्साह की कमी होती है, यन्नादराच्चुम्बसे = (यत् न आदरात् चुम्बसे व्यंजन सन्धि जिसमें परसवर्ण तथा श्चुत्व हुआ है) क्योंकि तुम आदरपूर्वक पूर्ववत् चुम्बन नहीं करते हो। तत् = इसलिए, धूर्त = हे मूर्ख, ते = तुम्हारे, दि = हृदय में, मम इव = मेरी ही तरह की, कोई दूसरी, स्थिता = स्थित है।
हिन्दी-अनुवाद-मकर की पत्नी कहती है कि कई दिनों से तुम न तो मुझसे वैसी बातें करते हो, न ही मुझे मेरी मनचाही कोई वस्तु देते हो तथा रात को आग के समान तेज श्वास-प्रश्वास लेते हो। उसकी याद आने पर दु:खी होकर आप पूर्ववत् न तो मेरा आलिंगन करते हो और न ही आदरपूर्वक चुम्बन करते हो। इसलिए प्रतीत होता है कि हे धूर्त ! मेरी ही तरह कोई अन्य नायिका (प्रेमिका) तुम्हारे हृदय में बस गयी है।
(सोऽपि पत्न्याः पादोपसंग्रहं कृत्वा अङ्कोपरि निधाय तस्याः कोपकोटिमापन्नायाः सुदीनमुवाच
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सोऽपि = (सः + अपि विसर्ग एवं पूर्वरूप सन्धि), पत्न्याः = पत्नी के, पादोपसंग्रहं कृत्वा (पाद + उपसंग्रहम् गुणसन्धि, कृ + क्त्वा) पैर पकड़ कर, अङ्कोपरि (अङ्क + उपरि गुणसन्धि) गोद में, निधाय = रखकर (निधा + ल्यप्), तस्याः = उसके, कोपकोटिमापन्नायाः = क्रोध के करोड़ों आवेगों से सम्भृत यानि अतीव कुपित उस पत्नी से, सुदीनमुवाच = विनम्रतापूर्वक बोला।
हिन्दी-अनुवाद- उस मगरमच्छ ने भी पत्नी (मकरी) के पैर पकड़े और उन्हें अपनी गोद में रखकर अत्यन्त कुपित हुई उससे अतीव विनम्रता से बोला
मयि ते पादपतिते किङ्करत्वमुपागते।
त्वं प्राणवल्लभे कस्मात्कोपने कोपमेष्यसि ॥8॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-कोपने! = हे चण्डी!, मयि = मेरे (अस्मत् सप्तमी एकवचन), ते = तुम्हारे (युष्मत् षष्ठी पादयोः पतित: पादपतितः तस्मिन् (षष्ठी तत्पु० स०) पाँव पड़ने पर, एकवचन का वैकल्पिक रूप), पादपतिते किङ्करत्वमुपागते = सेवकभाव को प्राप्त होने पर भी, प्राणवल्लभे = हे प्रियतमे, त्वम् = तू, कस्मात् = क्यों, कोपम् एष्यसि = क्रोधित हो रही हो।
हिन्दी-अनुवाद-कुपित हुई अपनी पत्नी से मगरमच्छ कहता है कि हे चण्डी, हे प्राणप्रिये ! मेरे पाँव पड़ने पर तथा सेवकभाव को प्राप्त होने पर भी तुम क्यों कुपित हो रही हो ?
- सा अपि तद्वचनमाकर्ण्य अश्रुप्लुतमुखी तमुवाच
"सार्द्ध मनोरथशतैस्तव धूर्तकान्ता
सैव स्थितामनसि कृत्रिमभावरम्या।
अस्माकमस्ति न कथञ्चिदिहावकाश
स्तस्मात्कृतं चरणपातविडम्बनाभिः॥9॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सा अपि = वह भी, तद्वचनम् आकर्ण्य = तत् + वचनम् व्यंजन-सन्धि उसकी बातें सुनकर, आश्रुप्लुतमुखी = आँसुओं से भीगे मुँह वाली (अश्रुभिः प्लुप्तं मुखं यस्याः सा बहुव्रीहिसमास), तम् उवाच उससे बोलीधूर्त = हे वञ्चक ! (ठग), सार्द्ध = साथ (युक्त), मनोरथशतैः सैंकड़ों मनोरथों वाली, सैव (सा + एव वृद्धिसन्धि) वही, कृत्रिम भावरम्या = बनावटी हाव-भावों से मनोहर लगने वाली, तव = तुम्हारे, मनसि = मन में, स्थिता = समायी हुई है। इह = आपके हृदय में, अस्माकम् = हमारा यानि मेरे लिए, कथञ्चित् किसी भी प्रकार, अवकाशः = स्थान, न = नहीं, अस्ति = है, एतस्मात् = इसलिए, चरणपातबिडम्बनाभिः = पैरे आदि पकड़ने के चोंचले या दिखावा करने से, कृतम् = बस करो यह व्यर्थ है।
हिन्दी-अनुवाद- मगर की बातों को सुनकर आँसू बहाती हुई यानि रोती हुई उसकी पत्नी ने उससे कहा किहे धूर्त ! मन में सैंकड़ों मनोरथों को संजोये हुए कृत्रिम हावभाव दिखाने वाली वह सुन्दरी तुम्हारे मन में समा गयी है। अत: आपके इस हृदय में मेरे लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। इसलिए-पाँव पकड़ने आदि का यह दिखावा व्यर्थ है।
अपरं सा यदि तव वल्लभा न भवति तत् किं मया भणितेऽपि तां न व्यापादयसि ? अथ यदि स वानरस्तत् कः तेन सह तवस्नेहः ? तत् किं बहुना यदि तस्य हृदयं न भक्षयामि, तत् मया प्रायोपवेशनं कृतं विद्धि। एवं तस्याः तं निश्चयं ज्ञात्वा चिन्ताव्याकुलितहृदयः स प्रोवाच! अथवा साधु इदमुच्यते
शब्दार्थ एवं व्याकरण-अपरम् = दूसरी बात यह, यदि = यदि, सा = वह (वानरी), तव = तुम्हारी, वल्लभा प्रेयसी, न भवति = नहीं है, तत् = तो, मया = मेरे द्वारा, भणितेऽपि = कहने पर भी (ए या ओ के पश्चात् जब ह्रस्व अआता है तो उसे "एङिपररूपम्" इस सूत्र से पररूप होकर यानि अका भी ए या ओ बनकर उसके स्थान पर (s) जिसे अवग्रह कहते हैं लगा दिया जाता है।), ताम् = उसको, किम् = क्यों, न = नहीं, व्यापादयसि = मारते हो। अथ यदि = और यदि, सः वह, वानरः = बन्दर है, तत् = तो, तव = तुम्हारा, तेन सह = उसके साथ, कः = क्या, स्नेहः = प्रेम । तत् = इसलिए, किम् बहुना = बहुत कहने का क्या लाभ, तस्य = उसके, हृदयम् = कलेजे को, न भक्षयामि = न खाऊँगी, तत् = तो, मया = मेरे द्वारा, प्रायोपवेशनं = अनशन (निराहारव्रत) कृतम् = कर लिया है, विद्धि = ऐसा समझ लेना। एवम् = इस प्रकार के, तस्याः = उसके, तं निश्चयम् = उस दृढ़ निर्णय को, ज्ञात्वा जानकर, चिन्ताव्याकुलितहृदयः = (चिन्तया व्याकुलितः हृदय यस्य सः बहुव्रीहिसमास) चिन्तित मन वाला यानि पशोपेश में फंसा हुआ, सः वह मगरमच्छ, प्रोवाच = बोला। साधुः = ठीक ही, इदम् = यह, उच्यते = कहा जाता है कि
हिन्दी-अनुवाद-मकर की पत्नी कहती है कि यदि वह तुम्हारी प्रेयसी नहीं है तो मेरे कहने पर तुम उसे क्यों नहीं मार डालते ? और यदि वह वानरी न होकर वानर है तो फिर उसके प्रति आपका यह प्रेम क्यों है ? इसलिए अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। सीधी सी बात यह है कि यदि मुझे खाने के लिए उसका हृदय न मिला तो मेरी आज से ही भूखहड़ताल (अनशन) समझ लेना। उसके इस प्रकार के दृढनिश्चय को जानकर चिन्तातुर वानर ने कहा-किसी ने ठीक ही कहा है कि
"वज्रलेपस्य मूर्खस्य नारीणां कर्कटस्य च।
एको ग्रहस्तु मीनानां नीलीमद्यपयोस्तथा"
शब्दार्थ एवं व्याकरण-वज्रलेपस्य मूर्खस्य = महामूर्ख, नारीणाम् = स्त्रियाँ, कर्कटस्य च = और केकड़े का, मीनानाम् = मछलियाँ, नीलीमद्यपयोः = नीला रंग और सुरापान करने वाला ये, एकोग्रहः = प्रबल हठी होते हैं। हिन्दी-अनुवाद-महामूर्ख व्यक्ति, स्त्रियाँ, केकड़ा तथा मछलियाँ, नीलारंग एवं शराबी ये प्रबल हठ वाले होते हैं।
कथं स मे वध्यो भवति। "इति विचिन्त्य वानरपार्श्वमगमत्। वानरोऽपि चिरायान्तं तं प्रोवाच-'भो मित्र ! किमद्य चिरबेलायां समायातोऽसि ? कस्मात् साहादं न आलपसि ? न सुभाषितानि पठसि ?" स आह-"मित्र ! अहं तव भातृजायया निष्ठुरतरैर्वाक्यैरभिहितः-भोः कृतघ्न ! मा मे त्वं स्वमुखं दर्शय। यतः त्वं प्रतिदिन मित्रमुपजीवसि, न च तस्य पुनः प्रत्युपकारं गृहदर्शनमात्रेण अपि करोषि। तत् ते प्रायश्चित्तेमपि नास्ति। उक्तञ्च
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = तो, किम् = क्या, करोमि = करूँ ? कथम् = किस प्रकार, सः = वह वानर, मे मुझसे, वध्यः भवति = मारा जायेगा। इति = ऐसा, विचिन्त्य = (वि + चिन्त् + ल्यप्) सोचकर, वानरपार्श्वम् बन्दर के पास, अगमत् = चला गया, वानरः अपि = बन्दर भी, चिरायान्तम् = देर से आते हुए, तम् = उसको, सोद्वेगम् अवलोक्य = उत्सुकतापूर्वक देखकर (अव + लोक + ल्यप्), प्रोवाच = बोला, अद्य = आज, चिरबेलायाम् = देरी से, किम् = क्यों, न = नहीं, आलपसि = बात करते हो, सुभाषितानि = अच्छी-अच्छी बातें, न पठसि = नहीं बोल रहे हो, स आह = वह बोला, अहम् = मुझे, तव = तुम्हारी, भ्रातृजायया = भाभी के द्वारा, निष्ठुरतरैः अतीव कठोर, वाक्यैः = वचनों से, अभिहितः = लताड़ा गया, भोः = अरे! कृतन = किये हुए उपकार को भुलाने वाले, मे = मुझे, त्वम् = तू, स्वमुखम् = अपना मुंह, मा = मत, दर्शय = दिखाओ। यतः = क्योंकि, त्वम् = तू, प्रतिदिनम् = हमेशा, मित्रम् उपजीवसि = मित्र के पास भोजनादि करते हो (उसके आश्रय में रहते हो) तस्य = उसका, प्रत्युपकारम् = (प्रति + उपकारम्) बदले में भला, गृहदर्शनमात्रेण अपि = घर दिखाने मात्र से भी, न = नहीं, करोषि = करते हो, तत् = इसलिए, ते = तुम्हारे लिए, प्रायश्चित्तमपि = इस पाप से मुक्ति का उपाय भी, नास्ति = नहीं है।
हिन्दी-अनुवाद-तो अब मैं क्या करूँ ? वह मेरे द्वारा कैसे मारा जा सकता है। ऐसा सोचकर वह वानर के पास चला गया। देर से आते हुए मकर को वन्दर ने उत्सुकतापूर्वक कहा "अरे मित्र ! आज तुम देरी से क्यों आये हो ? आप प्रेमपूर्वक बातें क्यों नहीं कर रहे हो ? आप सूक्तियाँ क्यों नहीं सुना रहे हो ? वह बोला "मित्र आज तुम्हारी भाभी ने अतीव कठोर शब्दों में मेरी भर्त्सना करते हुए कहा कि हे कृत्स्न ! तू अपना मुख मुझ को मत दिखा। क्योंकि तू प्रतिदिन मित्र के पास जाकर भोजन करता है परन्तु उसके बदले मित्र को कभी अपना घर तक भी नहीं दिखाता है। यह ऐसा पाप है जिसका कोई प्रायश्चित्त भी नहीं है। इसलिए किसी ने कहा भी है कि
ब्रह्मने च सुरापे च चौरे भग्नव्रते शठे।
निष्कृतिबिंहिता सद्भिः कृतज्ञे नास्ति निष्कृतिः॥ 11 ॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सद्भिः = सज्जनों के द्वारा, ब्रह्मने = ब्रह्महत्या के सन्दर्भ में, च = और, सुरापे मदिरापान के विषय में, च और चौरे = चोरी करने पर, भग्नव्रते = व्रत के टूट जाने पर, शठे = शठता यानि धूर्तता करने वालों के प्रति निष्कृतिः = प्रायश्चित्त या मुक्ति का उपाय, विहिता = बताया गया है, कृतने = किये हुए उपकार को भुलाने वाले के लिए (कृतं हन्ति इति कृतघ्न), निष्कृतिः = मुक्ति का उपाय, नास्ति = नहीं है।
हिन्दी-अनुवाद-शास्त्रज्ञों ने ब्रह्महत्या, मद्यपान, चोरी, व्रत का टूट जाना, एवं किसी के साथ ढिठाई आदि करने वालों के लिए प्रायश्चित्त का विधान यानि उन-उन गलतियों से मुक्ति के उपाय कहे हैं परन्तु कृतघ्न के लिए कोई प्रायश्चित नहीं कहा गया है।
तत् त्वं मम देवरं गृहीत्वा अद्य प्रत्युपकारार्थ गृहमानय नो चेत् त्वया सह मे परलोके दर्शनम्। "तत् अहं तया एवं प्रोक्तः तव सकाशमागतः। तत् अद्य तया सह त्वदर्थे कलहायतो मम इयतीवेला विलग्ना। तत् आगच्छ मे गृहम्। तव भातृपली रचितचतुष्का प्रगुणित वस्त्रमणि माणिक्याधुचिताभरणा द्वारदेशबद्धवन्दनामाला सोत्कण्ठा तिष्ठति।" मर्कट आह-भो मित्र ! युक्तमभिहितं मद् भातृपल्या। उक्तञ्च
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = इसलिए, त्वम् = तू, मम = मेरे, देवरम् = देवर को, गृहीत्वा = (गृह् + क्त्वा) लेकर, अद्य = आज, प्रत्युपकारार्थम् = (प्रति + उपकारार्थम् यण् सन्धि) उसके द्वारा की गयी सेवा का बदला चुकाने के लिए, गृहम् आनय = घर लाओ, नो चेत् अन्यथा, त्वया सह = तुम्हारे साथ, मे = मेरा (अस्मत् शब्द षष्ठी का वैकल्पिक रूप है), परलोके = दूसरे लोक में, दर्शनम् = मिलन होगा। तत् = इसलिए, अहम् = मैं, तया उसके द्वारा, एवम् प्रोक्तः = ऐसा कहा जाने पर, तव = तुम्हारे, सकाशम् = पास, आगतः = आया हूँ। तत् इसलिए, अद्य = आज, तया सह = उसके साथ, त्वदर्थे = तुम्हारे लिए, कलहायतः झगड़ा करते हुए, मम = मुझे, इयतीवेला = इतना समय, विलग्ना = लग गया। तत् = इसलिए, मे = मेरे, गृहम् = घर, आगच्छ तुम्हारी भातृपत्नी = भाभी, रचितचतुष्का चतुष्का, = आँगन, रचित = सजाकर या आंगन में रंगोली बनाकर प्रगुणितवस्वमणिमाणिक्याधुचिताभरणा = श्रेष्ठ वस्त्रों एवं मणियों तथा माणिक्यों से जड़े हुए आभूषणों को धारण करके, द्वारदेशबद्धवन्दनमाला = दरवाजे पर बन्दनवार लगाकर, सोत्कण्ठा = उत्सुकतापूर्वक, तिष्ठति = खड़ी है अर्थात् प्रतीक्षा कर रही है। मर्कटः = वानर, आह = बोला (ब्रूञ् लट् प्रथम पु० एकवचन) मत् = मेरी, भातृपल्या भाभी ने, युक्तम् = ठीक, अभिहितम् = कहा।
हिन्दी-अनुवाद-इसलिए आप मेरे देवर को उसका प्रत्युपकार (उपकार के बदले उपकार) करने हेतु आज ही घर लेकर आओ अन्यथा मैं आपको परलोक में ही मिलूँगी यानि मैं प्राण त्याग दूंगी। इसलिए उसके ऐसा कहने पर ही मैं आपके पास आया हूँ। इसीलिए अर्थात् तुम्हारे कारण उसके साथ झगड़ते-झगड़ते मुझे इतनी देरी हो गयी। अतः आप मेरे घर चलिये। वहां आपकी भाभी आंगन को सजाकर तथा सुन्दर वस्त्रों एवं मणि-माणिक्य से जटित आभूषणों से सुसज्जित होकर दरवाजे पर वन्दनवार लगाकर आपकी प्रतीक्षा में खड़ी है।" वानर बोला- अरे मित्र ! मेरी भाभी ने, उचित ही कहा है। क्योंकि किसी ने कहा भी है कि
वर्जयेत्कोलिकाकारं मित्रं प्राज्ञतरो नरः।
आत्मनः सम्मुखं नित्यं य आकर्षति लोलुपः ॥ 12॥
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोज्यते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ 13 ॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-प्राज्ञतरः नरः = बुद्धिमान् व्यक्ति, कोलिकारम् = कपटी, मित्रम् = दोस्त को, वर्जयेत् = त्याग दे। यः = जो, लोलुपः = लालची बनकर, नित्यम् = सदैव, आत्मनः सम्मुखम् = अपनी ओर, आकर्षति आकृष्ट करता है। ददाति = देता है, प्रतिगृह्णाति = लेता है, गुह्यमाख्याति = गुप्त बात भी बता देता है, पृच्छति = कुशलक्षेम पूछता है, भुङ्क्ते = मित्र के घर भोजन करता है, भोजयते = भोजन करवाता है, चैव (च + एव वृद्धिसन्धि) यही, षड्विधम् = छ: प्रकार के, प्रीतिलक्षणम् = प्रेम (दोस्ती) के लक्षण हैं।
हिन्दी-अनुवाद-बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह ऐसे कपटी मित्र का त्याग कर दे जो लालच के कारण सदैव मित्र को अपनी ओर आकृष्ट करता है। नीतिकारों ने दोस्ती के निम्न छः हेतु बताये हैं।
1. मित्र को आवश्यकता पड़ने पर देना
2. आवश्यकता पड़ने पर मित्र से लेना
3. गोपनीय बातें भी मित्र को बताना,
4, समय-समय पर हाल-चाल पूछना
5. कभी खाना
6. तो कभी खिलाना।
परं वयं वनचराः। युष्मदीयञ्च जलान्ते गृहं, तत् कथं शक्यते तत्र गन्तुम् ? तस्मात् तामपि मे भातृपत्नीमत्र आनय, येन प्रणम्य तस्या आशीर्वादं गृह्णामि।" स आह - "भो मित्र ! अस्ति समुद्रान्तरे सुरम्ये पुलिनप्रदेशेऽस्मद् गृहम्।' तत् मम पृष्ठमा-रूढः सुखेन अकृतभयो गच्छ। सोऽपि तच्छ्रुत्वा सानन्दमाह "भद्र ! यदि एवं तत् किं विलम्बयते, त्वर्य्यताम्। एषोऽहं तव पृष्ठमारूढः।" तथाऽनुष्ठिते अगाधे जलधौ गच्छन्तं मकरमालोक्य भयत्रस्तमना वानरः प्रोवाच - "भ्रातः ! शनैः शनै गम्यताम्।" जलकल्लोलैः प्लाव्यते मे शरीरम्।" तत् आकर्ण्य मकरश्चिन्तयामास-"असौ अगाधं जलं प्राप्तो मे वशवर्ती सञ्जातः। मत्पृष्ठगत: तिलमात्रमपि चलितुं न शक्नोति। तस्मात् कथयामि अस्य निजाभिप्राय येन अभीष्ट देवतास्मरणं करोति।"
शब्दार्थ एवं व्याकरण-परम् = परन्तु, वयम् = हम, वनचराः = (वने चरन्ति ये ते वनचराः) वन में विचरण करने वाले हैं। युष्मदीयम् च = और तुम्हारा, तत् = तो, कथम् = कैसे, तत्र = वहाँ, गन्तुम् = (गम् + तुमुन्) जाने के लिए, शक्यते = समर्थ हुआ जा सकता है। तस्मात् = इसलिए, ताम् = उस, मे = मेरी, भातृपत्नीम् = भाभी को, अत्र = यहाँ,आनय-ले आओ (आ नी प्रापणे लोट् लकार म० पु० एकवचन) येन ताकि, प्रणम्य = नम् + ल्यप्) प्रणाम करके, तस्याः = उसका, आशीर्वादम् = शुभकामनाएँ, गृणामि = ग्रहण कर लूँ। स = वह (मकर), आह = बोला, भो मित्र ! = अरे मित्र ! अस्मद् गृहम् = हमारा घर, समुद्रान्तरे = सागर के बीच, सुरम्ये अतीव मनमोहक, पुलिनप्रदेशे = रेतीले तट पर, अस्ति है। तत् इसलिए, मम = मेरी, पृष्ठम् आरूढः = बैठकर, सुखेन = सुखपूर्वक, अकृतभयः = निर्भय होकर, गच्छ = चलो। सः अपि = वह भी,तच्छ्रुत्वा= उस बात को सुमकर (तत् + श्रुत्वा त् को च् तथा श् को छ व्यंजनसन्धि), सानन्दम् = (आनन्देनसहितम्) प्रसन्न होकर, आह = बोला, भद्र ! हे मित्र (हे सज्जन) तत् = तो, किम् = क्यों, विलम्बयते = देरी कर रहे हो, त्वर्य्यताम् = जल्दी कीजिए, एषः अहम् = यह मैं, तव = तुम्हारी, पृष्ठम् = पीठ पर, आरूढः बैठ गया या चढ़ गया। तथा = वैसा, अनुष्ठिते करने पर, अगाधे जलधौ = अथाह समुद्र में, गच्छन्तम् = जाते हुए, मकरम् आलोक्य = मगरमच्छ को देखकर, (आ लोकृ + ल्यप्), भयत्रस्तमना = (भयेन त्रस्तं मनः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) भयभीत मन वाला, वानरः = बन्दर, प्रोवाच = (प्र + उवाच गुणसन्धि ब्रू लिट् लकार प्र० पु० एकवचन) बोला, भ्रातः ! हे भाई ! शनैः शनैः = धीरे-धीरे, गम्यताम् = चलिये। जलकल्लोलैः = जलस्य कल्लोलैः षष्ठी तत्पु० स०) जलतरंगों से, मे = मेरा, शरीरम् = तन, प्लाव्यते = भीग रहा है। तत् = वानर की इस बात को, आकर्ण्य = सुनकर, मकरः = मगरमच्छ ने, चिन्तयामास सोचा, (असौ= यह वानर अदस् शब्द पुल्लिग प्रथमा एकवचन), अगाधम् = अतीव गहरे (अथाह जलं प्राप्तः = जल में पहुंच चुका है, मे = मेरे, वशवर्ती = अधीन या नियन्त्रण में, सञ्जातः = हो गया है। मत्पृष्ठगतः=मेरी पीठ से उतरकर, तिलमात्रमपि = थोड़ा सा भी, चलितुम् न शक्नोति = नहीं चल सकता। तस्मात् = इसलिए, कथयामि कह देता हूँ, अस्य = इसके साथ, निजाभिप्रायम् = अपने प्रयोजन को, येन = जिससे, अभीष्ट-देवतास्मरणम् । अभीष्ठ: प्रियः या देवता सा, अभीष्टदेवता तस्याः स्मरणम् = अभीष्टदेवतास्मरणम् अपने प्रियतम देव का स्मरण, करोति = कर ले।
हिन्दी-अनुवाद-वानर कहता है कि हम तो वन में रहने वाले हैं जबकि आपका घर जल के मध्य में है इसलिए मैं वहाँ कैसे जा सकता हूँ। अतः आप ऐसा करो कि मेरी भाभी को ही यहाँ ले आओ ताकि मैं प्रणाम करके उसका आशीर्वाद प्राप्त कर सकूँ। तब वह (मकर) बोला-अरे मित्र ! समुद्र के मध्ये अतीव रमणीक रेतीले तट पर हमारा घर है। अत: आप मेरी पीठ पर चढ़कर आराम से निर्भय होकर चलो। वह भी यह सुनकर आनन्दपूर्वक बोला-मित्र ! यदि ऐसी बात है तो फिर देरी क्यों कर रहे हो ? जल्दी कीजिए। लो मैं तुम्हारी पीठ पर चढ़ गया। वैसा करने पर गहरे जल में मगरमच्छ को जाता देखकर भयभीत हुए वानर ने कहा-“हे भाई ! जरा धीरे-धीरे चलो। जल की तरंगों से मेरा शरीर भीग रहा है।" उसकी इस बात को सुनकर मगरमच्छ ने सोचा-"अथाह जल में आ जाने पर अब यह मेरे अधीन हो गया है। अब मेरी पीठ से उतर कर यह थोड़ा सा चलने में भी समर्थ नहीं है।" इसलिए इसे यहां लाने का अपना प्रयोजन बतला देता हूँ ताकि (मृत्यु से पूर्व) यह अपने अभीष्ट देवता का स्मरण कर सके।
आह च -"मित्र ! त्वं मया वधाय समानीतो भा-वाक्येन विश्वास्य तत् स्मयंतामभीष्ट देवता।" स आह-"भ्रातः। किं मया तस्याः तवापि च अपकृतम् ? येन मे वधोपायः चिन्तितः।" मकरः प्राहतस्यास्तावत् तव हृदयस्य अमृतमयफलरसास्वादनमृष्टस्य भक्षणे दोहदः सञ्जातस्तेन एतदनुष्ठितम्।" प्रत्युत्पन्नमतिः वानर आह
भद्र! यदि एवं तत् किं त्वया मम तत्र एव न व्याहृतम्। येन स्वहृदयं जम्बूकोटरे सदा एव मया सुगुप्तं कृतम्। तद् भ्रातृपल्या अर्पयामि।" मकर सानन्दमाह-"भद्र ! यदि एवं तदर्पय मे हृदयं, येन सा दुष्टपत्नी तद्भक्षयित्वा अनशनादुत्तिष्ठति। अहं त्वां तमेव जम्बूपादपं प्रापयामि।" एवमुक्त्वा निवर्त्य जम्बूतल-मगात्। वानरोऽपि कथमपि कल्पितविविधदेवतोपचारपूजः तीरमासादितवान्। ततश्च दीर्घतरचंक्रमणेन तमेव जम्बूपादपमारूढः चिन्तयामास-"अहो! लब्धास्तावत् प्राणाः। अथवा साधु इदमुच्यते
शब्दार्थ एवं व्याकरण-च = और, आह = कहा, त्वम् = तू, मया = मेरे द्वारा, वधाय = मारने के लिए, समानीत: - लाया गया है, भाउवाक्येन = पत्नी के कथन के माध्यम से, विश्वास्य = विश्वास दिलाकर, तत् = इसलिए, अभीष्टदेवतास्मर्यताम् = अपने इष्टदेव का स्मरण कर लो। सः = वह, आह =बोला, मया = मैंने, तस्याः = उसका, = (तव + अपि दीर्घसन्धि) तुम्हारा भी, किम् = क्या, अपकृतम् = बुरा किया है, येन = जिस कारण से, मे = मेरा, वधोपाय= वध + उपाय गुणसन्धि वधस्य उपायः वधोपायः (षष्ठी तत्पुरुष समास) मारने का उपाय, चिन्तितः = सोचा गया। मकरः प्राह=मगरमच्छ बोला, भोः! अरे! तस्याः = उसके, तावत् = तो, तव हृदयस्य - तुम्हारे हृदय का, अमृतमयफलस्य = अमृततुल्य फलों के, रसास्वादनेन = खाने से, अमृष्ट = रुचिकर बने हुए के भक्षणे = खाने में, दोहदः = इच्छा (विशेषतः दो हृदयों वाली यानि गर्भिणी की इच्छा) सञ्जातः = पैदा हो गयी है, तेन = इसलिए, एतद् = यह, अनुष्ठितम् = किया है। प्रत्युत्पन्नमतिः = हाजिर जबाव, आह = कहा, भद्र! = हे मित्र, यदि एवम् = यदि ऐसा है, तत् = तो, त्वया = तूने, मम = मुझे, तत्र एव = वहीं, किम् न = क्यों नहीं, व्याहृतम् = कह दिया। येन = क्योंकि वहृदयम् = अपना हृदय, जम्बूकोटरे = जामुन के पेड़ के कोटर में, मया = मेरे द्वारा, सदा एव = हमेशा, सुगुप्तम् = भली-भान्ति छुपाकर, कृतम् = रखा है। तत् = उसे, भातृपल्याः भाभी को अर्पयामि दे देता। सानन्दम् आह = प्रसन्न होकर बोला, तत् =तो, अर्पय = दे दो, मे = मुझे, येन = ताकि, सा = वह (तत् शब्द स्त्रीलिंग प्रथमा एकवचन), दुष्टत्नी = निर्दयी भार्या, तद्भक्षयित्वा = उसे खाकर, अनशनात् = भूखहड़ताल से, उत्तिष्ठति = उठ जाये, अहम् = मैं, त्वम् = तुझे, तम् एव = उसी, जम्बुपादपम् = जामुन के पेड़ समीप, प्रापयामि पहुँचाता हूँ। एवम् = ऐसा उक्त्वा = कहकर (वच् + क्त्वा), निवर्त्य = वापिस लौटकर, जम्बूतलम् अगात् = जामुन के पेड़ के नीचे चला गया। वानरः अपि = बन्दर भी, कथम् अपि = जैसे-तैसे, कल्पितविविधदेवतोपचारपूज: विभिन्न देवताओं की पूजा अर्चना की मनौतियाँ करता हुआ, तीरम् = किनारे को, आसादितवान् = प्राप्त हुआ, ततश्च = तत्पश्चात्, दीर्घतरचंक्रमणेन = लम्बी छलांग लगाकर, तम् एव = उसी, जम्बुपादपम् आरूढः = उस जामुन के पेड़ पर चढ़ गया। चिन्तयामास = सोचने लगा, अहो! = बड़ी प्रसन्नता की बात है, लब्धाः = प्राप्त हो गये या बच गये, प्राणा: = प्राण, इदम् = यह, साधु = ठीक, उच्यते = कहा जाता है।
तत्ते धूर्त हृदिस्थिता प्रियतमा काचिन्ममेवापरा ॥7॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-साह्लादम् = (आलादेन सहितम्) प्रसन्नतापूर्वक, मे = मुझसे, वचनम् = बात, न प्रयच्छसि = नहीं करते हो, नो = न ही, वाञ्छितम् किंचन = मनचाही कोई वस्तु, मे = मुझे, प्रयच्छसि = देते हो। रात्रिषु = रात को, प्रायः = आमतौर पर, हुतवहज्वालासमम् = अग्नि की ज्वाला के समान यानि ऊष्णः, द्रुतम् = शीघ्रशीघ्र, प्रोच्छ्वसिषिः श्वास लेते हो, (हुतं वहति इति हुतवहः = अग्नि) । कण्ठाश्लेषपरिग्रहे = गल-जफ्फी मारते समय, शिथिलता = उत्साह की कमी होती है, यन्नादराच्चुम्बसे = (यत् न आदरात् चुम्बसे व्यंजन सन्धि जिसमें परसवर्ण तथा श्चुत्व हुआ है) क्योंकि तुम आदरपूर्वक पूर्ववत् चुम्बन नहीं करते हो। तत् = इसलिए, धूर्त = हे मूर्ख, ते = तुम्हारे, दि = हृदय में, मम इव = मेरी ही तरह की, कोई दूसरी, स्थिता = स्थित है।
हिन्दी-अनुवाद-मकर की पत्नी कहती है कि कई दिनों से तुम न तो मुझसे वैसी बातें करते हो, न ही मुझे मेरी मनचाही कोई वस्तु देते हो तथा रात को आग के समान तेज श्वास-प्रश्वास लेते हो। उसकी याद आने पर दु:खी होकर आप पूर्ववत् न तो मेरा आलिंगन करते हो और न ही आदरपूर्वक चुम्बन करते हो। इसलिए प्रतीत होता है कि हे धूर्त ! मेरी ही तरह कोई अन्य नायिका (प्रेमिका) तुम्हारे हृदय में बस गयी है।
(सोऽपि पत्न्याः पादोपसंग्रहं कृत्वा अङ्कोपरि निधाय तस्याः कोपकोटिमापन्नायाः सुदीनमुवाच
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सोऽपि = (सः + अपि विसर्ग एवं पूर्वरूप सन्धि), पत्न्याः = पत्नी के, पादोपसंग्रहं कृत्वा (पाद + उपसंग्रहम् गुणसन्धि, कृ + क्त्वा) पैर पकड़ कर, अङ्कोपरि (अङ्क + उपरि गुणसन्धि) गोद में, निधाय = रखकर (निधा + ल्यप्), तस्याः = उसके, कोपकोटिमापन्नायाः = क्रोध के करोड़ों आवेगों से सम्भृत यानि अतीव कुपित उस पत्नी से, सुदीनमुवाच = विनम्रतापूर्वक बोला।
हिन्दी-अनुवाद- उस मगरमच्छ ने भी पत्नी (मकरी) के पैर पकड़े और उन्हें अपनी गोद में रखकर अत्यन्त कुपित हुई उससे अतीव विनम्रता से बोला
मयि ते पादपतिते किङ्करत्वमुपागते।
त्वं प्राणवल्लभे कस्मात्कोपने कोपमेष्यसि ॥8॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-कोपने! = हे चण्डी!, मयि = मेरे (अस्मत् सप्तमी एकवचन), ते = तुम्हारे (युष्मत् षष्ठी पादयोः पतित: पादपतितः तस्मिन् (षष्ठी तत्पु० स०) पाँव पड़ने पर, एकवचन का वैकल्पिक रूप), पादपतिते किङ्करत्वमुपागते = सेवकभाव को प्राप्त होने पर भी, प्राणवल्लभे = हे प्रियतमे, त्वम् = तू, कस्मात् = क्यों, कोपम् एष्यसि = क्रोधित हो रही हो।
हिन्दी-अनुवाद-कुपित हुई अपनी पत्नी से मगरमच्छ कहता है कि हे चण्डी, हे प्राणप्रिये ! मेरे पाँव पड़ने पर तथा सेवकभाव को प्राप्त होने पर भी तुम क्यों कुपित हो रही हो ?
- सा अपि तद्वचनमाकर्ण्य अश्रुप्लुतमुखी तमुवाच
"सार्द्ध मनोरथशतैस्तव धूर्तकान्ता
सैव स्थितामनसि कृत्रिमभावरम्या।
अस्माकमस्ति न कथञ्चिदिहावकाश
स्तस्मात्कृतं चरणपातविडम्बनाभिः॥9॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सा अपि = वह भी, तद्वचनम् आकर्ण्य = तत् + वचनम् व्यंजन-सन्धि उसकी बातें सुनकर, आश्रुप्लुतमुखी = आँसुओं से भीगे मुँह वाली (अश्रुभिः प्लुप्तं मुखं यस्याः सा बहुव्रीहिसमास), तम् उवाच उससे बोलीधूर्त = हे वञ्चक ! (ठग), सार्द्ध = साथ (युक्त), मनोरथशतैः सैंकड़ों मनोरथों वाली, सैव (सा + एव वृद्धिसन्धि) वही, कृत्रिम भावरम्या = बनावटी हाव-भावों से मनोहर लगने वाली, तव = तुम्हारे, मनसि = मन में, स्थिता = समायी हुई है। इह = आपके हृदय में, अस्माकम् = हमारा यानि मेरे लिए, कथञ्चित् किसी भी प्रकार, अवकाशः = स्थान, न = नहीं, अस्ति = है, एतस्मात् = इसलिए, चरणपातबिडम्बनाभिः = पैरे आदि पकड़ने के चोंचले या दिखावा करने से, कृतम् = बस करो यह व्यर्थ है।
हिन्दी-अनुवाद- मगर की बातों को सुनकर आँसू बहाती हुई यानि रोती हुई उसकी पत्नी ने उससे कहा किहे धूर्त ! मन में सैंकड़ों मनोरथों को संजोये हुए कृत्रिम हावभाव दिखाने वाली वह सुन्दरी तुम्हारे मन में समा गयी है। अत: आपके इस हृदय में मेरे लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। इसलिए-पाँव पकड़ने आदि का यह दिखावा व्यर्थ है।
अपरं सा यदि तव वल्लभा न भवति तत् किं मया भणितेऽपि तां न व्यापादयसि ? अथ यदि स वानरस्तत् कः तेन सह तवस्नेहः ? तत् किं बहुना यदि तस्य हृदयं न भक्षयामि, तत् मया प्रायोपवेशनं कृतं विद्धि। एवं तस्याः तं निश्चयं ज्ञात्वा चिन्ताव्याकुलितहृदयः स प्रोवाच! अथवा साधु इदमुच्यते
शब्दार्थ एवं व्याकरण-अपरम् = दूसरी बात यह, यदि = यदि, सा = वह (वानरी), तव = तुम्हारी, वल्लभा प्रेयसी, न भवति = नहीं है, तत् = तो, मया = मेरे द्वारा, भणितेऽपि = कहने पर भी (ए या ओ के पश्चात् जब ह्रस्व अआता है तो उसे "एङिपररूपम्" इस सूत्र से पररूप होकर यानि अका भी ए या ओ बनकर उसके स्थान पर (s) जिसे अवग्रह कहते हैं लगा दिया जाता है।), ताम् = उसको, किम् = क्यों, न = नहीं, व्यापादयसि = मारते हो। अथ यदि = और यदि, सः वह, वानरः = बन्दर है, तत् = तो, तव = तुम्हारा, तेन सह = उसके साथ, कः = क्या, स्नेहः = प्रेम । तत् = इसलिए, किम् बहुना = बहुत कहने का क्या लाभ, तस्य = उसके, हृदयम् = कलेजे को, न भक्षयामि = न खाऊँगी, तत् = तो, मया = मेरे द्वारा, प्रायोपवेशनं = अनशन (निराहारव्रत) कृतम् = कर लिया है, विद्धि = ऐसा समझ लेना। एवम् = इस प्रकार के, तस्याः = उसके, तं निश्चयम् = उस दृढ़ निर्णय को, ज्ञात्वा जानकर, चिन्ताव्याकुलितहृदयः = (चिन्तया व्याकुलितः हृदय यस्य सः बहुव्रीहिसमास) चिन्तित मन वाला यानि पशोपेश में फंसा हुआ, सः वह मगरमच्छ, प्रोवाच = बोला। साधुः = ठीक ही, इदम् = यह, उच्यते = कहा जाता है कि
हिन्दी-अनुवाद-मकर की पत्नी कहती है कि यदि वह तुम्हारी प्रेयसी नहीं है तो मेरे कहने पर तुम उसे क्यों नहीं मार डालते ? और यदि वह वानरी न होकर वानर है तो फिर उसके प्रति आपका यह प्रेम क्यों है ? इसलिए अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। सीधी सी बात यह है कि यदि मुझे खाने के लिए उसका हृदय न मिला तो मेरी आज से ही भूखहड़ताल (अनशन) समझ लेना। उसके इस प्रकार के दृढनिश्चय को जानकर चिन्तातुर वानर ने कहा-किसी ने ठीक ही कहा है कि
"वज्रलेपस्य मूर्खस्य नारीणां कर्कटस्य च।
एको ग्रहस्तु मीनानां नीलीमद्यपयोस्तथा"
शब्दार्थ एवं व्याकरण-वज्रलेपस्य मूर्खस्य = महामूर्ख, नारीणाम् = स्त्रियाँ, कर्कटस्य च = और केकड़े का, मीनानाम् = मछलियाँ, नीलीमद्यपयोः = नीला रंग और सुरापान करने वाला ये, एकोग्रहः = प्रबल हठी होते हैं। हिन्दी-अनुवाद-महामूर्ख व्यक्ति, स्त्रियाँ, केकड़ा तथा मछलियाँ, नीलारंग एवं शराबी ये प्रबल हठ वाले होते हैं।
कथं स मे वध्यो भवति। "इति विचिन्त्य वानरपार्श्वमगमत्। वानरोऽपि चिरायान्तं तं प्रोवाच-'भो मित्र ! किमद्य चिरबेलायां समायातोऽसि ? कस्मात् साहादं न आलपसि ? न सुभाषितानि पठसि ?" स आह-"मित्र ! अहं तव भातृजायया निष्ठुरतरैर्वाक्यैरभिहितः-भोः कृतघ्न ! मा मे त्वं स्वमुखं दर्शय। यतः त्वं प्रतिदिन मित्रमुपजीवसि, न च तस्य पुनः प्रत्युपकारं गृहदर्शनमात्रेण अपि करोषि। तत् ते प्रायश्चित्तेमपि नास्ति। उक्तञ्च
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = तो, किम् = क्या, करोमि = करूँ ? कथम् = किस प्रकार, सः = वह वानर, मे मुझसे, वध्यः भवति = मारा जायेगा। इति = ऐसा, विचिन्त्य = (वि + चिन्त् + ल्यप्) सोचकर, वानरपार्श्वम् बन्दर के पास, अगमत् = चला गया, वानरः अपि = बन्दर भी, चिरायान्तम् = देर से आते हुए, तम् = उसको, सोद्वेगम् अवलोक्य = उत्सुकतापूर्वक देखकर (अव + लोक + ल्यप्), प्रोवाच = बोला, अद्य = आज, चिरबेलायाम् = देरी से, किम् = क्यों, न = नहीं, आलपसि = बात करते हो, सुभाषितानि = अच्छी-अच्छी बातें, न पठसि = नहीं बोल रहे हो, स आह = वह बोला, अहम् = मुझे, तव = तुम्हारी, भ्रातृजायया = भाभी के द्वारा, निष्ठुरतरैः अतीव कठोर, वाक्यैः = वचनों से, अभिहितः = लताड़ा गया, भोः = अरे! कृतन = किये हुए उपकार को भुलाने वाले, मे = मुझे, त्वम् = तू, स्वमुखम् = अपना मुंह, मा = मत, दर्शय = दिखाओ। यतः = क्योंकि, त्वम् = तू, प्रतिदिनम् = हमेशा, मित्रम् उपजीवसि = मित्र के पास भोजनादि करते हो (उसके आश्रय में रहते हो) तस्य = उसका, प्रत्युपकारम् = (प्रति + उपकारम्) बदले में भला, गृहदर्शनमात्रेण अपि = घर दिखाने मात्र से भी, न = नहीं, करोषि = करते हो, तत् = इसलिए, ते = तुम्हारे लिए, प्रायश्चित्तमपि = इस पाप से मुक्ति का उपाय भी, नास्ति = नहीं है।
हिन्दी-अनुवाद-तो अब मैं क्या करूँ ? वह मेरे द्वारा कैसे मारा जा सकता है। ऐसा सोचकर वह वानर के पास चला गया। देर से आते हुए मकर को वन्दर ने उत्सुकतापूर्वक कहा "अरे मित्र ! आज तुम देरी से क्यों आये हो ? आप प्रेमपूर्वक बातें क्यों नहीं कर रहे हो ? आप सूक्तियाँ क्यों नहीं सुना रहे हो ? वह बोला "मित्र आज तुम्हारी भाभी ने अतीव कठोर शब्दों में मेरी भर्त्सना करते हुए कहा कि हे कृत्स्न ! तू अपना मुख मुझ को मत दिखा। क्योंकि तू प्रतिदिन मित्र के पास जाकर भोजन करता है परन्तु उसके बदले मित्र को कभी अपना घर तक भी नहीं दिखाता है। यह ऐसा पाप है जिसका कोई प्रायश्चित्त भी नहीं है। इसलिए किसी ने कहा भी है कि
ब्रह्मने च सुरापे च चौरे भग्नव्रते शठे।
निष्कृतिबिंहिता सद्भिः कृतज्ञे नास्ति निष्कृतिः॥ 11 ॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सद्भिः = सज्जनों के द्वारा, ब्रह्मने = ब्रह्महत्या के सन्दर्भ में, च = और, सुरापे मदिरापान के विषय में, च और चौरे = चोरी करने पर, भग्नव्रते = व्रत के टूट जाने पर, शठे = शठता यानि धूर्तता करने वालों के प्रति निष्कृतिः = प्रायश्चित्त या मुक्ति का उपाय, विहिता = बताया गया है, कृतने = किये हुए उपकार को भुलाने वाले के लिए (कृतं हन्ति इति कृतघ्न), निष्कृतिः = मुक्ति का उपाय, नास्ति = नहीं है।
हिन्दी-अनुवाद-शास्त्रज्ञों ने ब्रह्महत्या, मद्यपान, चोरी, व्रत का टूट जाना, एवं किसी के साथ ढिठाई आदि करने वालों के लिए प्रायश्चित्त का विधान यानि उन-उन गलतियों से मुक्ति के उपाय कहे हैं परन्तु कृतघ्न के लिए कोई प्रायश्चित नहीं कहा गया है।
तत् त्वं मम देवरं गृहीत्वा अद्य प्रत्युपकारार्थ गृहमानय नो चेत् त्वया सह मे परलोके दर्शनम्। "तत् अहं तया एवं प्रोक्तः तव सकाशमागतः। तत् अद्य तया सह त्वदर्थे कलहायतो मम इयतीवेला विलग्ना। तत् आगच्छ मे गृहम्। तव भातृपली रचितचतुष्का प्रगुणित वस्त्रमणि माणिक्याधुचिताभरणा द्वारदेशबद्धवन्दनामाला सोत्कण्ठा तिष्ठति।" मर्कट आह-भो मित्र ! युक्तमभिहितं मद् भातृपल्या। उक्तञ्च
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = इसलिए, त्वम् = तू, मम = मेरे, देवरम् = देवर को, गृहीत्वा = (गृह् + क्त्वा) लेकर, अद्य = आज, प्रत्युपकारार्थम् = (प्रति + उपकारार्थम् यण् सन्धि) उसके द्वारा की गयी सेवा का बदला चुकाने के लिए, गृहम् आनय = घर लाओ, नो चेत् अन्यथा, त्वया सह = तुम्हारे साथ, मे = मेरा (अस्मत् शब्द षष्ठी का वैकल्पिक रूप है), परलोके = दूसरे लोक में, दर्शनम् = मिलन होगा। तत् = इसलिए, अहम् = मैं, तया उसके द्वारा, एवम् प्रोक्तः = ऐसा कहा जाने पर, तव = तुम्हारे, सकाशम् = पास, आगतः = आया हूँ। तत् इसलिए, अद्य = आज, तया सह = उसके साथ, त्वदर्थे = तुम्हारे लिए, कलहायतः झगड़ा करते हुए, मम = मुझे, इयतीवेला = इतना समय, विलग्ना = लग गया। तत् = इसलिए, मे = मेरे, गृहम् = घर, आगच्छ तुम्हारी भातृपत्नी = भाभी, रचितचतुष्का चतुष्का, = आँगन, रचित = सजाकर या आंगन में रंगोली बनाकर प्रगुणितवस्वमणिमाणिक्याधुचिताभरणा = श्रेष्ठ वस्त्रों एवं मणियों तथा माणिक्यों से जड़े हुए आभूषणों को धारण करके, द्वारदेशबद्धवन्दनमाला = दरवाजे पर बन्दनवार लगाकर, सोत्कण्ठा = उत्सुकतापूर्वक, तिष्ठति = खड़ी है अर्थात् प्रतीक्षा कर रही है। मर्कटः = वानर, आह = बोला (ब्रूञ् लट् प्रथम पु० एकवचन) मत् = मेरी, भातृपल्या भाभी ने, युक्तम् = ठीक, अभिहितम् = कहा।
हिन्दी-अनुवाद-इसलिए आप मेरे देवर को उसका प्रत्युपकार (उपकार के बदले उपकार) करने हेतु आज ही घर लेकर आओ अन्यथा मैं आपको परलोक में ही मिलूँगी यानि मैं प्राण त्याग दूंगी। इसलिए उसके ऐसा कहने पर ही मैं आपके पास आया हूँ। इसीलिए अर्थात् तुम्हारे कारण उसके साथ झगड़ते-झगड़ते मुझे इतनी देरी हो गयी। अतः आप मेरे घर चलिये। वहां आपकी भाभी आंगन को सजाकर तथा सुन्दर वस्त्रों एवं मणि-माणिक्य से जटित आभूषणों से सुसज्जित होकर दरवाजे पर वन्दनवार लगाकर आपकी प्रतीक्षा में खड़ी है।" वानर बोला- अरे मित्र ! मेरी भाभी ने, उचित ही कहा है। क्योंकि किसी ने कहा भी है कि
वर्जयेत्कोलिकाकारं मित्रं प्राज्ञतरो नरः।
आत्मनः सम्मुखं नित्यं य आकर्षति लोलुपः ॥ 12॥
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोज्यते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ 13 ॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-प्राज्ञतरः नरः = बुद्धिमान् व्यक्ति, कोलिकारम् = कपटी, मित्रम् = दोस्त को, वर्जयेत् = त्याग दे। यः = जो, लोलुपः = लालची बनकर, नित्यम् = सदैव, आत्मनः सम्मुखम् = अपनी ओर, आकर्षति आकृष्ट करता है। ददाति = देता है, प्रतिगृह्णाति = लेता है, गुह्यमाख्याति = गुप्त बात भी बता देता है, पृच्छति = कुशलक्षेम पूछता है, भुङ्क्ते = मित्र के घर भोजन करता है, भोजयते = भोजन करवाता है, चैव (च + एव वृद्धिसन्धि) यही, षड्विधम् = छ: प्रकार के, प्रीतिलक्षणम् = प्रेम (दोस्ती) के लक्षण हैं।
हिन्दी-अनुवाद-बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह ऐसे कपटी मित्र का त्याग कर दे जो लालच के कारण सदैव मित्र को अपनी ओर आकृष्ट करता है। नीतिकारों ने दोस्ती के निम्न छः हेतु बताये हैं।
1. मित्र को आवश्यकता पड़ने पर देना
2. आवश्यकता पड़ने पर मित्र से लेना
3. गोपनीय बातें भी मित्र को बताना,
4, समय-समय पर हाल-चाल पूछना
5. कभी खाना
6. तो कभी खिलाना।
परं वयं वनचराः। युष्मदीयञ्च जलान्ते गृहं, तत् कथं शक्यते तत्र गन्तुम् ? तस्मात् तामपि मे भातृपत्नीमत्र आनय, येन प्रणम्य तस्या आशीर्वादं गृह्णामि।" स आह - "भो मित्र ! अस्ति समुद्रान्तरे सुरम्ये पुलिनप्रदेशेऽस्मद् गृहम्।' तत् मम पृष्ठमा-रूढः सुखेन अकृतभयो गच्छ। सोऽपि तच्छ्रुत्वा सानन्दमाह "भद्र ! यदि एवं तत् किं विलम्बयते, त्वर्य्यताम्। एषोऽहं तव पृष्ठमारूढः।" तथाऽनुष्ठिते अगाधे जलधौ गच्छन्तं मकरमालोक्य भयत्रस्तमना वानरः प्रोवाच - "भ्रातः ! शनैः शनै गम्यताम्।" जलकल्लोलैः प्लाव्यते मे शरीरम्।" तत् आकर्ण्य मकरश्चिन्तयामास-"असौ अगाधं जलं प्राप्तो मे वशवर्ती सञ्जातः। मत्पृष्ठगत: तिलमात्रमपि चलितुं न शक्नोति। तस्मात् कथयामि अस्य निजाभिप्राय येन अभीष्ट देवतास्मरणं करोति।"
शब्दार्थ एवं व्याकरण-परम् = परन्तु, वयम् = हम, वनचराः = (वने चरन्ति ये ते वनचराः) वन में विचरण करने वाले हैं। युष्मदीयम् च = और तुम्हारा, तत् = तो, कथम् = कैसे, तत्र = वहाँ, गन्तुम् = (गम् + तुमुन्) जाने के लिए, शक्यते = समर्थ हुआ जा सकता है। तस्मात् = इसलिए, ताम् = उस, मे = मेरी, भातृपत्नीम् = भाभी को, अत्र = यहाँ,आनय-ले आओ (आ नी प्रापणे लोट् लकार म० पु० एकवचन) येन ताकि, प्रणम्य = नम् + ल्यप्) प्रणाम करके, तस्याः = उसका, आशीर्वादम् = शुभकामनाएँ, गृणामि = ग्रहण कर लूँ। स = वह (मकर), आह = बोला, भो मित्र ! = अरे मित्र ! अस्मद् गृहम् = हमारा घर, समुद्रान्तरे = सागर के बीच, सुरम्ये अतीव मनमोहक, पुलिनप्रदेशे = रेतीले तट पर, अस्ति है। तत् इसलिए, मम = मेरी, पृष्ठम् आरूढः = बैठकर, सुखेन = सुखपूर्वक, अकृतभयः = निर्भय होकर, गच्छ = चलो। सः अपि = वह भी,तच्छ्रुत्वा= उस बात को सुमकर (तत् + श्रुत्वा त् को च् तथा श् को छ व्यंजनसन्धि), सानन्दम् = (आनन्देनसहितम्) प्रसन्न होकर, आह = बोला, भद्र ! हे मित्र (हे सज्जन) तत् = तो, किम् = क्यों, विलम्बयते = देरी कर रहे हो, त्वर्य्यताम् = जल्दी कीजिए, एषः अहम् = यह मैं, तव = तुम्हारी, पृष्ठम् = पीठ पर, आरूढः बैठ गया या चढ़ गया। तथा = वैसा, अनुष्ठिते करने पर, अगाधे जलधौ = अथाह समुद्र में, गच्छन्तम् = जाते हुए, मकरम् आलोक्य = मगरमच्छ को देखकर, (आ लोकृ + ल्यप्), भयत्रस्तमना = (भयेन त्रस्तं मनः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) भयभीत मन वाला, वानरः = बन्दर, प्रोवाच = (प्र + उवाच गुणसन्धि ब्रू लिट् लकार प्र० पु० एकवचन) बोला, भ्रातः ! हे भाई ! शनैः शनैः = धीरे-धीरे, गम्यताम् = चलिये। जलकल्लोलैः = जलस्य कल्लोलैः षष्ठी तत्पु० स०) जलतरंगों से, मे = मेरा, शरीरम् = तन, प्लाव्यते = भीग रहा है। तत् = वानर की इस बात को, आकर्ण्य = सुनकर, मकरः = मगरमच्छ ने, चिन्तयामास सोचा, (असौ= यह वानर अदस् शब्द पुल्लिग प्रथमा एकवचन), अगाधम् = अतीव गहरे (अथाह जलं प्राप्तः = जल में पहुंच चुका है, मे = मेरे, वशवर्ती = अधीन या नियन्त्रण में, सञ्जातः = हो गया है। मत्पृष्ठगतः=मेरी पीठ से उतरकर, तिलमात्रमपि = थोड़ा सा भी, चलितुम् न शक्नोति = नहीं चल सकता। तस्मात् = इसलिए, कथयामि कह देता हूँ, अस्य = इसके साथ, निजाभिप्रायम् = अपने प्रयोजन को, येन = जिससे, अभीष्ट-देवतास्मरणम् । अभीष्ठ: प्रियः या देवता सा, अभीष्टदेवता तस्याः स्मरणम् = अभीष्टदेवतास्मरणम् अपने प्रियतम देव का स्मरण, करोति = कर ले।
हिन्दी-अनुवाद-वानर कहता है कि हम तो वन में रहने वाले हैं जबकि आपका घर जल के मध्य में है इसलिए मैं वहाँ कैसे जा सकता हूँ। अतः आप ऐसा करो कि मेरी भाभी को ही यहाँ ले आओ ताकि मैं प्रणाम करके उसका आशीर्वाद प्राप्त कर सकूँ। तब वह (मकर) बोला-अरे मित्र ! समुद्र के मध्ये अतीव रमणीक रेतीले तट पर हमारा घर है। अत: आप मेरी पीठ पर चढ़कर आराम से निर्भय होकर चलो। वह भी यह सुनकर आनन्दपूर्वक बोला-मित्र ! यदि ऐसी बात है तो फिर देरी क्यों कर रहे हो ? जल्दी कीजिए। लो मैं तुम्हारी पीठ पर चढ़ गया। वैसा करने पर गहरे जल में मगरमच्छ को जाता देखकर भयभीत हुए वानर ने कहा-“हे भाई ! जरा धीरे-धीरे चलो। जल की तरंगों से मेरा शरीर भीग रहा है।" उसकी इस बात को सुनकर मगरमच्छ ने सोचा-"अथाह जल में आ जाने पर अब यह मेरे अधीन हो गया है। अब मेरी पीठ से उतर कर यह थोड़ा सा चलने में भी समर्थ नहीं है।" इसलिए इसे यहां लाने का अपना प्रयोजन बतला देता हूँ ताकि (मृत्यु से पूर्व) यह अपने अभीष्ट देवता का स्मरण कर सके।
आह च -"मित्र ! त्वं मया वधाय समानीतो भा-वाक्येन विश्वास्य तत् स्मयंतामभीष्ट देवता।" स आह-"भ्रातः। किं मया तस्याः तवापि च अपकृतम् ? येन मे वधोपायः चिन्तितः।" मकरः प्राहतस्यास्तावत् तव हृदयस्य अमृतमयफलरसास्वादनमृष्टस्य भक्षणे दोहदः सञ्जातस्तेन एतदनुष्ठितम्।" प्रत्युत्पन्नमतिः वानर आह
भद्र! यदि एवं तत् किं त्वया मम तत्र एव न व्याहृतम्। येन स्वहृदयं जम्बूकोटरे सदा एव मया सुगुप्तं कृतम्। तद् भ्रातृपल्या अर्पयामि।" मकर सानन्दमाह-"भद्र ! यदि एवं तदर्पय मे हृदयं, येन सा दुष्टपत्नी तद्भक्षयित्वा अनशनादुत्तिष्ठति। अहं त्वां तमेव जम्बूपादपं प्रापयामि।" एवमुक्त्वा निवर्त्य जम्बूतल-मगात्। वानरोऽपि कथमपि कल्पितविविधदेवतोपचारपूजः तीरमासादितवान्। ततश्च दीर्घतरचंक्रमणेन तमेव जम्बूपादपमारूढः चिन्तयामास-"अहो! लब्धास्तावत् प्राणाः। अथवा साधु इदमुच्यते
शब्दार्थ एवं व्याकरण-च = और, आह = कहा, त्वम् = तू, मया = मेरे द्वारा, वधाय = मारने के लिए, समानीत: - लाया गया है, भाउवाक्येन = पत्नी के कथन के माध्यम से, विश्वास्य = विश्वास दिलाकर, तत् = इसलिए, अभीष्टदेवतास्मर्यताम् = अपने इष्टदेव का स्मरण कर लो। सः = वह, आह =बोला, मया = मैंने, तस्याः = उसका, = (तव + अपि दीर्घसन्धि) तुम्हारा भी, किम् = क्या, अपकृतम् = बुरा किया है, येन = जिस कारण से, मे = मेरा, वधोपाय= वध + उपाय गुणसन्धि वधस्य उपायः वधोपायः (षष्ठी तत्पुरुष समास) मारने का उपाय, चिन्तितः = सोचा गया। मकरः प्राह=मगरमच्छ बोला, भोः! अरे! तस्याः = उसके, तावत् = तो, तव हृदयस्य - तुम्हारे हृदय का, अमृतमयफलस्य = अमृततुल्य फलों के, रसास्वादनेन = खाने से, अमृष्ट = रुचिकर बने हुए के भक्षणे = खाने में, दोहदः = इच्छा (विशेषतः दो हृदयों वाली यानि गर्भिणी की इच्छा) सञ्जातः = पैदा हो गयी है, तेन = इसलिए, एतद् = यह, अनुष्ठितम् = किया है। प्रत्युत्पन्नमतिः = हाजिर जबाव, आह = कहा, भद्र! = हे मित्र, यदि एवम् = यदि ऐसा है, तत् = तो, त्वया = तूने, मम = मुझे, तत्र एव = वहीं, किम् न = क्यों नहीं, व्याहृतम् = कह दिया। येन = क्योंकि वहृदयम् = अपना हृदय, जम्बूकोटरे = जामुन के पेड़ के कोटर में, मया = मेरे द्वारा, सदा एव = हमेशा, सुगुप्तम् = भली-भान्ति छुपाकर, कृतम् = रखा है। तत् = उसे, भातृपल्याः भाभी को अर्पयामि दे देता। सानन्दम् आह = प्रसन्न होकर बोला, तत् =तो, अर्पय = दे दो, मे = मुझे, येन = ताकि, सा = वह (तत् शब्द स्त्रीलिंग प्रथमा एकवचन), दुष्टत्नी = निर्दयी भार्या, तद्भक्षयित्वा = उसे खाकर, अनशनात् = भूखहड़ताल से, उत्तिष्ठति = उठ जाये, अहम् = मैं, त्वम् = तुझे, तम् एव = उसी, जम्बुपादपम् = जामुन के पेड़ समीप, प्रापयामि पहुँचाता हूँ। एवम् = ऐसा उक्त्वा = कहकर (वच् + क्त्वा), निवर्त्य = वापिस लौटकर, जम्बूतलम् अगात् = जामुन के पेड़ के नीचे चला गया। वानरः अपि = बन्दर भी, कथम् अपि = जैसे-तैसे, कल्पितविविधदेवतोपचारपूज: विभिन्न देवताओं की पूजा अर्चना की मनौतियाँ करता हुआ, तीरम् = किनारे को, आसादितवान् = प्राप्त हुआ, ततश्च = तत्पश्चात्, दीर्घतरचंक्रमणेन = लम्बी छलांग लगाकर, तम् एव = उसी, जम्बुपादपम् आरूढः = उस जामुन के पेड़ पर चढ़ गया। चिन्तयामास = सोचने लगा, अहो! = बड़ी प्रसन्नता की बात है, लब्धाः = प्राप्त हो गये या बच गये, प्राणा: = प्राण, इदम् = यह, साधु = ठीक, उच्यते = कहा जाता है।
हिन्दी-अनुवाद-और कहा- "हे मित्र! पत्नी के वचनों के माध्यम से विश्वास दिलाकर आपको मैं मारने के लिए लाया हूँ। इसलिए अपने इष्टदेव को याद कर लो।" वानर बोला-“हे भाई ! मैंने उसका या तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। जिसके कारण आपने मुझे मारने का उपाय सोचा।" मगरमच्छ बोला-"अरे! आपके द्वारा अमृततुल्य फलों को खाने से अमृतमय बने आपके हृदय को खाने की इच्छा उसके मन में उत्पन्न हो गयी है। इसीलिए ऐसा किया गया।" तब हाजिर जबाव वानर बोला-"मित्र! यदि ऐसी बात थी तो आपने वहीं पर मुझसे यह बात क्यों न कह दी ? क्योंकि मैं अपने हृदय को उसी जामुन के पेड़ के कोटर में छुपाकर रखता हूँ। मैं उसे भाभी को दे देता।" तब मगरमच्छ प्रसन्न होकर बोला–यदि ऐसी बात है तो अपना हृदय मुझे दे दो ताकि वह दुष्ट पत्नी उसे खाकर अपना अनशन तोड़ दे। मैं तुम्हें उसी जामुन के पेड़ पर ले चलता हूँ। ऐसा कहकर लौटकर वह जामुन के पेड़ के नीचे आ गया। तब वानर भी मन में अनेकानेक देवताओं के लिए मनौतियाँ माँगता हुआ किनारे आ पहुँचा और तत्काल एक बहुत लम्बी छलांग लगाकर उसी पेड़ पर चढ़कर सोचने लगा कि यह बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि प्राण बच गये। अथवा किसी ने ठीक ही कहा है कि
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत्।।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति॥4॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-अविश्वस्ते = विश्वास के अयोग्य पर, न विश्वसेत् = विश्वास न करे। विश्वस्तेऽपि विश्वसनीय पर भी, न विश्वसेत् = विश्वास न करे, विश्वासाद् = विश्वास से, उत्पन्नम् = पैदा हुआ, भयम् = डर, मूलान्यपि = (मूलानि + अपि यण् सन्धि) मूलों को भी, निकृन्तति = नष्ट कर देता है।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिकारों का कहना है कि अविश्वसनीय पर तो कभी विश्वास करे ही नहीं अपितु विश्वसनीय पर भी विश्वास न करे क्योंकि विश्वास से उत्पन्न भय मनुष्य को समूल नष्ट कर देता है।
तन्मम एतदद्य पुनर्जन्मदिनमिव सञ्जातम्। इति चिन्त्यमानं मकर आह-"भोः मित्र! अर्पय तद् हृदयं यथा ते भातृपत्नी भक्षयित्वा अनशनादुत्तिष्ठति।" अथ विहस्य निर्भर्त्सयन् वानरस्तमाह-"धिक् धिक् मूर्ख! विश्वासघातक किं कस्यचित् हृदयद्वयं भवति ? तदाशु गम्यताम् जम्बुवृक्षस्य अधस्तात्, न भूयोऽपि त्वया अत्र आगन्तव्यम्। उक्तञ्च यत:-"
सकृदुष्टञ्च यो मित्रं पुनः सन्धातुमिच्छति।।
स मृत्युमुपगृह्णाति गर्भमश्वतरी यथा ॥15॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तन्मम = (तत् + मम परसवर्ण व्यंजनसन्धि) इसलिए मेरा, एतद् = यह, पुनर्जन्मदिनमिव पुनः जन्म जैसा, सञ्जातम् = हुआ है। इति = ऐसा, विचिन्त्यमानम् = सोचते हुए वानर को, मकरः=मगरमच्छ, आह = बोला, अर्पय = दे दो, तद्हृदयम् = उस अपने हृदय को, यथा = ताकि, ते तुम्हारी, भातृपत्नी भाभी, भक्षयित्वा = खाकर (भक्ष् + क्त्वा), अनशनात् = (न अशन अनशन नञ् तत्पु० समास तस्मात्) भूख-हड़ताल से, उत्तिष्ठति = उठ जायेगी। अथ तब यानि उसकी इस बात को सुनने के पश्चात्, विहस्य = (वि हस् + ल्यप्) हंसकर, निर्भतर्क्सयन् = डाँटते हुए, तम् = उसको, आह = बोला, धिधिक - तुम्हें धिक्कार है, विश्वासघातक = विश्वास को तोड़ने वाले, किम् = क्या, कस्यचित् = किसी के, हृदयद्वयम् = दो हृदय, भवति = होते हैं । तदाशु = (तत् + आशु व्यंजनसन्धि) इसलिए शीघ्र ही, गम्यताम् = चले जाइये, जम्बूवृक्षस्य = जामुन के पेड़ के, अधस्तात् = नीचे से, भूयः अपि = दोबारा कभी, त्वया = तेरे द्वारा, अत्र = यहाँ, न आगन्तव्यम् = (आ + गम् + तव्यत्) = न आना, यतः = क्योंकि ,सकृद् = एक बार, दुष्टम् = दुष्ट बने हुए, मित्रम् = मित्र से, यः जो, पुनः = दोबारा, सन्धातुमिच्छति = सन्धि करना चाहता है। सः = वह, मृत्युम् = अपने मौत को, उपगृह्णाति आमन्त्रित करता है, यथा = ठीक उसी प्रकार जैसे, अश्वतरी = खच्चर, गर्भम् = गर्भधारण करके (घोड़ी और गधे के संयोग से खच्चर प्रजाति बनती है। खच्चर कभी बच्चे नहीं देती है। यदि नर एवं मादा खच्चर का संयोग होने दिया जाये और वह गर्भधारण कर ले तो उसकी मृत्यु हो जाती है।)
-वानर बोला यह तो आज मेरा पुनर्जन्म सा हुआ है। ऐसा सोचते हुए वानर को मकर ने कहा"अरे मित्र ! उस हृदय को दे दो ताकि उसे खाकर आपकी भाभी अपना अनशन व्रत तोड़ दे।" तब हंसकर और मकर को डाँटते हुए वानर ने कहा-"मूर्ख तुझे धिक्कार है। अरे विश्वासघातक क्या कभी किसी जीव के दो हृदय भी होते हैं।" इसलिए ऐसा करो कि इस जामुन के पेड़ के नीचे से शीघ्रता से चले जाओ और पुनः कभी भी तू यहाँ मत आना। क्योंकि किसी ने कहा है कि,एक बार जो मित्र अपनी दुष्टता दिखा देता है ऐसे मित्र से जो पुनः मैत्री करना चाहता है मानो वह ठीक उसी तरह अपनी मौत को आमन्त्रित करता है जिस प्रकार गर्भ धारण करके खच्चर अपनी मौत को आमन्त्रित कर लेती है। ॥ 15 ॥
तत् श्रुत्वा मकरः सविलासं चिन्तितवान् “अहो! मया मतिमूढेन किमस्य स्वचित्ताभिप्रायो निवेदितः ? तद्यदि असौ पुनरपि कथञ्चिद्विश्वासं गच्छति, तद्भूयोऽपि विश्वासयामि।" आह च "मित्र! हास्येन मया तेऽभिप्रायो लब्धः। तस्या न किञ्चित् तव हृदयेन प्रयोजनम्। तत् आगच्छ प्राघुणिकन्यायेन अस्मद्गृहम्। तव भातृपत्नी सोत्कण्ठा वर्तते।" वानर आह 'भो दुष्ट! गम्यताम्। अधुना नाहमागमिष्यामि।" उक्तञ्च
बुभुक्षितः किं न करोति पापं
क्षीणा जनानिष्करुणा भवन्ति।
आख्याहि भद्रे प्रियदर्शनस्य
न गंगदत्त पुनरेति कूपम्॥16॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = वानर की उस बात को, श्रुत्वा = सुनकर, मकरः = मगरमच्छ, सविलक्षम् = लज्जा से युक्त होकर (लज्जित हुआ), चिन्तितवान् = (चिन्त + क्तवतु) सोचने लगा, अहो = दुःखसूचक अव्यय, मया मुझ, मन्तिमूढेन = मूर्ख द्वारा, किम् = क्यों, अस्य = इसके साथ, स्वचित्ताभिप्रायः = अपने मन की बात, निवेदितः कह दी। तद्यदि = (तत् + यदि व्यंजनसन्धि) इसलिए, असौ = यह, पुनरपि (पुनः + अपि विसर्गसन्धि) दोबारा, कथञ्चिात् = किसी प्रकार, विश्वासं गच्छति = विश्वास कर ले, तद् = तो भूयोऽपि = पुनः, विश्वासयामि = विश्वास "च = और, आह = बोला, हास्येन = मजाक में, मया = मैंने, ते = तुम्हारा, अभिप्रायः = प्रयोजन, लब्धः
जानने का प्रयास किया था। तस्याः = उसे, तव हृदयेन = तुम्हारे हृदय से, न किञ्चित् = कुछ भी, प्रयोजन न = लेना देना नहीं है। तत् = इसलिए, प्राघुणिकन्यायेन = मेहमान के रूप में, अस्मद्गृहम् = हमारे घर, आगच्छ = आओ। तव = तुम्हारी, भातृपत्नी = भावी, सोत्कण्ठा उत्सुक, वर्तते = है। गम्यताम् = चले जाइये, अधुना = अब, अहम् = मैं, न आगमिष्यामि = नहीं आऊँगा। उक्तञ्च = किसी ने कहा भी है कि,,,
बुभुक्षितः = भूखा, किम् = किस, पापम् = बुरे कार्य को, न करोति = नहीं करता अर्थात् वह कुछ भी कर सकता है, क्षीणाः जनाः = भूखे लोग, निष्करुणा = निर्दयी, भवन्ति = होते हैं। भद्रे! = हे प्रिये! आख्याहि = कह देना, प्रियदर्शनस्य = प्रियदर्शन नामक साँप को कि, गंगदत्त = गंगदत्त नामक मेंढक, पुनः = दोबारा, कूपम् = कुएँ में, न एति = नहीं आयेगा। (इ गत्यर्थक धातु से लट् लकार प्रथम पु० एकवचन निकट भविष्य में लट् का प्रयोग हुआ है।
हिन्दी-अनुवाद-वानर की उस बात को सुनकर लज्जित हुए मगरमच्छ ने सोचा- अरे! बड़े दुःख की बात है। मुझ मूर्ख ने इसे अपने हृदय की बात किसलिए बता दी। यह किसी प्रकार पुनः मेरा विश्वास कर ले ऐसा भरोसा दिलाने का प्रयास करता हूँ। "वह बोला-मित्र! मैंने तो हंसी मजाक में वह बात कही थी। मेरी पत्नी को आपके हृदय से कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिए आप अतिथि के रूप में हमारे घर चलिए । आपकी भाभी उत्सुकता से आपकी प्रतीक्षा कर रही है।" तब बन्दर ने कहा 'अरे दुष्ट! चले जाओ। अब मैं नहीं आऊँगा। किसी ने कहा भी है कि
भूखा कौन सा पाप नहीं कर सकता। यानि वह कुछ भी कर सकता है। क्योंकि भूखे लोग निर्दयी होते हैं। इसलिए अरी प्रिये! प्रियदर्शन नामक साँप को कह देना कि गंगदत्त (मेंढक) पुनः कुएँ में नहीं आयेगा।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत्।।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति॥4॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-अविश्वस्ते = विश्वास के अयोग्य पर, न विश्वसेत् = विश्वास न करे। विश्वस्तेऽपि विश्वसनीय पर भी, न विश्वसेत् = विश्वास न करे, विश्वासाद् = विश्वास से, उत्पन्नम् = पैदा हुआ, भयम् = डर, मूलान्यपि = (मूलानि + अपि यण् सन्धि) मूलों को भी, निकृन्तति = नष्ट कर देता है।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिकारों का कहना है कि अविश्वसनीय पर तो कभी विश्वास करे ही नहीं अपितु विश्वसनीय पर भी विश्वास न करे क्योंकि विश्वास से उत्पन्न भय मनुष्य को समूल नष्ट कर देता है।
तन्मम एतदद्य पुनर्जन्मदिनमिव सञ्जातम्। इति चिन्त्यमानं मकर आह-"भोः मित्र! अर्पय तद् हृदयं यथा ते भातृपत्नी भक्षयित्वा अनशनादुत्तिष्ठति।" अथ विहस्य निर्भर्त्सयन् वानरस्तमाह-"धिक् धिक् मूर्ख! विश्वासघातक किं कस्यचित् हृदयद्वयं भवति ? तदाशु गम्यताम् जम्बुवृक्षस्य अधस्तात्, न भूयोऽपि त्वया अत्र आगन्तव्यम्। उक्तञ्च यत:-"
सकृदुष्टञ्च यो मित्रं पुनः सन्धातुमिच्छति।।
स मृत्युमुपगृह्णाति गर्भमश्वतरी यथा ॥15॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तन्मम = (तत् + मम परसवर्ण व्यंजनसन्धि) इसलिए मेरा, एतद् = यह, पुनर्जन्मदिनमिव पुनः जन्म जैसा, सञ्जातम् = हुआ है। इति = ऐसा, विचिन्त्यमानम् = सोचते हुए वानर को, मकरः=मगरमच्छ, आह = बोला, अर्पय = दे दो, तद्हृदयम् = उस अपने हृदय को, यथा = ताकि, ते तुम्हारी, भातृपत्नी भाभी, भक्षयित्वा = खाकर (भक्ष् + क्त्वा), अनशनात् = (न अशन अनशन नञ् तत्पु० समास तस्मात्) भूख-हड़ताल से, उत्तिष्ठति = उठ जायेगी। अथ तब यानि उसकी इस बात को सुनने के पश्चात्, विहस्य = (वि हस् + ल्यप्) हंसकर, निर्भतर्क्सयन् = डाँटते हुए, तम् = उसको, आह = बोला, धिधिक - तुम्हें धिक्कार है, विश्वासघातक = विश्वास को तोड़ने वाले, किम् = क्या, कस्यचित् = किसी के, हृदयद्वयम् = दो हृदय, भवति = होते हैं । तदाशु = (तत् + आशु व्यंजनसन्धि) इसलिए शीघ्र ही, गम्यताम् = चले जाइये, जम्बूवृक्षस्य = जामुन के पेड़ के, अधस्तात् = नीचे से, भूयः अपि = दोबारा कभी, त्वया = तेरे द्वारा, अत्र = यहाँ, न आगन्तव्यम् = (आ + गम् + तव्यत्) = न आना, यतः = क्योंकि ,सकृद् = एक बार, दुष्टम् = दुष्ट बने हुए, मित्रम् = मित्र से, यः जो, पुनः = दोबारा, सन्धातुमिच्छति = सन्धि करना चाहता है। सः = वह, मृत्युम् = अपने मौत को, उपगृह्णाति आमन्त्रित करता है, यथा = ठीक उसी प्रकार जैसे, अश्वतरी = खच्चर, गर्भम् = गर्भधारण करके (घोड़ी और गधे के संयोग से खच्चर प्रजाति बनती है। खच्चर कभी बच्चे नहीं देती है। यदि नर एवं मादा खच्चर का संयोग होने दिया जाये और वह गर्भधारण कर ले तो उसकी मृत्यु हो जाती है।)
-वानर बोला यह तो आज मेरा पुनर्जन्म सा हुआ है। ऐसा सोचते हुए वानर को मकर ने कहा"अरे मित्र ! उस हृदय को दे दो ताकि उसे खाकर आपकी भाभी अपना अनशन व्रत तोड़ दे।" तब हंसकर और मकर को डाँटते हुए वानर ने कहा-"मूर्ख तुझे धिक्कार है। अरे विश्वासघातक क्या कभी किसी जीव के दो हृदय भी होते हैं।" इसलिए ऐसा करो कि इस जामुन के पेड़ के नीचे से शीघ्रता से चले जाओ और पुनः कभी भी तू यहाँ मत आना। क्योंकि किसी ने कहा है कि,एक बार जो मित्र अपनी दुष्टता दिखा देता है ऐसे मित्र से जो पुनः मैत्री करना चाहता है मानो वह ठीक उसी तरह अपनी मौत को आमन्त्रित करता है जिस प्रकार गर्भ धारण करके खच्चर अपनी मौत को आमन्त्रित कर लेती है। ॥ 15 ॥
तत् श्रुत्वा मकरः सविलासं चिन्तितवान् “अहो! मया मतिमूढेन किमस्य स्वचित्ताभिप्रायो निवेदितः ? तद्यदि असौ पुनरपि कथञ्चिद्विश्वासं गच्छति, तद्भूयोऽपि विश्वासयामि।" आह च "मित्र! हास्येन मया तेऽभिप्रायो लब्धः। तस्या न किञ्चित् तव हृदयेन प्रयोजनम्। तत् आगच्छ प्राघुणिकन्यायेन अस्मद्गृहम्। तव भातृपत्नी सोत्कण्ठा वर्तते।" वानर आह 'भो दुष्ट! गम्यताम्। अधुना नाहमागमिष्यामि।" उक्तञ्च
बुभुक्षितः किं न करोति पापं
क्षीणा जनानिष्करुणा भवन्ति।
आख्याहि भद्रे प्रियदर्शनस्य
न गंगदत्त पुनरेति कूपम्॥16॥
शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = वानर की उस बात को, श्रुत्वा = सुनकर, मकरः = मगरमच्छ, सविलक्षम् = लज्जा से युक्त होकर (लज्जित हुआ), चिन्तितवान् = (चिन्त + क्तवतु) सोचने लगा, अहो = दुःखसूचक अव्यय, मया मुझ, मन्तिमूढेन = मूर्ख द्वारा, किम् = क्यों, अस्य = इसके साथ, स्वचित्ताभिप्रायः = अपने मन की बात, निवेदितः कह दी। तद्यदि = (तत् + यदि व्यंजनसन्धि) इसलिए, असौ = यह, पुनरपि (पुनः + अपि विसर्गसन्धि) दोबारा, कथञ्चिात् = किसी प्रकार, विश्वासं गच्छति = विश्वास कर ले, तद् = तो भूयोऽपि = पुनः, विश्वासयामि = विश्वास "च = और, आह = बोला, हास्येन = मजाक में, मया = मैंने, ते = तुम्हारा, अभिप्रायः = प्रयोजन, लब्धः
जानने का प्रयास किया था। तस्याः = उसे, तव हृदयेन = तुम्हारे हृदय से, न किञ्चित् = कुछ भी, प्रयोजन न = लेना देना नहीं है। तत् = इसलिए, प्राघुणिकन्यायेन = मेहमान के रूप में, अस्मद्गृहम् = हमारे घर, आगच्छ = आओ। तव = तुम्हारी, भातृपत्नी = भावी, सोत्कण्ठा उत्सुक, वर्तते = है। गम्यताम् = चले जाइये, अधुना = अब, अहम् = मैं, न आगमिष्यामि = नहीं आऊँगा। उक्तञ्च = किसी ने कहा भी है कि,,,
बुभुक्षितः = भूखा, किम् = किस, पापम् = बुरे कार्य को, न करोति = नहीं करता अर्थात् वह कुछ भी कर सकता है, क्षीणाः जनाः = भूखे लोग, निष्करुणा = निर्दयी, भवन्ति = होते हैं। भद्रे! = हे प्रिये! आख्याहि = कह देना, प्रियदर्शनस्य = प्रियदर्शन नामक साँप को कि, गंगदत्त = गंगदत्त नामक मेंढक, पुनः = दोबारा, कूपम् = कुएँ में, न एति = नहीं आयेगा। (इ गत्यर्थक धातु से लट् लकार प्रथम पु० एकवचन निकट भविष्य में लट् का प्रयोग हुआ है।
हिन्दी-अनुवाद-वानर की उस बात को सुनकर लज्जित हुए मगरमच्छ ने सोचा- अरे! बड़े दुःख की बात है। मुझ मूर्ख ने इसे अपने हृदय की बात किसलिए बता दी। यह किसी प्रकार पुनः मेरा विश्वास कर ले ऐसा भरोसा दिलाने का प्रयास करता हूँ। "वह बोला-मित्र! मैंने तो हंसी मजाक में वह बात कही थी। मेरी पत्नी को आपके हृदय से कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिए आप अतिथि के रूप में हमारे घर चलिए । आपकी भाभी उत्सुकता से आपकी प्रतीक्षा कर रही है।" तब बन्दर ने कहा 'अरे दुष्ट! चले जाओ। अब मैं नहीं आऊँगा। किसी ने कहा भी है कि
भूखा कौन सा पाप नहीं कर सकता। यानि वह कुछ भी कर सकता है। क्योंकि भूखे लोग निर्दयी होते हैं। इसलिए अरी प्रिये! प्रियदर्शन नामक साँप को कह देना कि गंगदत्त (मेंढक) पुनः कुएँ में नहीं आयेगा।
Mohini sharma
ReplyDeleteSr no.18
History
Name Simran kour
ReplyDeleteSr no 36
Major history
VIVEk Kumar Pol science sr no 38 dehri
ReplyDeleteName Akshita Kumari Major Political Science Sr.No.70
ReplyDeletePoonam devi sr no 23 major political science dehri
ReplyDeleteSejal Kasav
ReplyDeleteMajor sub.- Pol science
Minor sub.- hindi
Sr.no.-01
Pallavi pathania majer history sr.45
ReplyDeleteAkriti choudhary
ReplyDeleteMajor history
Sr.no 11
Mehak
ReplyDeleteSr.no.34
Major Political science
Monika kalia s
ReplyDeleteSrno23
Major history
Name Richa Sr.no 35
ReplyDeleteMajor hindi
Mamta Devi major history
ReplyDeleteName palvinder kaur major history sr no 9
ReplyDeleteShivam choudhary
ReplyDeleteSr. No. 78
Major political science
Tanvi Kumari
ReplyDeleteSR.no. 69
Major. Pol.science
ektaekta982@gmail.com
ReplyDeleteVarsha Devi Pol 24
Monika kalia
ReplyDeleteSrno 23
Major history
Jagriti Sharma
ReplyDeleteSerial no. 2
Major-Hindi
Anjlee
ReplyDeleteSr no.36
Major history
Arti Sharma
ReplyDeleteSr no 32
Major hindi
Major history
ReplyDeleteSr no 29
Leela devi sr no 41 major hindi
ReplyDeleteRiya thakur
ReplyDeleteSt. No. 22
Major political science
Anshika kumari
ReplyDeleteSr. No. 7
Riya thakur
ReplyDeleteSr no. 22
Major political science
Riya thakur
ReplyDeleteSr. No. 22
Major political science
Name : Priti
ReplyDeleteSr.no.24
Name Shivani
ReplyDeleteSr no 46
Major Hindi
Minor history
Priyanka Devi
ReplyDeleteSr.no.23
Major history
Name rahul kumar
ReplyDeleteMajor history
Sr no. 92
Anjli
ReplyDeleteMajor-Political science
Minor-history
sr.no-73
Komal major hindi sr no 43
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ReplyDeleteName Priya major history sr no 6
ReplyDeleteSourabh singh major Hindi minor history Sr no 20
ReplyDeleteRishav sharma major pol science sr no 65
ReplyDeleteChetna choudhary Major pol science sr no 13
ReplyDeleteDivya Kumari sr.no 60
ReplyDeletePooja Choudhary
ReplyDeleteSr 18
Major Hindi
Name -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Sr. No. -76
Name -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Sr. No. -76
Tanu guleria
ReplyDeleteSr. No.32
Major political science
Shikha
ReplyDeleteSr.no.7
Major history
Monika Dadwal
ReplyDeleteMajor History
Sr No 72
sonali dhiman major political science Sr. no. 19
ReplyDeleteKajal pathania major history Sr no 14
ReplyDeleteIsha devi
ReplyDeleteSr. No 28
Major history
Name Sakshi
ReplyDeleteSr no 14
Major hindi
Minor history
Bharti choudhary major political science and minor Hindi Sr no 30
ReplyDeleteName - Riya
ReplyDeleteSr. No.49
Major- political science
Minor- history
VIVEk kumar major political science sr no 38
ReplyDeleteShivam choudhary
ReplyDeleteSr. No. 78
Major political science
Priyanka choudhary major political science and minor Hindi sr no 12
ReplyDeleteMamta devi major history sr no77
ReplyDeleteVarsha Devi
ReplyDeleteSr no. 24
Major political science
Sejal Kasav
ReplyDeleteMajor sub.-pol science
Minor sub.-hindi
Sr.no.-01
Divya Kumari major political science sr.no 60.
ReplyDeleteSourabh singh major Hindi minor history Sr no 20
ReplyDeleteMamta Bhardwaj
ReplyDeleteSr no. 01
Major history
Anjli
ReplyDeleteMajor political science
Minor history
sr.no 73
Mamta Bhardwaj
ReplyDeleteSr no. 01
Major history
Jagriti Sharma
ReplyDeleteRoll no. 2001HI003
Major-Hindi
Mehak
ReplyDeleteSr.no.34
Major political science
Monika kalia
ReplyDeleteRollno2001HS 014
Major history
Shivani
ReplyDeleteSr no. 46
Major Hindi
Minor History
Name:Palak
ReplyDeleteSr. No. 22
Major:Hindi
Komal major hindi sr no 43
ReplyDeleteTaniya sharma
ReplyDeletePol. Science
Sr no. 21
Akshita kumari major political science sr no 70
ReplyDeletePooja Choudhary sr no 18 Major Hindi
ReplyDeleteName Priya major history roll number 2991HS029
ReplyDeleteName monikasharma
ReplyDeleteMajor hindi
Minor history
Roll no.2001HI004
Name jyotika Kumari Major hindi
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DeleteName rahul kumar
ReplyDeleteMajor history.
Sr no. 92
Pallvi choudhary
ReplyDeleteMajor-pol.sc
Minor-history
Sr.no-72
Name monikasharma sr no.26 major hindi sr no.26
ReplyDeleteTanvi Kumari
ReplyDeleteSr. No. 69
Major . Political science
Sonali dhiman major political science sr no. 19
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