छन्द
💬 छन्द शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। "छन्दस्" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेय-व्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर 'छन्द' का नाम दिया जाता है।
छन्दशास्त्र इसलिये अत्यन्त पुष्ट शास्त्र माना जाता है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुतः देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छन्दशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम सन्तति इसके नियमों के आधार पर छन्दरचना कर सके। छन्दशास्त्र के ग्रन्थों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर प्रस्तार आदि के द्वारा आचार्य छन्दो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छन्दों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छन्दों की सृष्टि करते रहे जिनका छन्दशास्त्र के ग्रन्थों में कालान्तर में समावेश हो गया।
💫इतिहास
छन्दशास्त्र की रचना कब हुई, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार नहीं दिया जा सकता। किंवदन्ति है कि महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं और उनका रामायण नामक काव्य आदिकाव्य है। 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गमः शाश्वती समाः यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधिः, काममोहितं' -
यह अनुष्टुप छन्द वाल्मीकि के मुख से निकला हुआ प्रथम छन्द है जो शोक के कारण सहसा श्लोक के रूप में प्रकट हुआ। यदि इस किंवदन्ती को मान लिया जाए, छन्द की रचना पहले हुई और छन्दशास्त्र उसके पश्चात् आया। वाल्मीकीय रामायण में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग आद्योपान्त हुआ ही है, अन्य उपजाति आदि का भी प्रयोग प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।
छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं :
वैदिक छन्द
वैदिक छंद
जिनका प्रयोंग वेदों में प्राप्त होता है। इनमें ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है, यथा "अनुष्टुप" इत्यादि। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं।
💫लौकिक छन्द संपादित करें
इनका प्रयोग साहत्यांतर्गत किया जाता हैं, किंतु वस्तुत: लौकिक छंद वे छंद हैं जिनका प्रचार सामान्य लोक अथवा जनसमुदाय में रहता है। ये छंद किसी निश्चित नियम पर आधारित न होकर विशेषत: ताल और लय पर ही आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अपठित जन भी कर लेते हैं। लौकिक छंदों से तात्पर्य होता है उन छंदों से जिनकी रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है और जिनका प्रयोग सुपठित कवि काव्यादि रचना में करते हैं। इन लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गए हैं उसे छंदशास्त्र कहते हैं।
💫छन्दों का वर्गीकरण
छंदों का विभाजन वर्णों और मात्राओं के आधार पर किया गया है। छंद प्रथमत: दो प्रकार के माने गए है : वर्णिक और मात्रिक।
💫वर्णिक छन्द
इनमें वृत्तों की संख्या निश्चित रहती है। इसके दो भी प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।
गणात्मक वणिंक छंदों को वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु और दीर्घ गणों से बने हुए गणों के आधार पर होती है। लघु तथा दीर्घ के विचार से यदि वर्णों क प्रस्तारव्यवस्था की जाए आठ रूप बनते हैं। इन्हीं को "आठ गण" कहते हैं इनमें भ, न, म, य शुभ गण माने गए हैं और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। वाक्य के आदि में प्रथम चार गणों का प्रयोग उचित है, अंतिम चार का प्रयोग निषिद्ध है। यदि अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद का ही प्रयोग करना है, देवतावाची या मंगलवाची वर्ण अथवा शब्द का प्रयोग प्रथम करना चाहिए - इससे गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है। वर्णों के लघु एवं दीर्घ मानने का भी नियम है। लघु स्वर अथवा एक मात्रावाले वर्ण लघु अथवा ह्रस्व माने गए और इसमें एक मात्रा मानी गई है। दीर्घ स्वरों से युक्त संयुक्त वर्णों से पूर्व का लघु वर्ण भी विसर्ग युक्त और अनुस्वार वर्ण तथा छंद का वर्ण दीर्घ माना जाता है।
💫यमाताराजभानसलगाः ( या, यमाताराजभानसलगं )
जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड़ लेते हैं और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगा लेते हैं, जैसे:
यगण - यमाता =। ऽ ऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽ ऽ ऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽ ऽ। अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ। ऽ मध्यलघु
जगण - जभान =। ऽ। मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ।। आदिगुरु
नगण - नसल =।। । सर्वलघु
सगण - सलगाः =।। ऽ अन्तगुरु
मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है। जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया।
💫हरिगीतिका
हरिगीतिका छन्द में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए। इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं; जैसे
।। ऽ। ऽ ऽ ऽ।ऽ।।ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
गीतिका संपादित करें
इस छन्द में प्रत्येक चरण में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है। जैसे:
ऽ। ऽ ॥ ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।
चंचलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥
सम, विषम, अर्धसम छन्द
छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। इस प्रकार छंद सम, विषम, अर्धसम होते है।
💫सम छंदों में छंद के चारों चरणों में वर्णस्वरसंख्या समान रहती है।
💫अर्धसम में प्रथम, तृतीय और द्वितीय तथा चतुर्थ में वर्णस्वर संख्या समान रहती है।
💫विषम छंद के चारों चरणों में वर्णों एवं स्वरों की संख्या असमान रहती है। ये वर्ण परस्पर पृथक् होते हैं
💬यति
लघु छंदों को छोड़कर बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, उसमें रचना के रुकने का स्थान निर्धारित किया जाता है। इस विरामस्थल को यति कहते हैं।
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