माघ (घण्टामाघ)
माघ (घण्टामाघ)
शिशुपाल-वध' नामक युगप्रवर्तक महाकाव्य के प्रणेता।
अपनी विशिष्ट शैली के कारण 'शिशुपाल-वध' संस्कृत
महाकाव्य की 'बृहत्त्रयी' में द्वितीय स्थान का अधिकारी रहा है।
माघ की विद्वत्ता, महनीयता,प्रौढता व उदात्त काव्यशैली के संबंध
में संस्कृत ग्रंथों मेंअनेक प्रकार की प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं।स्वयं
माघ ने ही'शिशुपाल-वध' के अंत में 5 श्लोकों में अपने वंश का
वर्णन किया है। तदनुसार माघ के पितामह का नाम सुप्रभदेव
था और वे श्रीवर्मल नामक किसी राजा के प्रधान मंत्री थे।
सुप्रभदेव के पुत्र का नाम दत्त या दत्तक था, जो अत्यंत
गुणवान् थे, और इन्हीं के पुत्र माघ थे।
माघ का जन्म भिन्नमाल या भीमाल नामक स्थान में
हुआ था। इस स्थान का उल्लेख 'शिशुपाल-वध' की कतिपय
प्राचीन प्रतियों में मिलता है। विद्वानों का अनुमान है कि यही
भिन्नमाल का भीनमाल कालांतर में श्रीमाल हो गया था|
प्रभाचंद्र रचित 'प्रभाकरचरित' में माघ को श्रीमाल-निवासी कहा
गया है। प्रभाचंद्र ने श्रीमाल के राजा का नाम वर्मलात और
मंत्री का नाम सुप्रभदेव लिखा है (प्रभाकर-चरित, 14-5-10) ।
यह स्थान अभी भी राजस्थान में श्रीमाली नगर के नाम से
विख्यात है तथा गुजरात की सीमा से अल्यंत निकट है। माघ
ने जिस रैवतक पर्वत का वर्णन अपने 'शिशुपाल-वध' में
किया है, वह राजस्थान में ही है। इन प्रमाणों के आधार पर
विद्वानों ने माघ को राजस्थानी श्रीमाली ब्राह्मण कहा है।
माघ का समय ई.7 वीं शती से 11 वीं शती तक
माना जाता रहा है। राजस्थान के वसंतपुर नामक स्थान में
राजा वर्मलात का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसका समय
625 ई. है। यह समय माघ के पितामह सुप्रभदेव का है।
अतः यदि इसमें 50 वर्ष जोड दिये गये जायें, तो मात्र का
समय 675 ई. माना जा सकता है। 'शिशुपाल-वध' के एक
श्लोक (2-114) में माघ ने राजनीति की विशेषता बताते
समय उध्दव के कथन में राजनीति व शब्दविद्या दोनों का
प्रयोग एक-साथ श्लिष्ट उपमा के रूप में किया है। इसमें
काशिकावृत्ति (650 ई.) तथा उस पर जिनेंद्रबुद्धि रचित
न्यास-पथ (700 ई.) का संकेत है। इससे सिद्ध होता है
कि "शिशुपाल-वध" की रचना 700 ई. के बाद हुई है।
सोमदेव कृत यशस्तिलकचंपू' (959 ई.) में माघ का उल्लेख
प्राप्त होता है तथा 'ध्वन्यालोक' में 'शिशुपाल-वध' के दो
श्लोक (3-53 व 5-26) उद्धृत हैं। 'शिशुपाल वध' पर
भारवि तथा भट्टि दोनों का प्रभाव लक्षित होता है। अतः
इनका समय ई.7 वीं शती का उत्तरार्ध माना जा सकता है।
माध-प्रणीत एकमात्र ग्रंथ- 'शिशुपाल-वध' है। इस महाकाव्य
की कथावस्तु का आधार महाभारतीय कथा है जिसे माय ने
अपनी प्रतिभा के बल पर रमणीय रूप दिया है। माघ का
व्यक्तित्व एक पंडित कवि का है। उनका आविर्भाव संस्कृत
महाकाव्य की उस परंपरा में हुआ था, जिसमें शास्त्र-काव्य
एवं अलंकृत-काव्य की रचना हुई थी। इस युग में पांडिल्य-रहित
कवित्व को कम महत्व प्राप्त होता था। अतः माघ ने
स्थान-स्थान पर अपने अपूर्व पांडिल्य का परिचय दिया है।
ये महावैयाकरण, दार्शनिक, राजनीतिशास्त्र विशारद एवं नीतिशास्त्री
भी थे। बौद्ध-दर्शन के सूक्ष्म भेदों का भी इन्हें ज्ञान था।
इन्होंने एक ही श्लोक (2-28) के अंतर्गत, राजनीति व
बौद्ध-दर्शन के मूल सिद्धातों का विवेचन किया है। इन शास्त्रों
के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र, व्याकरण, संगीतशास्त्र, अलंकारशास्त्र,
कामशास्त्र एवं अश्वविद्या के भी परिशीलन का परिचय महाकवि
माघ ने अपने महाकाव्य में यत्र-तत्र दिया है। इनका प्रत्येक
वर्णन, प्रत्येक भाव, अलंकृत भाषा में ही अभिव्यक्त किया
गया है। इनका काव्य कठिनता के लिये प्रसिद्ध है और
इन्होंने कहीं-कहीं चित्रालंकार का प्रयोग कर उसे जानबूझकर
कठिन बना दिया है।
'उदयति विततो रश्मिरनी।
अहिमरची-हिमपानि याति चास्तम्।
दयपरिवारित-वारणेन्द्रलीलाम् 14-20।।
अर्थ- एक ओर से प्रदीर्घ और अर्ध्वगामी वकिरणों के रज्जु
धारण करने वाले तेजस्वी सूर्य का उदय तथा दूसरी ओर से
शीतरष्मि चन्द्रमा का अस्त होते समय, यह ( रैवतक) पर्वत,
दोनों ओर लटकनेवाली घंटा धारण करने वाले गजेन्द्र की
शोभा धारण करता है। इस श्लोक में घण्टा की अपूर्व उपमा
के कारण उत्तरकालीन रसिकों ने इन्हें 'घण्टामाघ' की उपाधि दी है।
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