✡️शतकत्रय के रचयिता महाकवि भर्तृहरि ✡️
🏵️भर्तृहरि का जीवन परिचय,🏵️
भर्तृहरि संस्कृत साहित्य के एक ऐसे लोकप्रिय कवि हैं जिनके नाम से पढ़े लिखे अथवा अनपढ़ सभी भारतीय परिचित हैं। इनका पूरा नाम गोपीचन्द भर्तृहरि था जो लोक में तथा लोकगाथाओं में गोपीचन्द भरथरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये ऐसे व्यक्ति थे जिन पर सरस्वती और लक्ष्मी की अपार कृपा थी। कारण यह कि भर्तृहरि विद्वान् लेखक तो थे ही साथ ही वे उज्जैन (मध्यप्रदेश) के राजा भी थे। जनश्रुति के अनुसार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व भर्तृहरि जी मध्यप्रदेश में स्थित उज्जयिनी के राजा थे। ये परमार वंश में उत्पन्न हुए थे तथा विक्रमादित्य इनके छोटे भाई थे। ये वही विक्रमादित्य माने जाते हैं, जिन्होंने 57 ई० पू० में विक्रम संवत् चलाया था। विदेशी आक्रान्ताओं को भारत से भगाने के कारण विक्रमादित्य लोक कथाओं में वीर विक्रमाजीत के नाम से लोकविख्यात हुए हैं। विक्रमादित्य भर्तृहरि के भाई होने के कारण उनके मन्त्री थे। बाद में विद्याविलासी एवं ईश्वरभक्त भर्तृहरि ने विक्रमादित्य को ही राजकाज सौंप दिया था।
जनश्रुति है कि भर्तृहरि के तीन रानियाँ थीं। उनमें से सबसे छोटी का नाम पिंगला था। जो परमसुन्दरी थी तथा भर्तृहरि उसके मोहपाश में फंसे हुए थे। पिंगला भर्तृहरि को अपनी अंगुलियों पर नचाती थी। वे उसकी हर बात मानते थे। पिंगला सुन्दर होने के साथ-साथ व्यभिचारिणी भी हो गयी थी। राजकीय घुड़शाला के दरोगा के साथ उसके अवैध सम्बन्ध थे। पिंगला के मोहपाश में बँधे होने के कारण और स्त्रिया चरित्र के चलते भर्तृहरि इस बात को नहीं जान सके। परन्तु उनके छोटे भाई विक्रमादित्य को पिंगला के अवैध सम्बन्धों का पता चल गया। जब परिस्थितियाँ हद को पार करने लगी तो एक दिन साहस करके विक्रमादित्य ने यह बात भर्तृहरि जी से निवेदन कर दी। भर्तृहरि ने इसे उसका भ्रम बताया और चेतावनी दी कि वह भविष्य में ऐसी बात न करें। भर्तृहरि के न कहने पर भी किसी प्रकार इस शिकायत का पता पिंगला को लग गया। पिंगला ने विक्रमादित्य से बदला लेना चाहा। उसने भर्तृहरि से शिकायत की कि वह चरित्रहीन है और मुझे बुरी नज़र से देखता है। मुझे भी उनके इस कुकर्म पर भरोसा नहीं हो रहा था। परन्तु जब नगर के सेठ ने मुझे बताया कि वह मेरी पुत्रवधू के साथ अवैध सम्बन्ध स्थापित कर रहा है; तो मेरा शक विश्वास में बदल गया। पिंगला ने डरा धमका कर तथा लालच देकर अगले ही दिन नगर के सेठ को भर्तृहरि के पास झूठी शिकायत करने भेज दिया। उसने आकर भर्तृहरि से अपने परिवार के शील की रक्षा करने और विक्रमादित्य को दण्ड देने की प्रार्थना की। इस घटना से भर्तृहरि के मन में पिंगला द्वारा उत्पन्न किया गया शक विश्वास में बदल गया। राजा ने विक्रमादित्य को बुलाकर देश निकाला दे दिया।
इस घटना के वर्षों पश्चात् कोई ब्राह्मण राजा भर्तृहरि के पास एक अमर फल लेकर उपस्थित हुआ। फल की प्राप्ति के विषय में पूछे जाने पर उसने बताया कि मेरे उपास्य देव ने प्रसन्न होकर मुझे यह फल दिया है जिसके खाने से अमरत्व की प्राप्ति हो जाती है। मैं और मेरा परिवार ग़रीबी से पीड़ित है। अतः हमने सोचा कि यह फल राजा को दे दिया जाये ताकि कुछ धन की प्राप्ति हो। राजा ने ब्राह्मण को प्रचुर धन देकर वह फल ले लिया। राजा क्योंकि पिंगला को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे, इसलिए उन्होंने यह फल पिंगला को दे दिया पिंगला घुड़शाला के दरोगा से प्यार करती थी उसने वह फल अपने चहेते दरोगा को दे दिया। दरोगा वस्तुतः किसी वेश्या से प्रेम करता था उसने वह फल वेश्या को दे दिया। जब फल वेश्या के पास पहुँचा तो उसने सोचा कि यदि मैं इस फल को खाती हूँ तो अमर होकर अनन्तकाल तक वेश्यावृत्ति रूपी इस कुकर्म को करूंगी जो उचित नहीं है। इससे अच्छा है कि मैं यह फल अपने प्रजापालक राजा भर्तृहरि को दे दूँ ताकि वे अनन्तकाल तक प्रजाओं को सुख दे सकें। ऐसा सोचकर उसने वह फल राजा को दे दिया।
फल को पाकर राजा आश्चर्य चकित हो गया। छानबीन करने पर राजा को फल की यात्रा के सभी पड़ावों का पता चल गया। इस घटना से उनके मन में वैराग्य का तीव्र भाव जाग उठा। उन्होंने किसी को भी कुछ कहे वगैर संन्याय लेने का निश्चय किया। उन्होंने राजदूतों के माध्यम से विक्रमादित्य का पता लगाकर उसे बुलाया तथा उससे अपने अपराध की क्षमा मांगी और राज्य उसे सौंप दिया। भर्तृहरि संन्यासी होकर चले गये।
भर्तृहरि के जीवन का यह प्रसंग यद्यपि किम्वदन्ती पर आधारित है तथापि इन्हीं की रचना नीतिशतक में उपलब्ध निम्नश्लोक इसकी सत्यता की पुष्टि करता है। श्लोक है
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च॥
वैरागी भर्तृहरि शिव के परम भक्त थे। यद्यपि डॉ० कीथ ने उन्हें बौद्ध बताया है तथापि उनकी रचनाओं में अनेक ऐसे प्रमाण हैं जहाँ उन्होंने शिव, एवं ब्रह्म का वर्णन किया है। जैसे "शम्भु स्वयंभू हरयो हरिणेक्षणानाम्" शृंगार शतक के इस प्रथम पद्य में भर्तृहरि जी ने शिव, ब्रह्म और विष्णु का स्मरण किया है। इसी प्रकार वैराग्यशतक में एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि मेरी दृष्टि में ब्रह्म, विष्णु और महेश एक ही हैं। यथा
महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।
तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे॥
स्पष्ट है कि कि वे शैव थे। उनका शैव होना वैराग्यशतक के उनके निम्न पद्यांश से भी सिद्ध होता हैं जहाँ उन्होंने कहा है कि संसार में केवल शिव ही निर्भय के दाता है। यथा
"सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्।"
इनके गुरु का नाम वसुरात था, जिन्होंने “आगमसंग्रह" नामक व्याकरण की पुस्तक की रचना की थी। इस तथ्य का संकेत भर्तृहरि जी ने स्वयं अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड में किया है।
🏵️भर्तृहरि का स्थितिकाल 🏵️
संस्कृत के अन्य विद्वानों की तरह ही भर्तृहरि जी ने भी अपने विषय में कुछ नहीं लिखा है। इसलिए विद्वानों ने आन्तरिक एवं बाह्य प्रमाणों का आश्रय लेकर इनके कालनिर्धारण का प्रयास किया है।
उनके जीवन से सम्बन्धित उपर्युक्त किम्वदन्ती को यदि सत्य माना जाये तो इनका काल ईसा से कुछ वर्ष पूर्व माना जा सकता है क्योंकि भर्तृहरि के अनुज विक्रमादित्य ने ही 57 ई० पू० से विक्रम संवत् का प्रारम्भ किया था।
दूसरा मत डॉ. कीथ महोदय का है जो भर्तृहरि की मृत्यु 651 ई० के पास मानते हैं। कीथ महोदय ने अपने मत की पुष्टि में चीनी यात्री इत्सिंग के उस कथन को प्रस्तुत किया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि मेरे भारत पहुँचने से चालीस वर्ष पूर्व प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि की मृत्यु हो चुकी थी। चीनी यात्री इत्सिंग महोदय ने भारत की यात्रा 690 ई० के बाद की है, अतः भर्तृहरि का काल छठी शताब्दी का उत्तरार्थ और सप्तमका पूर्वार्ध माना जाता है। परन्तु इत्सिंग ने जिस भर्तृहरि का उल्लेख किया है; उसे बौद्ध बताया है जबकि गोपीचन्द भर्तृहरि बौद्ध प्रतीत नहीं होते हैं। अतः कीथ महोदय द्वारा निर्धारित काल से विद्वान् सहमत नहीं हैं।
भारतीय विद्वानों का कहना है कि कातन्त्र के व्याख्याकार दुर्गसिंह ने भर्तृहरि द्वारा रचित "वाक्यपदीय" से एक कारिका उद्धृत की है। अत: भर्तृहरि दुर्गसिंह से बहुत पहले हुए होंगे। दुर्गसिंह का काल सातवीं शताब्दी से बहुत पहले का है। इसी प्रकार वाग्भट्ट के "अष्टांगसंग्रह" में भर्तृहरि के 'वाक्यपदीय' के द्वितीय काण्ड से "संयोगोविप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता" आदि दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं। वाग्भट्ट चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन थे। अतः भर्तृहरि का काल चौथी शताब्दी से भी पहले का निर्धारित होता है।
☸️भर्तृहरि की रचनाएँ☸️
काशी के प्रसिद्ध आर्यसमाजी विद्वान् युधिष्ठिर मीमांसक ने अपनी 'संस्कृतव्याकरणसाहित्य का इतिहास' नामक में भर्तृहरि की निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख किया है
1. महाभाष्यदीपिका-यह महर्षि पाणिनि विरचित अष्टाध्यायी की व्याख्या है।
2. वाक्यपदीय-यह भी संस्कृत व्याकरण का उच्चकोटि का ग्रन्थ है।
3. वाक्यपदीय टीका-यह ग्रन्थ अपने ही अत्यन्त क्लिष्ट ग्रन्थ वाक्यपदीय पर भर्तृहरि द्वारा स्वयं लिखी गयी टीका है। जो वाक्यपदीय के तीन काण्डों में से पहले दो पर ही लिखी गयी है।
4. मीमांसाभाष्य-मीमांसाभाष्य महर्षि गौतमविरचित मीमांसा सूत्रों की व्याख्या है।
5. वेदान्तसूत्रवृत्ति-यह ग्रन्थ महर्षि वेदव्यासविरचित वेदान्तसूत्रों की व्याख्या है
6. शब्दधातुसमीक्षा- यह भी व्याख्या सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें संस्कृतव्याकरण के शब्दों एवं धातुओं की स्वतन्त्र समीक्षा की गयी है। ☸️उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त भर्तृहरि की प्रसिद्धि का आधार उनके तीन शतक "शृंगारशतक, नीतिशतक और वैराग्यशतक" हैं। ये तीनों शतक खण्डकाव्य हैं तथा उनके अनुभव पर आधारित रचनाएँ हैं। उन्होंने युवावस्था में शृंगार का जो अनुभव किया उसे शृंगारशतक में तथा राज्य-संचालन में नीति का जो स्वरूप देखा उसे नीतिशतक में एवं सांसारिक भोगों में अरुचि हो जाने पर वैराग्य का जो अनुभव किया उसे वैराग्यशतक में वर्णित किया है। इनके तीनों शतकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
✡️शृंगारशतक✡️
शृंगारशतक में शताधिक पद्य हैं। यह मुक्तक काव्यों की श्रेणी में आता है। क्योंकि इसका प्रत्येक पद्य स्वयं में स्वतन्त्र अर्थ का द्योतक है। इसके श्लोकों का अर्थ जानने के लिए पूर्वापर सन्दर्भ की आवश्यकता नहीं होती है।
इसके प्रथम श्लोक में सौन्दर्य के देवता कामदेव को नमस्कार किया है। यथा-"तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय।" शृंगारशतक में स्त्रियों को बन्धन कहा है। यथा-समस्त भावैः खलु बन्धनं स्त्रियः। इसी प्रसंग में स्त्रियों के आभूषणों एवं पुरुषों को आकृष्ट करने वाले उनके भ्रूकटाक्ष, मधुरवाक्, लज्जापूर्णहास, धीमी चाल, आदि हाव-भावों का वर्णन किया है। भर्तृहरि कहते हैं कि लाल कमल सदृश आँखों वाली मृगनयनी तरुणियाँ सभी का मन हर लेती हैं। यथा"कुर्वन्ति कस्य न मनो विवशं तरुण्यो" कवि कहते हैं कि नारी की देह वैरागियों को भी क्षुब्ध कर देती है। जैसे
"मुक्तानां सतताधिवासरुचिरं वक्षोजकुंभद्वय
मित्थं तन्विवपुः प्रशान्तमपि ते क्षोभं करोत्येव न॥
भर्तृहरि जी कहते हैं कि इन मृगनयनी स्त्रियों के विना संसार शून्यस्वरूप ही है, वस्तुतः ये ही वास्तविक स्वर्गस्वरूपा हैं। कवि ने उन्हें ही घर का सौन्दर्य तथा उनके शरीर के भोग को ही परमपुण्य कहा है। साथ ही विरहीजनों की दशा का वर्णन किया है और कहा है कि प्रेमोन्मत्त नारियों को ब्रह्मा भी नहीं रोक पाता है। यथा
उन्मत्तप्रेम संरम्भादारभन्ते यदंगनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः॥
इस प्रकार शृंगारशतक में स्त्री सौन्दर्य, यौवन की उपभोग इच्छा एवं काम की दुर्वार्यता का वर्णन किया गया है। यह भर्तृहरि के यौवन के अनुभवों की रचना प्रतीत होती है। कवि ने काम को विवेक का हन्ता कहकर समाज को इससे बचने का उपदेश भी दिया है।
☸️नीतिशतक ☸️
नीतिशतक भर्तृहरि की विख्यात कृति है। शायद विरला ही कोई संस्कृतज्ञ होगा जिसे इस लोकविश्रुत शतक के पद्य कंठस्थ न हों। यह शतक ही वस्तुतः भर्तृहरि की कीर्ति का स्तम्भ है। इसमें उनके वे अनुभव संकलित प्रतीत होते हैं, जो उन्होंने राज्य संचालन में अनुभूत किये होंगे। यह भी मुक्तक काव्य है तथा इसमें 122 तक पद्य उपलब्ध होते हैं।
-नीतिशतक में सर्वप्रथम भर्तृहरि ब्रह्म को प्रणाम करते हैं। उसके पश्चात् उन्होंने वह प्रसिद्ध श्लोक लिखा है जिसके आधार पर उनके जीवनचरित की कल्पना की गयी है। यथा
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च॥
इसमें समस्त शृंगारिक भावों का खण्डन किया गया है। आगे नीति के विषय को दुर्जन- निन्दा, विद्वत्प्रसंशा, सत्संग का महत्त्व, धन का समुचित प्रयोग, तेजस्वी का स्वभाव, सेवाधर्म की कठिनाई, भाग्य की अटलता एवं परोपकार की प्रशंसा आदि पर केन्द्रित किया है। यहाँ कतिपय विषयों पर उनके विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
🏵️1. दुर्जननिन्दा-भर्तृहरि जी का मानना है कि दुर्जन दुराग्रही होते हैं उन्हें किसी भी प्रकार प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। मनुष्य मगरमच्छ की दाढ़ों से मणि निकाल सकता है, विकट तरंगों से युक्त समुद्र को भी तैर कर पार कर सकता है परन्तु मूर्ख को प्रसन्न करना अतीव कठिन है। वे कहते हैं कि
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
न तु प्रतिनिविष्ट मूर्खजन चित्तमाराधयेत्।
भर्तृहरि जी ने मूर्खता को छिपाने की एक ही विधि उनके लिए सर्वश्रेष्ठ बतायी है और वह है मौन रहना। यथा विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥
कवि जी का मानना है कि विश्व में हर रोग का निदान है, हर समस्या का हल है परन्तु मूर्ख को सुधारने की कोई औषधि नहीं है यथा
"सर्वस्यौषधमस्तिशास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्॥"
इसलिए भर्तृहरि जी का समाज को उपदेश है कि दुर्जन का संग न करें चाहे वह विद्याविभूषित ही क्यों न हो। यथा
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलड्कृतोऽपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः॥
🏵️विद्या एवं शिष्टाचार का महत्त्व-भर्तृहरि जी का मानना था कि मनुष्य वही है जो सुशिक्षित, सुशील, गुणी व धार्मिक तथा तपस्वी एवं दानी हो। जिनमें ये गुण नहीं है वे तो पृथ्वी पर भारस्वरूप हैं तथा मनुष्य के आकार में पशुओं की तरह जीवनव्यतीत करते हैं। यथा
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चन्ति॥
वे तो साहित्य-संगीत आदि कलाओं से विरहित मनुष्य को पशु ही मानते थे। उन्होंने लिखा है कि
"साहित्यसंगीतकला विहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः॥"
☸️नीतिनिपुण बनने के लिए भर्तृहरि जी ने मधुरवाणी की अहं भूमिका मानी है। वे लिखते हैं कि मनुष्य की शोभा किसी भी आभूषण से उतनी नहीं हो सकती है जितनी वाणी से होती है। यथा
केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
..क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥
वाणी के साथ-साथ विद्या को उन्होंने कुरूपों का रूप माना है। यथा
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरुणां गुरुः।
विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न तु धनं विद्याविहीनः पशुः॥
🏵️सत्संगति का महत्त्व-भर्तृहरि जीवन में सत्संग को अतीव महत्त्व देते थे। उनका मानना है कि सत्संग से बुद्धि निर्मल होती है, वाणी में सत्य का संचार होता है, मान सम्मान बढ़ता है, अवगुण दूर होते हैं तथा चित्त प्रसन्न और यश.........की है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि सत्संगति मनुष्य के लिए सब कुछ प्राप्त कराती है। इसीलिए नीतिशतक में लिखा है कि-"सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्।
☸️" धन का महत्त्व-मनुष्य चाहे कितना भी विद्वान्, गुणवान् और सुशील क्यों न हो यदि उसके पास धन नहीं है,तो समाज में उसे उचित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है। इसीलिए उन्होंने कहा है कि
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति॥
धन को उन्होंने यद्यपि समस्त गुणों का आश्रय तो कहा है तथापि वे जानते थे कि धनमद में मनुष्य अनेकानेक बुराइयों को अपना लेता है। इसलिए उन्होंने धन के समुचित प्रयोग का वर्णन भी किया है। वे कहते हैं कि
दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति॥
नीतिशतक में इन विषयों के अतिरिक्त नीति एवं लोकव्यवहार के अनेक विषयों का वर्णन किया है। भर्तृहरि जी ने भाग्य को अनिवार्य और अपरिहार्य माना है। सेवाधर्म को एक दुष्कर कार्य कहा है। यथा
"सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।"
क्रोध को वे मनुष्य का शत्रु मानते हैं, जो अपने को भी पराया बना देता है। इसलिए भर्तृहरि चाहते थे कि मनुष्य धैर्य, क्षमा, वाक्चातुर्य, शूरवीरता, यश:कामना, अध्ययन में रुचि आदि उन गुणों को अपनायें जो महापुरुषों के स्वाभाविक गुण हैं।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाजोपयोगी मनुष्य बनने हेतु नीतिशतक का अध्ययन प्रत्येक मनुष्य के लिए परमोपयोगी है।
☸️वैराग्यशतक☸️
शतक परम्परा में भर्तृहरि की यह तृतीया रचना प्रतीत होती है। युवावस्था के भोगपरक जीवन और शासक के नीतिनैपुण्य के जो अनुभव थे, उन सबका सार वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है। वैराग्यशतक में भी विभिन्न छन्दों में संकलित शताधिक पद्य हैं। वैराग्यशतक में तृष्णा की दुष्वारता, प्रमाद की हानियों, भोगों की दुःखान्तता, वृद्धावस्था में मृत्युभय, विषयों के त्याग में सुख, राजा से त्यागी की श्रेष्ठता, राजा और विद्वान् की तुलना, बुद्धिमान् के कर्त्तव्य करालकाल की महिमा, सुखी-जीवन की परिभाषा, मन की चंचलता और संसार की अनित्यता आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। भोगों की अनन्तता और तृष्णा की अनन्तता का वर्णन मनोरंजक ढंग से वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है। यथा
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
संसार के समस्त सुखों को नि:सार पाकर भर्तृहरि जी कहते हैं कि केवल शिवभक्ति ही परम सुखदायी है। यथा"सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्॥" इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह विषय भोगों के पीछे भागते हुए मतवाले मन को अपने वश में करने का प्रयत्न करे। यथा
'क्षीवस्यान्तःकरणकरिण: संयमालानलीलाम्॥"
चित्त को संसार से समेट कर ब्रह्म में आसक्त करें क्योंकि यही संसाररूपी सागर को पार करने का एकमात्र साधन है। यथा
ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भव भवाम्भोधिपारं तरितुम्॥"
संक्षेप में कहा जा सकता है कि वैराग्यशतक के अनुसार प्रभुशरण ही जीवन के वास्तविक सुख का आधार है।
Name:Priti
ReplyDeleteSr.no.24
Monika
ReplyDeleteSr.no23
Major. History
Name Akshita Kumari Major Political Science Sr. No. 70
ReplyDeleteMonika
ReplyDeleteSr.no23
Major. History
Mohini sharma
ReplyDeleteSr no.18
History
Mehak
ReplyDeleteSr.no34
Major.political science
Mohini sharma
ReplyDeleteSr no.18
History
Aarti,
ReplyDeleteMajor history,
Sr.no.5
Anish khan
ReplyDeleteSr no.78
Major history
Pritika
ReplyDeleteMajor history
Sr no.39
Poonam devi
ReplyDeleteSr no 23
Major political science
Aarti,
ReplyDeleteMajor history,
Sr.no.5
Name arti sharma
ReplyDeleteSr no 32
Major Hindi
Sujata Sharma serial no 8 major history
ReplyDeleteName- kamana
ReplyDeleteSrno. 9
Major - hindi
Pallavi pathania majer history sr. 45
ReplyDeleteShivani Devi
ReplyDeleteSr no 46
Major Hindi
Name rahul kumar
ReplyDeleteSr no. 92
Major history
Name_ Shivani
ReplyDeleteSr.no.11
Major Hindi
Akriti choudhary
ReplyDeleteMajor history
Sr no 11
Shikha
ReplyDeleteSr.no.7
Major history
Name Richa Sr.no 35
ReplyDeleteMajor hindi
Tanu guleria
ReplyDeleteSr. No.32
Maior political science
Major Hindi
ReplyDeleteSR no 16
Monikasharma
ReplyDeleteSr no.26
Major Hindi
Sr no.49
ReplyDeleteMajor- political science
Minor- history
Name Priya major history sr.no 6
ReplyDeleteVivek Kumar Pol science sr no 38
ReplyDeleteMamta Bhardwaj
ReplyDeleteSr no 01
Major history
Tanvi Kumari
ReplyDeleteSr. No. 69
Major. Pol. Science
Name -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Name -Riya
ReplyDeleteMajor -History
Sr. No. -76
Sajid khan
ReplyDeleteSr.ni .86
Major history
ektaekta982@gmail.com
ReplyDeleteName varsha Devi Pol 24
Manu
ReplyDeleteMajor history
Sr no... 75
Vishal bharti
ReplyDeletesr no 16
major political science
Pooja choudhary.
ReplyDeleteSr no 18
Major Hindi
Sonali dhiman political science Sr. no. 19
ReplyDeleteTaniya Devi SR no 37
ReplyDeleteName Sejal Mehta
ReplyDeleteSr no 33
Major Hindi
Major history
ReplyDeleteSr no 29
Neha Devi
ReplyDeleteSr no 62
Major History
akanksha sharma
ReplyDeletesr no 13
Major hindi
akanksha sharma
ReplyDeletesr no 13
Major hindi
Divya Kumari
ReplyDeleteSr.No 60.
Major pol science.
Anjlee
ReplyDeleteSr no 36
Major history
Komal major hindi sr.no.43
ReplyDeleteVishali
ReplyDeletemajor history
sr no .64
Shweta sharma
ReplyDeleteSr no.36
Hindi
Shweta sharma
ReplyDeleteSr no.36
Hindi
Mamta devi sr no 147
ReplyDeleteMamta devi sr no 147
ReplyDeleteTaniya sharma
ReplyDeleteSr. No21
Pol. Science
Tanvi Kumari
ReplyDeleteSr. No. 69
Major Pol. Science
Rishav sharma major pol science sr no 65
ReplyDeleteIshita
ReplyDelete1901HI070
Amisha 1901HI001
ReplyDeleteTanu Bala 1901hi079
ReplyDeleteKalpna1901hi065
ReplyDeleteShaveta kaler 1901 hi058
ReplyDeleteNitika1901hi067
ReplyDeleteShaweta choudhary
ReplyDelete1901hi038
Manisha 1901hi010
ReplyDeleteRiya sharma
ReplyDelete1901hi002
Shweta kumari 1901hi011
ReplyDelete
ReplyDeletePriyanka
roll number 1901hi059
Name Ranjana Devi
ReplyDeleteSr no 40
Major Hindi
Sourabh Singh major hindi Roll no 2001hlo15
ReplyDeleteName Rahul kumar
ReplyDeleteMajor history
Sr.no.92
Tanvi Kumari
ReplyDeleteRoll no. 2001ps036
Major. Political science
Vishal choudhary
ReplyDeleteRollno.2001mv001
Major.music