कार्यावस्थांंए,, नाटक के कार्य की पांच अवस्थाएं
आचार्य भरत सर्वप्रथम कार्यावस्था का विवरण देते हुए कहते हैं
प्रारम्भश्च प्रयत्नश्च तथा प्राप्तेश्च सम्भव: ।
नियता च फलप्राप्तिः फलयोगश्च पञ्चमः ॥ नाट्यशास्त्र, 21.9
प्रत्येक कथावस्तु मुख्य नायक के कार्य ( व्यापार) विस्तार से युक्त होती है और मुख्य नायक भी अपने सहयोगी पात्रों की सहायता से उस कार्य का फल प्राप्त करता है।
इतिवृत्त समाख्यातं प्रत्यगेवाधिकारिकम् ।
तदाराभादिकर्तव्यं फलान्तं च यथा भवेत् ॥ नाट्यशास्त्र, 19.16
यह कथावस्तु पाँच कार्यवस्थाओं में विभक्त होती है
1. आरम्भ, 2. प्रयत्न, 3. प्रत्याशा, 4. नियताप्ति, 5 फलागम।
1. आरम्भ,,,
आचार्य धनंजय के अनुसार अत्यन्त फल लाभ के लिए (नायकादि में) उत्सुकता मात्र का होना आरम्भ' नामक कार्यावस्था कही जाती है
औत्सुक्यमात्रमारम्भः फललाभाय भूयसे । दशरूपकम्, 1.19
आचार्य भरत के अनुसार कथावस्तु की पहली अवस्था आरम्भ है। इस अवस्था में नायक के अन्दर किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होती है। यह नायक का मानसिक व्यापार है और औत्सुक्य मात्र रूप होता है
2. प्रयत्न,,,
कथावस्तु की दूसरी अवस्था प्रयत्न कहलाती है। भरत के मतानुसार इसमें फल की प्राप्ति को न देखकर, नायक परम औत्सुक्य से युक्त होकर फल के प्रति व्यापार में संलग्न हो जाता है। मुख्य फल की सिद्धि के लिए जो उत्कंठा होती है वह 'प्रयत्न' है
भवेदारम्भ औत्सुक्य यन्मुख्यफलसिद्धये। साहित्यदर्पण, 6.71
अपश्यतः फलप्राप्तिं व्यापारो यः फलं प्रति ।
परं चौत्सुक्यगमनं स प्रयत्न: प्रकीर्तितः ।। नाट्यशास्त्र, 19.10
प्रयत्न नामक कार्यावस्था में उत्सुकता चरम सीमा पर रहती है। फल प्राप्ति के विषय में अत्यन्त शीघ्रता से युक्त व्यापार प्रयत्न है
प्रयत्नस्तु फलवाप्ती व्यापाऽतित्वरान्वितः। - साहित्यदर्पण, 6.71
धनंजय क मतानुसार उस फल की प्राप्ति न होने पर उसे पाने के लिए अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक जो व्यापार या चेष्टा होती है उसे प्रयत्न कहते हैं।
तस्य फलस्या प्राप्तानुषाययोजनादिरूपश्चेष्टाविशेषः प्रयत्नः। - दशरूपक 1.20 तथा अवलोकवृत्ति।
प्रयत्न में नायक की फल प्राप्ति हेतु अत्यधिक उत्सुकता के साथ शीघ्रतापूर्वक चेष्टा में संलग्न होता है।
3. प्रत्याशा
जहाँ फल प्राप्ति के उपाय मौजूद रहे उसके विघ्न भी विद्यमान रहे एवं फल प्राप्ति में विघ्न की आशंका से फल प्राप्ति की थोड़ी बहुत संभावना बनी हो ऐसी अवस्था को प्रत्याशा कहते हैं
उपायापायशंकाभ्याम् प्रत्याशा प्राप्ति सम्भवा।- दशरूपक, 1.2
साहित्यदर्पण में भी यही परिभाषा प्रस्तुत की है। आचार्य भरत के अनुसार जब भाव मात्र से कुछ फल की प्राप्ति परिकल्पित होती है तो उसे प्रतिसम्भव प्रत्याशा कहते हैं
ईषत्प्राप्तिर्यदा काचित्फलस्य परिकल्पते ।
भावमात्रेण तु प्राहुर्विधिज्ञाः प्राप्तिसम्भवम् ॥ नाट्यशास्त्र, 19.11
आचार्य अभिनव गुप्त ने भरत की इस परिभाषा की व्याख्या करते हुए कहा है 'जब कहीं विशिष्ट फल की प्राप्ति उपलब्ध उपायमात्र से कुछ कल्पित हो सम्भावना मात्र से स्थापित हो किन्तु निश्चित न हो वहाँ फल की प्राप्ति सम्भव है।
4. नियताप्ति
कार्य की चतुर्थ अवस्था नियताप्ति है। आचार्य भरत के अनुसार उपाय की सफलता के द्वारा जब फल प्राप्ति नियत अर्थात् सुनिश्चित हो जाती है, तो उसे नियताप्ति कहते हैं।
नियतां तु फलप्राप्तिं यदा भावेन पश्यति ।
नियतां तां फलप्राप्तिं सगुणां परिचक्षते ॥ नाट्यशास्त्र, 19.20
फल प्राप्ति में जो विघ्न बाधाएँ होती हैं उनके दूर होने के कारण फल प्राप्ति का निश्चय हो जाना नियताप्ति है
'आपायाभावतः प्राप्तिनियताप्तिः सुनिश्चिता' (दशरूपकम्, 1.21) । प्रत्याशा में फल प्राप्ति के उपाय एवं विघ्न दोनों रहते हैं। इसलिए कुछ फल प्राप्ति का आभास होने पर भी निश्चित नहीं होता केवल सम्भावना बनी रहती है।
जिस प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम् में राजा का शकुन्तला के प्रति साभिलाष होना एवं लेने योग्य वा अयोग्य फिर सन्देह दूर होने पर योग्य प्रतीत होना नियताप्ति है। अश्मकुट्ट के अनुसार इस अवस्था में नायक के प्रतिपक्षियों के सारे उद्देश्य विफल हो जाते हैं और प्रतिनायक और उसके सहयोगियों का पतन नायक की सफलता को सुनिश्चित करता है। विघ्न आभाव में निश्चित एकान्त फल की प्राप्ति को नियताप्ति कहते हैं ।
5. फलागम
समस्त फल की प्राप्ति हो जाना 'फलयोग' कहा जाता है
'समग्रफलसम्पत्ति फलयोगो यथोदित।' दशरूपक, 1.22
आचार्य भरत ने इस अवस्था का नाम फलयोग रखा है। इनके अनुसार रूपक के इतिवृत्त का जो कुछ भी क्रियाफल होता है अथवा नायक को जो अभीष्ट होता है वह इस अवस्था में पूर्णतया प्राप्त हो जाता है। फलयोग या फलागम पाँचवीं या अंतिम कार्यावस्था है। आचार्य भरत के अनुसार ये पाँचों कार्यावस्थाएँ ही मिलकर फलहेतु का विन्यास करती
आसां स्वभावभिन्नानां परस्परसमागमात् ।
विन्यास एकभावेन फलहेतुः प्रकीर्तितः ॥ नाट्यशास्त्र, 19.15
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