भक्तियोग

"भक्तियोग"

राजयोग और हठयोग के समान भक्तियोग का प्रतिपादन योगशास्त्र के अन्तर्गत होता है। पाश्चात्य विद्वानों में कुछ विद्वानों ने भक्तितत्त्व का मूल ईसाई मत में बताते हुए भारत में उसका प्रचार ईसाई धर्म के कारण माना है। परंतु उनका यह मत दुरामहमूलक एवं निराधार होने के कारण भारतीय विद्वानों ने अनेक प्रमाणों से उसका खंडन किया है। ऋग्वेद के सभी सूक्त देवतास्तुति प्रधान हैं और उन सभी स्तुतियों में देवता विषयक भक्तिभाव उत्कटता से व्यक्त हुआ है। परंतु संहिता और ब्राह्मणों में "भक्ति" शब्द का अभाव है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में

 "यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ। 

तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्ते महात्मनः।।"

(भावार्थ - जिसके हृदय में ईश्वर एवं गुरु के प्रति परम भक्ति होती है, उसी महात्मा को उपनिषद् में प्रतिपादित गुह्यार्थ स्वतः प्रकाशित होते है।

वेदान्तर्गत भक्तितत्त्व का सविस्तर विवरण एवं सार्वत्रिक प्रचार और प्रसार करने का कार्य भगवान् व्यासने अपने पुराणों द्वारा किया। शैव पुराणों में शिवभक्ति और वैष्णव पुराणों में विष्णुभक्ति का ऐकांतिक और आत्यंतिक महत्त्व अद्भुत आख्यानों, उपाख्यानों एवं संवादों द्वारा प्रतिपादन किया है।

श्रीमद्भागवत् पुराण, रामायण एवं महाभारतान्तर्गत भगवद्गीता भक्तिमार्गी वैष्णवों के परम प्रमाण ग्रंथ है। श्रीमद्भागवत तो भक्तिरस का अमृतोदधि है। अहिर्बुध्यसंहिता, ईश्वरसंहिता, कपिजलसंहिता, जयाख्यसंहिता इत्यादि पांचरात्र मतानुकूल संहिताओं में भक्तियोग का अनन्य महत्व प्रतिपादन किया है। संपूर्ण पांचरात्र वाङ्मय भक्ति का ही महत्त्व प्रतिपादन करता है। श्रीमद्भागवत में श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चने बदनं दास्यं सख्यम् आत्मनिवेदनम्।।इस प्रसिद्ध श्लोक में भक्ति की नौ विधाएँ बतायी हैं। उनमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, परमात्मा के प्रति दृढ अविचल श्रद्धा निर्माण करते हैं। पादसेवन, अर्चन और वन्दन, सगुण उपासना की साधना के अंग हैं और दास्य सख्य तथा आत्मनिवेदन भक्त के आंतरिक भाव से संबंधित अंग हैं। अंतिम आत्मनिवेदनात्मिकी भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। अपना सारसर्वस्व परमात्मा के प्रति समर्पण करते हुए केवल उसकी कृपा को ही अपना एकमात्र आधार मानना, यही इस अंतिम भक्ति का स्वरूप है। इस भक्तियोग का एक प्रमाणभूत शास्त्रीय ग्रंथ है "नारदभक्तिसूत्र"। इसमें 84 सूत्रों में भक्तियोग का यथोचित प्रतिपादन किया है। भक्ति का स्वरूपलक्षण, “सा तु अस्मिन् परमप्रेमस्वरूपा अमृतस्वरूपा च।” (अर्थात भक्ति परमात्मा के प्रति परप्रेममय होती है और वह मोक्ष स्वरूप भी है, याने भक्ति ही परम पुरुषार्थ है।) इन प्रारंभिक सूत्रों में बता कर, सूत्रकार नारद अपना अभिप्राय “नारदस्तु तदर्पिताऽखिलाचारता, तविस्मरणे परमव्याकुलता चेति" (अर्थात् अपना सारा व्यवहार ईश्वरार्पण बुद्धि से करना और उस आराध्य देवता का विस्मरण होते ही हृदय में अत्यंत व्याकुलता निर्माण होना) इस सूत्र में व्यक्त करते हैं। नारद भक्तिसूत्र में भक्ति का विभाजन 11 प्रकार की आसक्तियों में किया है।

1) गुणमाहात्म्यासक्ति : नारद, व्यास, शुक, शौनक, शाण्डिल्य, भीष्म और अर्जुन इस आसक्ति के प्रतीक हैं।

2) रूपासक्ति : इसके उदाहरण है ब्रज की गोपस्त्रियाँ ।

3) पूजासक्ति : लक्ष्मी, पृथु, अंबरीष और भरत इसके आदर्श है।

4) स्मरणासक्ति : ध्रुव, प्रसाद, सनक उसके आदर्श हैं।

5) दास्यासक्ति : हनुमान, अक्रूर, विदुर इसके उदाहरण है।

6) सख्यासक्ति : अर्जुन, उद्धव, संजय और सुदामा इसके आदर्श हैं।

7) कान्तासक्ति । रुविमणी, सत्यभामा इत्यादि भगवान् श्रीकृष्ण की अष्टनायिकाएं इसकी आदर्श हैं।

8) वात्सल्यासक्ति : कश्यप-अदिति, दशरथ-कौसल्या, नंद-यशोदा, वसुदेव-देवकी इसके आदर्श हैं।

9) आत्मनिवेदनासक्ति : अंबरीष, बलि, विभीषण और शिबि इसके आदर्श हैं।

10) तन्मयतासक्ति : याज्ञवाक्य, शुक, सनकादि इसके आदर्श हैं।

150 / संस्कृत वाहमय कोश - अंधकार खण

11) परमविरहासक्ति । वन के गोप गोपियाँ और उदय इसके आदर्श है।
इन 11 आसक्तियों में से किसी न किसी आसक्ति का उदाहरण पौराणिक भक्तों के समान ऐतिहासिक भक्तों के भी जीवन चरित्रों में मिलते हैं तथा उनके काव्यों में यह आसक्तियों की व्यक्ति होती है। इसी भक्ति रस के कारण खेतों की वाणी अमृतमधुर हुई है। नास्तिक के भी हृदय में भगवद्भक्ति अंकुरित करने की शक्ति उनके कवित्व में इसी कारण सम्मायी है।
भक्तियोग का तात्विक विवेचन शाण्डिल्यसूत्रों में भी हुआ है। रूपगोस्वामी का भक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वलनीलमणि,मधुसूदन सरस्वती का भक्तिरसायन, वल्लभाचार्यकृत सुबोधिनी नामक श्रीमद्भागवत को टीका, नारायण भट्टकृत भक्तिचन्द्रिका इत्यादि ग्रंथों में, एवं रामानुज, वल्लभ, मध्य, निंबार्क, चैतन्य इत्यादि वैष्णव आचार्यों ने अपने भाष्य ग्रंथों में यथास्थान भक्तियोग का विवरण और सर्वश्रेष्ठल्ल प्रतिपादन किया है। चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति को "पंचम पुरुषार्थ' माना है तथा भक्ति का आविर्भाव परमात्मा की संवित् और हादिनी शक्तिद्वारा होने के कारण, उसे भगवत्स्वरूपिणी माना है। सभी आचार्यों ने “मोलसाधनसामाग्रयां भक्तिरेव गरीयसी" 
यह सिद्धान्त माना है।भक्तिमार्गी आधाों ने भक्ति के दो प्रमुख भेद माने है। 1) गौणी और 2) परा। गौणी भक्ति वाने भजन, पूजन, कीर्तन आदि साधनरूप है और पराभक्ति (ज्ञानोत्तर भक्ति) साध्यरूप है। गौणी भक्ति के दो भेद 1) वैधी (शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आराधना) और 2) रागानुगा (जिसमें भक्ति का रसास्वाद एवं परम निर्विषय आनंद का अनुभव आता है। साधनरूप गौणी भक्ति के पांच अंग है। 1) उपासक 2) उपास्य 3) पूजाद्रव्य 4) पूजाविधि और 5) मंत्रजप। भगवद्गीता में चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । 
आतो जिज्ञासुरर्थाथों ज्ञानी च भरतर्षभ ।। (7-16)
इस श्लोक में आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथों और ज्ञानी संशक भक्तों के चार भेद बताते हुए भक्ति के भी चार प्रकार सूचित किये हैं। उनमें से पहले तीन प्रकार को 1) सगुण भक्ति और अंतिम प्रकार को निर्गुण भक्ति मानते हैं।
"प्रियो हि शानिनोऽत्यर्थम् अहं स च मम प्रियः"
इस वचन से "वासुदेवः सर्वम्"- ज्ञानयुक्त भक्ति की सर्वश्रेष्ठता गीता में उयोषित की है। ज्ञानी भक्त की भक्ति अहेतुकी,निष्काम होती है। भागवत्सेवा को ही परम पुरुषार्थ मान कर ज्ञानी भक्त की भक्तियोग साधना चलती है।
श्रीमद्भागवत में भक्ति का व्यापक स्वरूप"
काम क्रोध भये नेहम् ऐक्य सौनदमेव च।
 नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ।।(10-29-15)
इस श्लोक में प्रतिपादन किया है। इस वचन के अनुसार भक्तियोग याने ईश्वर से वृत्ति की तन्मयता द्वारा संबंध जोड़ना। वह संबंध चाहे जैसा हो- काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो, स्नेह, नातेदारी या सौहार्द का हो। चाहे जिस भाव से भगवान् में नित्य निरन्तर अपनी वृत्तियां जोड़ दी जाये तो वे भगवान से जुडती है। वे भगवन्मय हो आती हैं और उस जीव को भगवान् की प्राप्ति होती है। इसी व्यापक भक्ति सिद्धान्त के कारण हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कंस, शिशुपाल जैसे असुरों के ईश्वरद्रोह को "विरोध भक्ति" और गोपियों के शृंगारिक आसक्ति को मधुरा भक्ति माना जाता है।

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