नाटक की संधि तथा भेद

 पाँच सन्धियाँ 

संस्कृत नाट्य-रचना में सन्धियों का विशेष महत्व है। धनंजय ने स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'कथावस्तु के अंगों को अन्वित करने वाली स्थिति को सन्धि कहते हैं-

अन्तरैकार्थसम्बन्धः सन्धिरेकान्वये सति।'(दशरूपकम्, 1.23)


धनिक इस लक्षण की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि-"एक प्रयोजन से सम्बद्ध कथावस्तु को दूसरे प्रयोजन से । सम्बद्ध कथावस्तु के अंश से जोड़ने वाली विशेषता का नाम सन्धि है

-प्रयोजनेनान्वितानां कथांशानाम् अवान्तरार्थकप्रयोजसम्बन्धः सन्धिः।" 

रूपक की प्रकृति तथा अवस्थाओं के मिलन से सन्धियों का आविर्भाव होता है। बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी, तथा कार्य ये पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ जब क्रमशः आरम्भ, प्रयत्न, प्रत्याशा, नियताप्ति और फलागम अवस्थाओं से मिलती हैं, तब मुख आदि (मुख, प्रतिमुख, गर्भ विमर्श उपसंहृति) नामक ये पाँच संधियाँ होती।1.22

अर्थप्रकृतयः पंच पंचावस्था समन्विताः ।

यथासंख्येन जायन्ते मुखाद्या पंच संधयः॥ 

दशरूपकम्, भरत ने संधि और उसके भेदों के विषय में इस प्रकार कहा है

मुखं प्रतिमुखं चैव गर्भो विमर्श एव च ।

तथा निर्वहणं चेति नाटके पञ्च सन्धयः ॥ नाट्यशास्त्र, 19.37 

विश्वनाथ के अनुसार

मुखं प्रतिमुखं गर्भो विमर्श उपसंहृतिः।

इति पञ्चास्य भेदा स्युः ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,साहित्यदर्पण 6.75 

इन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है

🌺अवस्थाएँ +अर्थप्रकृतियाँ -सन्धि 🌺

🌺आरम्भ + बीज = मुख सन्धि 

🌺प्रयत्ल + बिन्दु - प्रतिमुख सन्धि 

🌺प्रत्याशा + पताका - गर्भ सन्धि 

🌺नियताप्ति + प्रकरी - विमर्श सन्धि 

🌺फलागम + कार्य - निर्वहण सन्धि

🌻(1) मुख संधि 🌻

जहाँ अनेक प्रयोजन और रस को उत्पन्न करने वाली बीजोत्पत्ति होती है वह मुख सन्धि कहलाती है।

मुख संधि के भेद-

बीज और आरम्भ के योग से यह मुखसन्धि 12 भागों में परिवर्तित हो जाती है-

1. उपक्षेप, 2. परिकर, 3. परिन्यास, 4. विलोभन, 5. युक्ति, 6. प्राप्ति, 7. समाधान, 8. विधान, 9. परिभावना,10. उद्भेद, 11. भेद, 12. करण।

उपक्षेपः परिकरः परिन्यासो विलोभनम् ।

युक्तिः प्राप्तिः समाधानं विधानं परिभावना ।

उदभेदभेदकरणान्यन्वर्थान्यथ लक्षणम् ॥ दशरूपकम् 1.24

🌻(2) प्रतिमुखसन्धिः-🌻

जहाँ उस बीज का कुछ लक्ष्य रूप में और कुछ अलक्ष्य रूप में उद्भेद होता है वह प्रतिमुख सन्धि कहलाती है। वेणीसंहार के द्वितीय अंक में भी प्रतिमुख सन्धि है यहाँ क्रोधरूपी बीज का भीष्म आदि के वध द्वारा कुछ लक्ष्य है तथा कर्ण आदि का वध न होने के कारण कुछ अलक्ष्य रूप में प्रकट होना ही प्रतिमुख सन्धि है। जैसे कि राजा दुर्योधन कंचुकी से कहते हैं शीघ्र ही पाण्डु का पुत्र अपने बल से समर में भृत्यवर्ग,बन्धुगण, मित्र पुत्र तथा अनुजों सहित दुर्योधन को मार देगा।

प्रतिमुख सन्धि के 13 भेद- दशरूपक में बिन्दु नामक अर्थप्रकृति और प्रयत्न नामक कार्यावस्था के योग से प्रतिमुख सन्धि के 13 भेद किए गए हैं-

लक्ष्यालक्ष्य इवोद्भेदस्तस्य प्रतिमुखं भवेत् ।

बिन्दुप्रयत्नानुगमादङ्गान्यस्य त्रयोदश ॥

विलासः परिसर्पश्च विधूतं शमनम्मणो ।

नर्मद्युतिः प्रगयणं निरोधः पर्युपासनम् ॥

वज्रं पुष्पमुपन्याप्तो वर्ण संहार इत्यपि । दशरूपक 1.28-30

1. विलास, 2. परिसर्प, 3. विधूत, 4. शम, 5. नर्म, 6. नर्मद्युति, 7. प्रगमन, 8. निरोधन, 9. पर्युपासन, 10.वज्र, 11. उपन्यास, 12. पुष्प, 13.वर्णसंहार।

🌻(3) गर्भ सन्धि:-🌻

जहाँ दिखलाई देकर खोये गये बीज का बार- बार अन्वेषण किया जाता है वह गर्भसन्धि है। इसमें पताका नामक अर्थप्रकृति कहीं विद्यमान होती है और कहीं नहीं भी होती, किन्तु प्राप्त्याशा नाम की कार्यावस्था होती है इसके बारह भेद होते हैं-

अन्तरैकार्थसम्बन्धःगर्भस्तु दृष्टनष्टस्य बीजस्यान्वेषणं मुहुः ।

द्वादशाङ्गः पताका स्यान् न वा स्यात् प्राप्तिसम्भव: ॥

गर्भ सन्धि 12 भेद-

1. अभूताहरण, 2. मार्ग, 3. रूप, 4. उदाहरण, 5. क्रम, 6. संग्रह, 7. अनुमान, 8. तोटक, 9. अधिबल, 10.उद्वेग, 11. सम्भ्रम, 12. अक्षेप।

अभूताहरणं मार्गा रूपोदाहरणे क्रमः ।

सङ्गहश्चानुमानं च तोटकाधिवले तथा ॥

उद्वेगसम्भ्रमाक्षेपा लक्षणं च प्रणीयते । दशरूपक 1.34-35

🌻(4) विमर्श सन्धि-🌻

जहाँ क्रोध से व्यसन हो अथवा प्रलोभन से फल प्राप्ति के विषय में किया जाता है तथा जिसमें गर्भ सन्धि द्वारा निर्भग्न बोजार्थ का सम्बन्ध दिखलाया जाता है वह अवमर्श या विमर्श सन्धि कहा जाता है। इसके तेरह भेद है।

क्रोधेन्वमृशेद्यत्र व्यसनाद् या विलोभनात् ।

गर्भनिर्भिनवीजार्थ: सोऽवमशोंऽङ्गसङ्ग्रहः ॥ दशरूपक 1.39

विमर्श सन्धि के 13 भेद-

1. अपवाद, 2. संफेट, 3. विद्रव, 4. द्रव, 5,. शक्ति, 6. द्युति, 7. प्रसंग, 8. छलन, 9. व्यवसाय, 10. विरोधन 11, प्ररोचना, 12, आदान, 13. विचलन।

तत्रापवादसम्फेटौ विद्रवद्रवशक्तयः ।

तत्रापवादसम्फेटौ विद्रवद्रवशक्तयः ।

द्युतिः प्रसङ्गश्छलनं व्यवसायो विरोधनम् ।

प्रयोचना विचलनमादानं च त्रयोदश ॥ दशरूपक 1.40

🌻( 5 ) निर्वहण सन्धि-🌻

जहाँ बीज से सम्बन्ध रखने वाली मुख सन्धि आदि में अपने-अपने स्थान पर बिखरे हुए अर्थों का एक प्रयोजन के साथ सम्बन्ध दिखाया जाता है वहाँ 'निर्वहण' सन्धि होती है।

बीजवन्तो मुखाद्यर्था विप्रकीर्णा यथायथम् ।

ऐकार्थ्यमुपनीयन्ते यत्र निर्वहणं हि तत् ॥ दशरूपक 1.44

निर्वहण सन्धि के चौदह भेद होते हैं-

1. सन्धि, 2. विवोध, 3. ग्रथन, 4. निर्णय, 5. परिभाषण, 6. प्रसाद, 7.आनंद, 8. समय, 9. कृति, 10. भाषा,11. उपगृहन, 12. प्रशस्ति, 13. पूर्वभाव, 14. उपसंहार।

सन्धिर्विबोधो ग्रथनं निर्णयः परिभाषणम् ।

प्रसादानन्दसमयाः कृतिभाषोपगृहनाः ।

पूर्वभावोपसंहारौ प्रशस्तिश्च चतुर्दश ॥ दशरूपक 1.45


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