गङ्गदत्तमण्डूककथा

गङ्गदत्तमण्डूककथा

कस्मिश्चित् कूपे गङ्गदत्तोनाम मण्डूकराज, प्रतिवसति स्म। सः कदाचिद् दायादैरूद्वेजितो अरघट्टघटीमारूह्य निष्क्रान्तः अथ तेन चिन्तितम्- कथं तेषां दायादानां मया प्रत्यपकारः कर्तव्यः ।
आपदि येनापकृतं येन च हसितं दशासु विषमासु।
अपकृत्य तयोरुभयोः पुनरपि जातं नरं मन्ये।। 17।।
एवं चिन्तयन् बिले प्रविशन्तं कृष्णसर्पमपश्यत् । तं दृष्ट्वाभूयोऽपि अचिन्तयत्-यत् एनं तत्र कूपे नीत्वा सकलदायादानामुच्छेदं करोमि। उक्तञ्च
शत्रुभिर्योजयेच्छत्रु बलिना बलवत्तरम्।
स्वकाव्य यतो न स्यात्काचित्पीडाऽत्र तत्क्षये ।। 18 ।।
शत्रुमुन्मूलमेत्प्राज्ञस्तीक्ष्णं तीक्ष्णेन शत्रुणा।
व्यथाकर सुखार्थाय कण्टकेनैव कण्टकम् ॥ 19॥ शब्दार्थ एवं व्याकरण-कस्मिश्चित् = किसी, कूपे = कुएँ में, गंगदत्तोनाम = गंगदनाम का, मण्डूकराजः = मेंढकों का राजा, प्रतिवसति स्म = रहता था। (लट् लकार की क्रिया के साथ 'स्म' जोड़ने पर वह भूतकाल की क्रिया बन जाती है। सः = वह, कदाचित्-किसी समय, दायादैः = परिवारवालों द्वारा, उद्वेजितः तंग किये जाने पर, अरघट्टघटीमारूह्य = अरघट्ट की बाल्टियों के सहारे से चढ़कर, (कुएँ से पानी निकालने के लिए पहले श्रृंखलाबद्ध डिब्बों का प्रयोग करके किसी पशु के माध्यम से उसे चलाकर सिंचाई के लिए पानी निकाला जाता था। ऐसे कुएँ को अरघट्ट वाला कुआँ कहते थे।) निष्क्रान्तः = कुएँ से बाहर निकल आया। अथ = तब, तेन = उसने, चिन्तितम् = सोचा, कथम् = किस प्रकार, तेषाम् = उन झगड़ालु, दायादानाम् = उत्तराधिकारियों का, मया = मेरे द्वारा,बदले में बुराई, कर्तव्यः = की जाये। उक्तञ्च = (उक्तम्+च व्यंजनसन्धि) कहा भी है। आपदि = विपत्ति के समय, येन = जिसने, अपकृतम् = बुरा किया हो, च = और, येन-जिसके द्वारा, विषमासु दशासु = विपरीत परिस्थितियों में, हसितम् = उपहास किया गया हो, तयो = उन, उभयोः = दोनों का, अपकृत्य =बुरा करके ,नरम=मनुष्य को, पुनरपि= (पुनः+ अपि विसर्गसन्धि) दोबारा, जातम् = पैदा हुआ, मन्ये = मानता हूँ, एवम् = इस प्रकार, चिन्तयन् = चिन्त्+शतृ) सोचते बिल बिल में, प्रविशन्तम् = प्रविष्ट होते हुए, कृष्ण सर्पम् काले साँप को, अपश्यत् = देखा। तम्-उसे, दृष्ट्वा =(दृश+क्त्वा) देखकर, भूयोऽपि = पुनः, अचिन्तयत् = सोचा, यत् = कि, एनम् = इसको, तत्र = वहाँ, कूपे = कुएँ में, नीत्वा = (नी+क्त्वा) ले जाकर, सकलदायादानाम् = (सकलानां दायदानाम् षष्ठी तत्पु० समास) सभी कुटुम्बियों का, उच्छेदम् = विनाश, करोमि=करता हूँ। उक्तञ्च= कहा भी है कि
शत्रुभिः = शत्रुओं के साथ, शत्रुम् = शत्रु को, योजयेत् = लड़ा दे, बलिना = बलशाली के साथ, बलवत्तरम् = उससे अधिक बलशाली को लगाये यानि लड़ाये, स्वकाप्याय = अपने कार्य की सिद्धि के लिए, यतः = क्योंकि, तत्क्षये उनके नष्ट होने से, अत्र = इस विनाश में, काचित् पीड़ा न = स्वयं को कोई कष्ट नहीं, स्यात् = होता है।
प्राज्ञः = बुद्धिमान्, तीक्ष्णं शत्रुम् = शक्तिशाली शत्रु को, तीक्ष्णेन शत्रुणा = शक्तिशाली शत्रु द्वारा ही, उन्मूलयेत् = नष्ट करवाये, व्यथाकरम् = पीड़ा देने वाले कष्टकर = काँटों को, सुखार्थाय = सुख के लिए, कण्टकेनैव = काँटे से ही निकाला जाता है।
हिन्दी -अनुवाद-किसी कुएँ में गङ्गदत्त नामक मेंढकों का राजा रहता था। किसी समय अपने सगे सम्बन्धियों द्वारा तंग किये जाने पर वह कुएँ की अरघट्ट की घटिकाओं के सहारे कुएँ से बाहर निकल आया। तब उसने सोचा-मैं अपने उन दायादों से कैसे बदला लूँ। क्योंकि कहा भी है कि
विपत्ति के समय जिसने अपकार किया हो तथा कठिन परिस्थितियों में जिसने उपहास उड़ाया हो, उन दोनों का अपकार करने वाले मनुष्य का मैं पुनर्जन्म मानता हूँ। यानि वह श्रेष्ठ मनुष्य है।
ऐसा सोचते हुए उसने बिल में प्रवेश करते हुए एक काले साँप को देखा। उसे देखकर उसने पुनः सोचा कि इसको वहाँ कुएँ में ले जाकर मैं समस्त सगे सम्बन्धियों को नष्ट कर दूंगा। किसी ने कहा भी है कि-अपने कार्य की सिद्धि के लिए शत्रु के साथ शत्रु की और बलवान् के साथ अधिक बलवान् की लड़ाई करवा दे। क्योंकि उनके नष्ट होने से हमें कोई कष्ट नहीं होगा।
किसी नीतिकार ने यह भी कहा है कि बुद्धिमान् को चाहिए कि वह तेज तर्रार शत्रु को वैसे ही तेजस्वी शत्रु से नष्ट करवा दे क्योंकि कष्ट देने वाला काँटा काँटे के द्वारा ही निकाला जाता है।

एवं स विभाव्य बिलद्वारं गत्वा तमाहूतवान्-"एहि एहि प्रियदर्शन! एहि।" तत् श्रुत्वा सर्पश्चिन्तयामास“य एष माम् आह्वयति, स स्वजातीयो न भवति। यतो नैषा सर्पवाणी। अन्येन केनापि सह मम मर्त्यलोके सन्धानं नास्ति। तदत्र एव दुर्गेस्थितः तावत् वेद्मि कोऽयं भविष्यति। उक्तञ्च
यस्य न ज्ञायते शीलं न कुलं न च संश्रयः।
न तेन सङ्गतिं कुर्यादित्युवाच बृहस्पतिः ।। 20।।
कदाचित् कोऽपि मन्त्रवादी औषधिचतुरो वा मामाहूय बन्धने क्षिपति। अथवा कश्चित् पुरुषो वैरमाश्रित्य कस्यचिद्भक्षणार्थं मामाह्वयति।" आह च-"भोः! को भवान्?" स आह-"अहं गङ्गदत्तोनाम मण्डूकाधिपतिः त्वत्सकाशे मैत्र्यर्थमभ्यागतः।"तच्छ्रुत्वा सर्प आह-"भोः। अश्रद्धेयमेतत् यत् तृणानां वह्निना सह सङ्गमः । उक्तञ्च

यो यस्य जायते वध्यः स स्वप्नेऽपि कथञ्चन।
न तत्समीपमभ्येति तत्किमेवं प्रजल्पसि ।। 21 ।।
शब्दार्थ एवं व्याकरण-सः = उस मण्डूक ने, एवम् = इसप्रकार, विभाव्य निश्चय करके या सोचकर, बिलद्वारं गत्वा = बिल के द्वार पर जाकर, तम् = उस सर्प को, आहूतवान् बुलाया। एहि एहि = आओ-आओ। प्रियदर्शन ! हे प्रियदर्शन नामक सर्प, एहि = आओ। तत् = इस आवाज़ को, श्रुत्वा = सुनकर, सर्पश्चिन्त-यामास सोचने लगा। यः = जो, एषः यह, माम् = मुझे, आह्वयति बुला रहा है, सः = वह, सजातीय = समान जातिवाला योनि सर्प, न भवति--नहीं है। यतः = क्योंकि, एषा = यह,सर्पवाणी (सर्पस्य वाणी षष्ठी तुत्पु०समास) सर्प की आवाज, न = नहीं है। मर्त्यलोके = मृत्युलोक में यानि धरती पर, अन्येन-दूसरे, केनापि सह = किसी के साथ भी, मम = मेरी, सन्धानम् = मैत्री (मेल-मिलाप),नास्ति = (न+अस्ति दीर्घसन्धि) नहीं है। तत् = इसलिए, अत्र = यहाँ, दुर्गेस्थितः एव = बिल में बैठकार ही, तावत् = तो , वेद्मि = जानता हूँ (पता लगाता हूँ) अयम् = यह, कः = कौन, भविष्यति= होगा, यस्य=जिसका, शीलम् = स्वभाव, कुलम् = कुल (वंश), संश्रयः = निवास स्थान, न ज्ञायते = पता न हो। तेन उसके साथ, संगतिम् = 'साथ न, कुर्यात् न करे, इति ऐसा, बृहस्पतिः देवताओं के गुरु बृहस्पति ने, उवाच =कहा है।
कदाचित् = कहीं, कोऽपि = कोई, मन्त्रवादी = मन्त्रों का ज्ञाता,औषधि चतुरो वा = या विषघातक औषधियों के प्रयोग में कुशल, माम् = मुझे, आहूय = बुलाकर, बन्धने = बन्धन में, क्षिपति = डाल दे। अथवा या, कश्चित् पुरुष = कोई मनुष्य, वैरमाश्रित्य = शत्रुता को आधार बनाकर, कस्यचित् = किसी के, भक्षणार्थम् = खाने के लिए, माम् = मुझे, आह्वयति = बुला रहा हो। च = और, आह = उसने कहा, भोः! अरे! काभवान् = आप कौन हैं ? स आह = वह बोला, अहम् = मैं, गंगदत्त:नाम = गंगदत्तनामक, मण्डूकाधिपति = मेंढकों का राजा, त्वत् = तुम्हारे सकाशे=समीप, मैत्र्यर्थम् = (मैत्री+अर्थम् यण् सन्धि) मित्रता हेतु, अभ्यागतः = आया हूँ (अभितः आगतः अभ्यागत:पूर्णतः), तच्छ्रुत्वा = तत्+श्रुत्वा व्यंजनसन्धि त् को च तथा श् को छ् हुआ है) इस बात को सुनकर, अश्रद्धेयम् एतत् = यह विश्वास योग्य नहीं है, यत् = कि, तृणानाम् = तिनकों यानि घास का, वलिना सह-आग के साथ (सह के योग में तृतीया विभक्ति होती है।) सङ्गमः = मेल। यः = जो, यस्य = जिसका, वध्यः = मारने योग्य या खाने योग्य, जायते होता है, स्वप्ने ऽपि = स्वप्न में भी,स:=वह, कथञ्चन = किसी भी प्रकार, तत् = उसके, समीपम् = निकट, न = नहीं, अभ्येति = (अभि+एति यणसन्धि) जाता है। तत् = इसलिए, एवम् = ऐसा, किम् = क्यों, प्रजल्पसि = कह रहे हो।

हिन्दी-अनुवाद-मन में ऐसा निश्चय करके वह बिल के द्वार के पास गया और उसे बुलाया कि आओ प्रियदर्शन! आओ! इसे सुनकर सर्प ने सोचा कि यह जो मुझे बुला रहा है यह मेरी जाति का यानि सर्प तो है नहीं क्योंकि यह सर्प की आवाज़ नहीं है तथा इस मृत्युलोक में दूसरे किसी के साथ मेरी मैत्री नहीं है। इसलिए यहाँ अपने दुर्ग अर्थात् बिल में बैठकर ही पता लगाता हूँ कि यह कौन है। क्योंकि किसी ने कहा है कि
देव गुरु बृहस्पति का वचन है कि हमें जिसके स्वभाव, कुल और निवास स्थान का पता न हो, उसके साथ कभी भी मैत्री नहीं करनी चाहिए।
हो सकता है कोई मन्त्रज्ञाता या औषधिविज्ञानी मुझे बुलाकर मुझे बन्धन में डाल दे या कोई व्यक्ति शत्रुता के कारण किसी को खिलाने के लिए ही मुझे बुला रहा हो। इतना विचार-विमर्श करके उसने कहा कि आप कौन हैं ? मण्डूक ने बताया कि मैं गङ्गदत्त नामक मेंढकों का राजा हूँ तथा मैत्री हेतु आपके पास आया हूँ। इस बात को सुनकर सर्प बोलाअरे! यह बात विश्वास के योग्य नहीं है। घास की आग के साथ कैसी दोस्ती?" कहा भी है कि,,,,
जो जिसके द्वारा मारा जाने योग्य है, स्वप्न में भी किसी भी प्रकार से वह उसके पास नहीं जाता है। तो तुम यह क्या बकवास कर रहे हो।

गङ्गदत्त आह-"भोः! सत्यमेतत्। स्वभाववैरी त्वम् अस्माकम्। परं परपरिभवात् प्राप्तोऽहं ते सकाशम्। उक्तञ्च
सर्वनाशे च सजाते प्राणानामपि संशये।
अपि शत्रु प्रणम्यापि रक्षेत्प्राणान्धनानि च ।। 22।।
सर्प आह-"कथय कस्मात् ते परिभवः!" स आह-"दायादेभ्यः।" सोऽपि आह-"क्व ते आश्रयो वाप्यां कूपे तडागे हदे वा, तत्कथय स्वाश्रयम्" ? तेनोक्तम्-'पाषाणचयनि-मिते कूपे। "सर्प आह"-अहो! अपदाः वयं तन्नास्ति तत्र मे प्रवेशः। प्रविष्टस्य च स्थानं नास्ति। यत्र स्थितः तव दायादान् व्यायादयामि। तद्गम्यताम्।उक्तञ्च
यच्छक्यं ग्रसितुं शस्तं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितञ्च परिणामे यत्तदाद्यं भूतिमिच्छता।। 23।।
शब्दार्थ एवं व्याकरण-आह = बोला, एतत् = यह, सत्यम् =ठीक है। त्वम् = आप, अस्माकम् = हमारे (मेंढकों के) साँप और मेंढक, सिंह और गोप्रजाति, कुत्तों एवं मेषों (भेड़ों), साँप एवं नेवलों तथा चूहे और बिल्लियों का पारस्परिक स्वाभाविक वैर होता है। परम् = परन्तु, परपरिभवात् = दूसरों से अपमानित होने पर,ते=तुम्हारे, सकाशम् पास, प्राप्तः = आया हूँ।
सर्वनाशे सञ्जाते = सर्वनाश की स्थिति आने पर, प्राणानामपि = प्राणों के भी, संशये = विनाश की स्थिति में, शत्रुम्, प्रणम्य अपि = शत्रु को भी प्रणाम करके भी, प्राणान् = प्राणों की तथा, धनानि = धनों की, रक्षेत् = रक्षा करनी चाहिए।
कस्मात् = किससे, ते = तुम्हारा, परिभव = निरादर हुआ है। दायादेभ्यः = सगे-सम्बन्धियों से (कुटुम्ब वालों से), सोऽपि = स:+अपि विसर्ग एवं पूर्वरूप सन्धि) वह भी, क्व = कहाँ, ते = तुम्हारा, आश्रय = निवास स्थान, वाप्याम् बावड़ी में, कूपे = कुएँ में, तडागे = तालाब में, वा = या, हृदे = किसी बड़े तालाब में, तत् = इसलिए, कथय बताओ, स्वाश्रयम् = अपना निवास। पाषाणचयनिर्मितं = पत्थरों के समूह से बने हुए, कूपे-कुएँ में। अहो = बड़े दुःख की बात है कि, अपदाः वयम् = हम पैरों से रहित हैं, तन्नास्ति = (तत्+नास्ति परसर्वण व्यंजन सन्धि) तो नहीं है, मे = मेरा, तत्र = वहाँ कुएँ में, प्रवेश = गमन, अथ प्रविष्टस्य = और प्रविष्ट हो जाने पर स्थानम् = रहने के लिए स्थान, नास्ति = नहीं है। यत्र = जहाँ, स्थितः रहकर, तव =तुम्हारे, दायादान् = कुटुम्बियों को, व्यापादयामि मार सकूँ। तत् = इसलिए, गम्यताम् = चले जाइये।
●यत् = जो, ग्रसितुम् शक्यम् = खाने योग्य हो, ग्रस्तम् = जिसका खाना, शस्तम् = श्रेयस्कर हो या शास्त्रानुमोदित हो, ग्रस्तम् = खाने पर, परिणमेत् = पच जाये, यत् = जो, परिणामे = पच जाने पर, हितम् = हितकर हो, भूतिमिच्छता = कल्याण चाहने वाले को, तत वही, आद्यम् = खाना चाहिए।

●हिन्दी-अनुवाद-गंगदत्त ने कहा-"अरे! यह ठीक है। आप हमारे स्वाभाविक वैरी हैं। परन्तु दूसरों से अपमानित होने पर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। नीतिकारों का कहना है कि सर्वनाश की स्थिति आने पर तथा प्राणों के संकट में पड़ जाने पर शत्रु को प्रणाम करके भी यानि शत्रु के आगे सिर झुकाकर भी प्राणों एवं धन की रक्षा करनी चाहिए।
●साँप बोला-"बताओ आपका निरादर किसने किया है?" वह बोला-"मेरे कुटुम्बियों ने।" तब सर्प ने कहा'तुम्हारा निवास बावड़ी, कुएं, तालाब या किसी बड़े कुण्ड में से कहाँ हैं ? आप अपना आवास बतलाओ।" उसने कहा-"पत्थरों के समूह से बने हुए कुएँ में मेरा निवास है।" सर्प बोला-"ओह! हम तो पाँवों से रहित हैं वहाँ मेरा प्रवेश नहीं हो सकता और यदि प्रविष्ट हो भी जाऊँ तो रहने के लिए स्थान नहीं मिलेगा जहाँ रुक कर मैं आपके कुटुम्बियों को मार सकूँ। इसलिए तुम जाओ। कहा भी है किजो वस्तु खाने योग्य हो, खाने पर हितकारी हो जो सुपाच्य हो तथा पच जाने पर भी जो लाभकारी हो,
कल्याण के इच्छुक को वही वस्तु खानी चाहिए।

★गङ्गदत्त आह-"भो:! समागच्छ त्वम्। अहं सुखोपायेन तत्र तव प्रवेशं करिष्यामि। तस्य मध्ये जलोपान्ते रम्यतरं कोटरं अस्ति। तत्रस्थितः त्वं लीलया दायादान् व्यापादयिष्यसि।" तच्छ्रुत्वा सर्पो व्यचिन्तयत्-"अहं तावत् परिणतवयाः कदाचित्, कथञ्चित् मूषकमेकं प्राप्नोमि। तत्सुखावहो जीवनोपायोऽयमनेन कुलांगरेण मे दर्शितः तद्गत्वा तान् मण्डूकान् भक्षयामि इति। अथवा साधु इदमुच्यते
■यो हि प्राणपरिक्षीणः सहायपरिवर्जितः ।
स हि सर्वसुखोपायां वृत्तिमारचयेद्बुधः ।। 24।।
◆ शब्दार्थ एवं व्याकरण त्वम् = तुम, समागच्छ = आ जाओ, अहम् = मैं, सुखोपायेन गुणसन्धि, सुखस्य उपाय: सुखोपायः तेन षष्ठी तत्पु०समास) सरल उपाय. से, तत्र =
वहाँ (कुएँ में। तब = तुम्हारा, प्रवेशम् = प्रविष्टि, करिष्यामि = करवा दूंगा। तस्य मध्ये = उस कुएँ के बीच, जलोपान्ते = जल की सतह के समीप, रम्यतरम् = अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर, कोटरम् = छोटा सा बिल, अस्ति = है। तत्र = वहाँ, स्थित = रहता हुआ (स्था+क्त),त्वम् = तू, लीलया = खेल-खेल में, दायादान न मेरे कुटुम्बियों को, व्यापादयिष्यसि = मार डालोगे। तत्
श्रुत्वा बात को सुनकर, सर्पः = साँप ने, व्यचिन्तयत् = सोचा (वि+चिन्त् लङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन) परिणतवया = वृद्ध, कदाचित् = कभी कभार कथञ्चित = कठिनाई से, एकं मूषकम् = एक आध चूहा, प्राप्नोमि = प्राप्त करता हूँ पकड़ पाता हूँ। तत् = इसलिए। सुखावहो = सरल, जीवनोपायः = (जीवनस्य उपाय षष्ठी तत्पुरुष समास तथा गुण सन्धि) जीने की विधि, अनेन = इस, कुलांगारेण = कुल के विनाशक के द्वारा, मे = मेरे लिए, दर्शितः = बताया है। तत् इसलिए, गत्वा =(गम्+क्त्वा) जाकर, तान् = उन, मण्डूकान् = मेंढकों को, भक्षयामि = खाता हूँ। इदम् = यह, साधु = ठीक ही, उच्यते
कहा गया है। यः = जो, प्राणपरिक्षीणः = प्राणों के क्षीण होने पर, सहायपरिवर्जितः = सहायकों से रहित यानि असहाय हो, स बुद्धः = वह बुद्धिमान् व्यक्ति, सर्वसुखोपायाम् = सरल से सरल, वृत्तिम् = आजीविका को, आचरेत् = अपना ले।

●हिन्दी-अनुवाद-गङ्गदत्त ने कहा-"तुम आओ तो सही। मैं वहाँ पर तुम्हारा प्रवेश सरलता से करवा दूंगा। उस कुएँ केजल के मध्य जल की सतह के समीप एक सुन्दर कोटर है, वहाँ रहते हुए तुम आराम पूर्वक मेरे उन कुटुम्बियों को मार डालोगे।" यह सुनकर सर्प ने सोचा-" मैं तो अब वृद्ध हो चुका हूँ कभी कभार बड़ी कठिनाई से एक आध चूहा हाथ लग जाता है। यह कुलघातक मेरे लिए आजीविका का अत्यन्त सरल उपाय बता रहा है। इसलिए वहाँ जाकर उन मेंढकों को खाता हूँ।" अथवा किसी ने ठीक ही कहा है कि- जिसका शरीर क्षीण हो जाये तथा जिसके सहायक न हों ऐसे बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह सरल से सरल आजीविका कमाने के उपाय को अपनाये।

★एवं विचिन्त्य तमाह-"भो गंगदत्त! यदि एवं तदने भव येन तत्र गच्छावः।" गंगदत्त आह-"भोः। प्रियदर्शन! अहं त्वां सुखोपायेन तत्र नेष्यामि, स्थानञ्च दर्शयिष्यामि, परं त्वया अस्मत् परिजनो रक्षणीयः। केवलं यानहं तव दर्शयिष्यामि, ते एवभक्षणीया इति।" सर्प आह-"साम्प्रतं त्वं मे मित्रं जातम्, तन्न भेतव्यम्। तव वचनेन भक्षणीयास्ते दायदः। एवमुक्त्वा बिलात् निष्क्रम्य तमालिंग्य च तेनैव सह प्रस्थितः। अथ कूपमासाद्य अरघट्टघटिकामार्गेण सर्पस्तेन आत्मना स्वालयं नीतः। ततश्च गङ्गदत्तेन कृष्णसर्प कोटरे धृत्वा दर्शिताः ते दायादाः ते च तेन शनैः शनैः भक्षिता। अथ मण्डूकाभावे सर्पण अभिहितम्-"भद्र ! निःशेषिताः ते रिपवः ! तत् प्रयछ अन्यत् मे किञ्चित् भोजनं यतोऽहं त्वया अत्र आनीतः।" गंगदत्त अह-"भद्र ! कृतं त्वया मित्रकृत्यम्, तत् साम्प्रतम् अनेन एवं घटिकायन्त्रमार्गेण गम्यताम् इति।" सर्प आह-"भो गङ्गदत्त! न सम्यगभिहितं त्वया कथमहं गच्छामि। मदीयबिलदुर्गमन्येन रुद्धं भविष्यति। तस्मात् अत्रस्थस्य मे मण्डूकमेकैकं स्ववर्गीय प्रयच्छ, नो चेत् सर्वानपि भक्षयिष्यामि।" इति। तच्छ्रुत्वा गंगदत्तो व्याकुलमना व्यचिन्तयत्-"अहो! किमेतन्मया कृतं सर्पमान्यता तद्यदि निषेधयिष्यामि तत्सर्वानपि भक्षियिष्यति अथवा युक्तमुच्यते

◆शब्दार्थ एवं व्याकरण-एवम् = ऐसा, विचिन्त्य = सोचकर, तम् = उसको, आह = बोला, यदि एवम् = यदि ऐसी बात है, तत् = तो, अग्रेभव = आगे चलो, येन = ताकि, तत्र = वहाँ, गच्छावः = चले जायें, त्वाम् = तुम्हें, सुखोपायेन = सरल उपाय से, तत्र = वहाँ, नेष्यामि = ले जाऊँगा (नी लृट् लकार उत्तम परुष एकवचन) च = और, स्थान = रहने का स्थान, दर्शयिष्यामि = दिखा दूंगा। परम् = परन्तु, त्वया = तूने, अस्मत्परिजनः = मेरे परिवार के लोग, रक्षणीयः = सुरक्षित रखने हैं। यान् = जिन्हें, तव = तुम्हें, दर्शयिष्यामि = दिखाऊँगा, ते एव: वही, भक्षणीयाः=
खाने हैं (भक्ष,+अनीयर), साम्प्रतम् = अब, मे = मेरा, मित्रम् जातम् = मित्र बन गया है, तन्न = (तत्+न परसवर्ण व्यंजनसन्धि) इसलिए नहीं, भेतव्यम् = डरना चाहिए। तव = तुम्हारे, वचनेन = कथनानुसार ही, भक्षणीयाः = खाये जायेंगे, ते = तुम्हारे, दायादाः = कुटुम्बी, एवम् = ऐसा, उक्त्वा कहकर, बिलात् = बिल से, निष्क्रम्य = निकल कर, तम् = उसे गंगदत्त को, आलिंग्य = गले लगाकर तेनैव सह = तेन+एव वृद्धिसन्धि) उसी के साथ, प्रस्थितः चला गया। अथ = इसके पश्चात्, कूपमासाद्य = कुएँ में पहुँचकर, अरघट्टघटिकामार्गेण = अरघट के डिब्बों के रास्ते से, तेन = उसके द्वारा, सर्पः = साँप, आत्मना = स्वयं ही, स्वालयम् = (स्व+आलयम् दीर्घसन्धि) अपने घर, नीतः = ले जाया गया। ततः = तत्पश्चात्, कोटरे = बिल में, धृत्वा = रखकर, दर्शिताः = दिखा दिये, ते = वे, शनै:शनैः धीरे, धीरे, अथ = उसके पश्चात्, मण्डूकाभावे = मेंढकों की कमी होने पर, सर्पण = साँप ने, अभिहितम् = कहा, ते = तुम्हारे, रिपवः = शत्रु, निःशेषिता = पूर्णरूप से नष्ट कर दिये हैं। तत् = इसलिए, मे = मेरे लिए, अन्यत् किञ्चित् = कुछ और, भोजन-प्रयच्छ भोजन दे। यतः = क्योंकि, त्वया = तेरे द्वारा, अहम्=मैं, अत्र =यहाँ, आनीतः = लाया गया हूँ। कृतम् = कर दिया, त्वया = तूने, मित्रकृत्यम् = (मित्रस्य कृत्यम् षष्ठी तत्पुरुषसमास) मित्र का कार्य, साम्प्रतम् = अब, अनेन एव = इसी, घटिकायन्त्रमार्गेण = डिब्बे रूपी यन्त्र के रास्ते से,गम्यताम-चले जाइये। सम्यग् = ठीक, न अभिहितम् = नहीं कहा। कथम् = कैसे, मदीयबिलदुर्गम् = मेरा बिल रूपी घर, अन्येन -किसी दूसरे के द्वारा, रुद्धं भविष्यति = रोक लिया गया होगा, तस्मात् = इसलिए, अत्र स्थितस्य = यहाँ रहते हुए.मे=मेरे लिए, स्ववर्गीयम् = अपने परिवार के ही, एकैकम् = (एक+एकम् वृद्धिसन्धि) एक एक, प्रयच्छ = दो, नो चेत् = अन्यथा, सर्वान् अपि = सभी को, भक्षयिष्यामि = खा लूँगा। व्याकुलमना = चिन्ताकुल चित्तवाला, व्यचिन्तयत् - सोचने लगा, मया = मैंने, सर्पमानयता = साँप को लाकर, एतत् = यह, किम् = क्या, कृतम् = कर डाला, तत् यदि = तो यदि, निषेधयामि = रोकता हूँ, तत् = तो, युक्तम्=ठीक ही, उच्यते = कहा जाता है।
हिन्दी-अनुवाद-ऐसा सोचकर सर्प ने उससे कहा-"अरे गंगदत्त। यदि ऐसी बात है तो आगे होइये ताकि हम वहाँ जा सकें। गंगदत्त बोला—'हे प्रियदर्शन! मैं सरल उपाय से तुम्हें वहाँ ले चलूँगा तथा रहने के लिए स्थान भी दिखा दूंगा।
आपने मेरे परिवार के लोगों को नहीं खाना है। केवल जिन्हें मैं बताऊँगा वे ही खाने हैं।" सर्प ने कहा-“अब परन्तु तुम हमारे मित्र बन गये हो। इसलिए डरो मत। मैं आपके कथनानुसार ही आपके कुटुम्बियों को खाऊँगा। “ऐसा कहकर बिल से निकल कर उससे गले मिलकर उसी के साथ चला गया। इसके पश्चात् कुएँ पर पहुँचकर अरघट्टिका यन्त्र के रास्ते मेंढक साँप को अपने घर स्वयं ही ले गया। तब गङ्गदत्त ने कृष्ण सर्प को कोटर में ठहराकर उसे अपने शत्रु बता दिये। उनको उसने धीरे-धीरे खा लिया। मेंढकों की कमी होने पर सर्प ने कहा-"प्रिय मित्र! तुम्हारे शत्रु तो समाप्त कर दिये गये परन्तु अब मुझे कुछ और भोजन दो क्योंकि आप ही मुझे यहाँ लाये हो।" गंगदत्त ने कहा-“मित्र! आपने अपने मित्र का कार्य पूरा कर दिया अब इसी घटिका यन्त्र के रास्ते चले जाओ।" सर्प बोला-"अरे गंगदत्त! आपने यह ठीक नहीं कहा। मैं कैसे जाऊँगा ? मेरा बिल रूपी दुर्ग किसी और ने रोक लिया होगा। इसलिए यहाँ रहते हुए ही मेरे लिए अपने परिवार से एक एक मण्डूक देते रहो अन्यथा मैं सबको खा जाऊँगा"। ऐसा सुनकर व्याकुल हुए मन वाले मण्डूक ने सोचा कि सर्प को यहाँ लाकर मैंने यह क्या कर डाला। अब यदि मैं मना करूँगा तो यह सबको खा जायेगा। अथवा किसी ने ठीक ही कहा है कि

★योऽमित्रं कुरुते मित्रं वीर्याभ्यधिकमात्मनः ।
स करोति न सन्देहः स्वयं हि विषभक्षणम् ।। 25 ।।

तत् प्रयच्छामि अस्यैकैकं प्रतिदिनं सुहृदम्।

उक्तञ्चसर्वस्वहरण युक्तं शत्रु बुद्धियुता नराः । तोषयन्त्यल्पदानेन वाड्वं सागरो यथा।। 26 ।।

यो दुर्बलोऽण्वपि याच्यमानो
बलीयसा यच्छति नैव साम्ना ।
प्रयच्छते नैव च दर्शयमानं
खारी स चूर्णस्य पुनर्ददाति।। 27 ।।

सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध त्यजति पण्डितः ।
अर्द्धन कुरुते कार्य सर्वनाशो हि दुःसहः ।। 28।।

न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान्नरः ।
एतदेव हि पाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम् ।। 29।।

◆ शब्दार्थ एवं व्याकरण-यः = जो, आत्मनः = अपने से, वीर्याभ्यधिकम् = अधिक बलशाली अमित्रम् = शत्रु को, मित्रम् = मित्र हितैषी, कुरुते बनाता है, सः = वह, स्वयम् = अपने आप, विषभक्षणम् = विषपान, करोति = करता है, न सन्देहः = इसमें कोई सन्देह नहीं है। न मित्रम् = अमित्रम् नञ् तत्पुरुषसमास, विषस्य भक्षणम् = विषभक्षणम्, षष्ठी तत्पुरुषसमास ।तत् = इसलिए, अस्य = इसके लिए यानि प्रियदर्शन नामक साँप के लिए, प्रतिदिनम् = हर रोज, एकैकम् (एक+एकम् वृद्धिसन्धि) एक एक (साँप), प्रयच्छामि = दूंगा। बुद्धियुताः नराः = बुद्धिमान् व्यक्ति, सर्वस्वहरणे =सर्वस्व हरण की स्थिति आने पर, शत्रुम् = विद्वेषी को, अल्पदानेन = कुछ ले देकर, तोषयन्ति = प्रसन्न कर लेते हैं, युक्तम् = यह ठीक है, वाडवम् = समुद्री आग को (पैट्रोल आदि की आग को), यथा = जिस प्रकार, सागर = समुद्र शान्त कर लेता है।
विशेष = शास्त्रों में तीन प्रकार की अग्नि जठरानल (पेट की अग्नि जो भोजन पचाती है, दावानल = जंगल की आग या ईंधन में विद्यमान्, ऊर्जा तथा बड़वानल = समुद्र की आग यानि पैट्रोल आदि। यः =जो, दुर्बलः=कमजोर (शक्तिहीन) बलीयसा = शक्तिशाली के द्वारा, याच्यमानः = मांगे जाने पर, चूर्णस्य, अण्वपि = (अणु+अपि यण् सन्धि) थोड़ा सा भी, साम्ना = शान्ति से, नैव = नहीं (न+एव वृद्धिसन्धि), यच्छति नहीं देता है, च = और, दर्शयमानम् = दिखाने, मात्र को नैव = नहीं, प्रयच्छति = देता है, सः = वह, खारी = अधिकमात्रा में (खारी एक परिमाप था) पुनर्ददाति = बाद में देता है।
सर्वनाशे = सर्वनाश की स्थिति, समुत्पन्ने पैदा होने पर, पण्डितः = समझदार व्यक्ति (पण्डा = बुद्धिः यस्य अस्ति स पण्डितः), अर्द्धम् = आधे को, त्यजति = त्याग देता है, अर्द्धन = आधे से ही, कार्यम् = अपने कार्य को, कुरुते = चला लेता है, हि = क्योंकि, सर्वनाशः = समूल विनाश, दुःसहः = असहनीय होता है।
मतिमान्नरः बुद्धिमान् व्यक्ति, स्वल्पस्य कृते = थोड़े के लिए, भूरि = अधिक को, न नाशयेत् = नष्ट न करे। एतदेव = यही (एतत्+एव व्यंजनसन्धि), पाण्डित्यम् = बुद्धिमत्ता है, यत् = कि, स्वल्पाद् = थोड़े की अपेक्षा, भूरिरक्षणम् = अधिक की रक्षा करना।
हिन्दी-अनुवाद-नीतिकार कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाता है, वह मानों स्वयं हि विषभक्षण कर रहा होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है। भाव यह कि वह बलशाली शत्रु मौका पाते ही उस पर अपना आधिपत्य जमा लेगा।
इसलिए इस प्रियदर्शन नामक सर्प के लिए प्रतिदिन अपने एक एक मित्र को दे दूंगा। कहा भी है कि-बुद्धिमान् व्यक्ति सर्वस्व नष्ट हो जाने की स्थिति में शत्रु को कुछ देकर सन्तुष्ट करने का प्रयास करते हैं, वह ठीक ही है क्योंकि समुद्र भी वड़वानल को इसी प्रकार शान्त रखता है। जो शक्तिहीन होने पर भी शक्तिशाली द्वारा मांगे जाने पर अणुमात्र वस्तु भी सामनीति से प्रदान नहीं करता है, उसे बाद में कुछ कणों के स्थान पर खारी परिमाण की वस्तु यानि अधिक देना पड़ता है।
सर्वनाश की स्थिति आने पर बुद्धिमान् आधे का त्याग कर देते हैं और आधे से अपना कार्य चला लेते हैं क्योंकि सर्वनाश सहनीय नहीं होता है। नीतिविद् कहते हैं कि बुद्धिमान् को चाहिए कि वह थोड़े के लिए अधिक को नष्ट न करे क्योंकि थोड़े के बदले अधिक की रक्षा करना ही पाण्डित्य कहलाता है।

★एवं निश्चित्य नित्यमेकैकम् आदिशति। सोऽपि तं भक्षयित्वा तस्यपरोक्षेज्यानपि भक्षयति। अथवा साधु इदमुच्यते
यथा हि मलिनैर्वस्त्रैर्यत्र तत्रोपविश्यते।
एवं चलित वित्तस्तु वित्तशेषं न रक्षति।। 30।।
अथ अन्यदिने तेन अपरान् मण्डूकान् भक्षयित्वा गंगदत्तसुतो यमुनादत्तो भक्षितः। तं भक्षितं ज्ञात्वा गंगदत्तः तारस्वरेण धिधिक प्रलापपरः कथञ्चिदपि न विरराम। ततः स्वपल्याऽभिहित:
किं क्रन्दसि दुराक्रन्द स्वपक्षक्षयकारक।
स्वपक्षस्य क्षये जाते को नस्त्राता भविष्यति।। 31।।
शब्दार्थ एवं व्याकरण-एवम् = इस प्रकार, निश्चित्य-निश्चय करके, नित्यम् = प्रतिदिन, एकैकम् = एक एक को, आदिशति = आदेश दे देता। सोऽपि = (स:+अपि विसर्ग एवं पूर्वरूपसन्धि) वह भी, तम् = उसे, भक्षयित्वा खाकर, तस्य परोक्षे = उसकी नज़रों के पीछे, अन्यान् अपि = औरों को भी, भक्षयति = खा लेता।
यथा = जिस प्रकार, मलिनैर्वस्त्रैः = गन्दे कपड़ों के साथ, यत्र-तत्र = जहाँ कहीं भी, उपविश्यते = बैठा जाता है, एवम् = इसी प्रकार, चलित वित्तस्तु = धनहीन मनुष्य, वित्तशेषम् = शेष बचे हुए धन को, न रक्षति = नहीं बचा पाता। अथ = इसके पश्चात्, अन्यदिने = किसी दिन, तेन
उस सर्प ने, अपरान् = दूसरे, मण्डूकान् = मेंढकों को, भक्षयित्वा = खाकर, गंगदत्तसुतो = (गंगदत्तस्य सुतः षष्ठी तत्पुरुष समास) गंगदत्त का पुत्र, भक्षितः = खा लिया,
तम् - उसे, भक्षितं ज्ञात्वा = खाया हुआ जानकर, तारस्वरेण = उच्चस्वर से, धिक् धिक्, प्रलापपरः= धिक्कार है ऐसा विलाप करता हुआ, कथञ्चिदपि = किसी प्रकार से भी, न विरराम = नहीं रुका, ततः = तब, स्वपल्याऽभिहितः = उसकी पत्नी ने कहा, दुराक्रन्द! हे दुष्ट, स्वपक्षक्षयकारकः = अपने वंश के विनाशक, किम् = क्यों, क्रन्दसि चिल्ला रहे हो, स्वपक्षस्य = अपने पक्ष के (परिवार के), क्षये जाते = विनाश हो जाने पर, नः = हमारा , त्राता = रक्षक, कः = कौन, भविष्यति = होगा।

 हिन्दी-अनुवाद-ऐसा निश्चय करके गंगदत्त ने सर्प को प्रतिदिन एक एक मेंढक देना प्रारम्भ कर दिया। वह भी उस दिये हुए मेंढक को खाने के पश्चात् गंगदत्त की नज़रों के पीछे और मेंढकों को भी खाता रहा। अथवा किसी ने ठीक ही कहा है कि जिस प्रकार मलिन वस्त्रों के साथ यहाँ-वहाँ कहीं भी बैठा जाता है। उसी प्रकार गरीब व्यक्ति या नष्ट होते हुए धन वाला मनुष्य शेष बचे हुए धन की भी रक्षा नहीं कर पाता है।

एक दिन उस साँप ने अन्य मण्डूकों को खाने के पश्चात् गंगदत्त का पुत्र यमुनादत्त भी खा लिया। उसे खाया हुआ देखकर गंगदत्त उच्च स्वर से यानि जोर-जोर से धिक्कार है धिक्कार है इस प्रकार स्वयं को फटकारता हुआ किसी भी प्रकार प्रलाप करने से न रुके। तब उसकी पत्नी ने कहा
हे दुष्ट! या बुरी तरह चिल्लाने वाले! तथा हे अपने कुल का विनाश करने वाले अब क्यों रो रहे हो! जरा सोचा कि अपने कुल का विनाश हो जाने पर अब हमारी रक्षा कौन करेगा। अर्थात् कोई नहीं।

★तत् अद्यापि विचिन्त्यतां आत्मनोनिष्क्रमणस्य वधोपायश्च अस्य।" अथ गच्छताकालेन सर्पण सकलमपि कवलितं मण्डूककुलम्। केवलमेको गङ्गदत्तः तिष्ठति। ततः प्रियदर्शनेन भणितम्-“भो गङ्गदत्त! बुभुक्षितो ऽहं निशेषिताः सर्वे मण्डूकाः। तद्दीयतां मे किञ्चित् भोजनं यतोऽहं त्वया अत्र आनीतः।" स आह-'भो मित्र! न त्वया अत्र विषये मया अवस्थितेन कापि चिन्ता कार्या। तत् यदि मां प्रेषयसि ततोऽन्यकूपस्थानपि मण्डूकान् विश्वास्य अत्र आनयामि।" स आह-"मम तावत् त्वमभक्ष्यो भातृस्थाने, तत् यदि एवं करोषि तत् साम्प्रतं पितृस्थाने भवसि, तदेवं क्रियताम्" इति। सोऽपि तत् आकर्ण्य अरघट्टघटिका आश्रित्य विविधदेवतोपकल्पित पूजोपयाचितः तस्मात् कूपात् विनिष्क्रान्तः। प्रियदर्शनोऽपि तदाकांक्षया तत्रस्थः प्रतीक्षमाणः तिष्ठति।

◆शब्दार्थ एवं व्याकरण-तत् = इसलिए, अद्यापि = आज भी, विचिन्त्यताम् सोचिए, आत्मनः = अपने, निष्क्रमणस्य = निलकने का, च = और, वधोपाय: = (वध+उपाय:गुणसन्धि)साँप के मारने का उपाय, तत् पश्चात्, गच्छताकालेन= समय बीतने पर, सर्पण = साँप के द्वारा, सकलम् अपि = सारा ही, कवलितम् = खा लिया गया, केवलम् एकः = केवल एक, तिष्ठति = शेष बचा। ततः = तब, प्रियदर्शनेन = प्रियदर्शन नामक साँप ने, भणितम् कहा, बुभुक्षितः अहम् = मैं भूखा हूँ, सर्वे मण्डूकाः सारे मेंढक, निःशेषिता = समाप्त हो गये हैं। तद् = इसलिए, दीयताम् = दीजिए, मे = मेरे लिए, किञ्चित् = कुछ, यतः = क्योंकि, त्वया = तेरे द्वारा, अत्र = यहाँ, आनीतः = लाया गया हूँ, सः गंगदत्त, आह = बोला, त्वया = तुझे, अत्रविषये भोजन के विषय में, मया अवस्थितेन = मेरे होते हुए, कापि = (का+अपि दीर्घसन्धि)कोई भी, चिन्ता = सोच-विचार,न कार्या=नहीं करना। तत् = इसलिए, माम् मुझे, प्रेषयसि भेजते हो, ततः =तो, अन्यकूपस्थानपि = दूसरे कुएँ में रहने वालों को भी, विश्वास्य = विश्वास दिलाकर यानि सच-झूठ बोल कर, अत्र = यहाँ, आनयामि = ले आता हूँ। तावत् = तो,
त्वम्=तू, अभक्ष्यः = न खाने योग्य है, भातृस्थाने = भाई के समान होने के कारण, साम्प्रतम् = अब, पितृस्थाने = पितातुल्य, भवसि = हो जाओगे, तत् एवम् = इसलिए ऐसा ही, क्रियताम् = कीजिए। सोऽपि = स:+अपि विसर्ग एवं पूर्वरूपसन्धि) वह भी, तत् = इस अनुमति को, आकर्ण्य = सुनकर, अरघट्टघटिकाम् आश्रित्य = अरघट्ट की घटिकाओं का आश्रय लेकर, विविधदेवतोपकल्पितपूजोपयाचितः = अनेकानेक देवताओं के लिए मनौतियाँ मानता हुआ तथा जीवन की रक्षा की भीख माँगता हुआ, तस्मात् = उस, कूपात् = कुएँ से, विनिष्क्रान्तः = बाहर निकल आया। प्रियदर्शनः = अपि, प्रियदर्शन नामक साँप भी, तत् आकांक्षया = उस इच्छा से यानि मेंढकों के आने की इच्छा से, तत्रस्थः = प्रतीक्षमाणः = इन्तजार करता हुआ, तिष्ठति = रुका रहा।

●हिन्दी-अनुवाद-अतः अब भी अपने यहाँ से निकलने और इसको मारने का कोई उपाय सोचो। उधर धीरे-धीरे ज्यों ज्यों समय बीतता गया साँप ने समूचे मण्डूक कुल को खा लिया। केवल एक गंगदत्त ही शेष बचा। तब प्रियदर्शन ने कहा-" हे गंगदत्त ! मैं भूखा हूँ और सारे मेंढक समाप्त हो चुके हैं इसलिए मुझे कुछ भोजन दो क्योंकि आप ही मुझे यहाँ लाये हो।" वह बोला-हे मित्र ! मेरे होते हुए आपको भोजन के विषय में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए यदि आप आज्ञा दें तो मैं दूसरे कुएँ में रहने वाले मण्डूकों को भी मिथ्याभाषण से विश्वास दिलाकर यहाँ ले आता हूँ।" वह बोला-देखो गंगदत्त भाई होने के कारण तुम तो मेरे लिए अभक्ष्य हो। यदि तुम ऐसा करते हो यानि दूसरे कुएं के मेंढकों को भी ले आते हो तब तुम मेरे लिए पिता समान हो जाओगे। इसलिए ऐसा ही करो। वह गंगदत्त भी ऐसा सुनकर अरघट्ट की घटिकाओं के सहारे अनेकानेक देवताओं के लिए मनौतियाँ मानता हुआ एवं मानसिक पूजा करता
हुआ उस कुएँ से बाहर निकल आया। प्रियदर्शन नामक साँप अन्य मण्डूकों के आने की इच्छा से वहाँ रहकर गंगदत्त की प्रतीक्षा करने लगा।

★अथचिरात् अनागते गंगदत्ते प्रियदर्शनोऽन्यकोटरनिवासिनीं गोधामुवाच "भद्रे! क्रियतां स्तोकं साहाय्यम् यतः चिरपरिचितस्ते गंगदत्तः। तद्गत्वा तत्सकाशं कुत्रचिजलाशये अन्विष्य मम सन्देशं कथय। यत् आगम्यताम् एकाकिना अपि भवता द्रुततरं यदि नान्ये मण्डूका आगच्छन्ति। अहं त्वया विना नात्र वस्तुं शक्नोमि। तथा यदि अहं तव विरुद्धमाचरामि तत् सुकृतमन्तरे मया विधृतम्।" गोधा अपि तद्वचनात् गंगदत्तं द्रुततरम्-अन्विस्य प्राह-'भद्र गंगदत्त! स तव सुहृत प्रियदर्शन: तव मार्ग समीक्षमाणः तिष्ठति। तत् शीघ्रम् आगम्यतामिति। अपरञ्च तेन तव विरुपकरणे सुकृतमन्तरे धृतम्। तत् निःशङ्केन मनसा समागम्यताम् ।" तत् आकर्ण्य गंगदत्त आह
♂बुभुक्षितः कि न करोति पापं
क्षीणानरानिष्करुणा भवन्ति।
आख्याहि भद्रे प्रियदर्शन्स्य
न गंगदत्तः पुनरोति कूपम ।। 32।।
एवमुक्त्वा स तां विसर्जयामास।

◆शब्दार्थ एवं व्याकरण-अथः तत् पश्चात् चिरात = बहुत देर तक गंगदत्तेः = गंगदत्त के अनागते = (न आगते अनागते नञ् तत्पुरुष स०) न आने पर, प्रियदर्शन:- प्रियदर्शन नामक साँप ने, अन्यकोटरनिवासिनीम् = कुएँ के ही दूसरे कोटर में रहने वाली, गोधाम् = गोह को, कहा, भद्रे = प्रिये, स्तोकम्=थोड़ी सी, साहाय्यम् = सहायता, क्रियताम् = कीजिए। यतः = क्योंकि, गंगदत्तः = गंगदत्त नामक मण्डूक, ते = तुम्हारा, चिरपरिचितः = बहुत समय से परिचित है। तत् = इसलिए, गत्वा = (गम् + क्त्वा) जाकर, तत्सकाशम् = उसके समीप, कुत्रचित् = कहीं, जलाशयः = तालाब आदि में, अन्विय = ढूँढकर, मम सन्देशम् = मेरा सन्देश, कथय = कह दो। यत् = कि, यदि नान्ये = (न + अन्ये दीर्घसन्धि) दूसरे, भवता = आप के द्वारा, एकाकिना = अकेले ही, द्रुततरम् = शीघ्रता से, आगम्यताम् = आ जाइये। आहम् = मैं, त्वया विना = आपके विना, नात्र = (न +अत्र दीर्घसन्धि) यहाँ नहीं, वस्तुम्=तुमुन्) रहने के लिए। शक्नोमि समर्थ नहीं हूँ। शक् धातु लट् लकार उत्तम पु० एकवचन), तव तुम्हारे, विरुद्धम् = विपरीत, आचरामि = आचरण करु, तत् = तो, सुकृतम् = अपने से पुण्यकर्म, अन्तरे विधृतम् = बीच में रखता हूँ अर्थात् यदि मैं आपको खाँऊ तो मेरे समस्त पुण्य नष्ट हो जायें। गोधा अपि = गोह भी, तदवचनात् = उसकी बातों के अनुसार, गंगदत्तम् = गंगदत्त को, द्रुततरम् = शीघ्रता से, अन्विष्य = ढूंढकर, प्राह = बोली, तव = तुम्हारा, सः = वह, सुहृत् मित्र, मार्गम् समीक्षमाणः = राह देखता हुआ यानि प्रतीक्षा करता हुआ। तिष्ठति = बैठा है। अपरञ्च = (अपरम् + च परसवर्ण सन्धि) दूसरी बात तेन = उसने, तव = तुम्हारे, विरुपकरणे = विरुद्ध आचरण के सन्दर्भ में, अन्तरे = बीच में, सुकृतम् = पुण्य कर्म धृतम् रखे हैं +यानि अपने पुण्यकर्मों की कसम उसने खायी है। तत् = इसलिए, निःशंकेन निर्भय, मनसा: = मन से, आगम्यताम् = आ जाइये। तत् = इस बात को, आकर्ण्य = सुनकर, गंगदत्तः आह = गंगदत्त बोला।

●हिन्दी-अनुवाद-इसके पश्चात् बहुत समय बीतने पर भी जब गंगदत्त लौट कर नहीं आया तो प्रियदर्शन नामक उस साँप ने उसी कुएँ के दूसरे बिल में रहने वाली गोह से कहा कि प्रिये। मेरी थोड़ी सी सहायता करो। क्योंकि गंगदत्त आपका चिरपरिचित है इसलिए किसी जलाशय में उसे ढूँढ कर उसके पास जाकर मेरा यह सन्देश कह दो कि यदि दूसरे मेण्डक नहीं आ रहे हैं तो आप अकेले ही शीघ्रता से आ जाइये क्योंकि मैं आपके बिना अकेला यहाँ नही रह सकता हूँ। यदि आप सोचते हों कि मैं आपके विरुद्ध आचरण कर सकता हूँ तो इसके लिए मैं अपने पुण्य कर्मों की सौगन्ध खाता हूँ कि मैं ऐसा नहीं करूँगा। गोह ने भी उसके वचनों के अनुसार शीघ्र ही उसे ढूँढा और कहा कि गंगदत्त तुम्हारा वह मित्र प्रियदर्शन नामक सर्प आपकी प्रतीक्षा में बैठा है उसने कहा है कि शीघ्रता से आ जाओ। उसने अपने पुण्य कर्मों की सौगन्ध खाकर कहा है कि मैं आपके विपरीत आचरण नहीं करूँगा। इसलिए निर्भय होकर आ जाइये। गोह की इस बात को सुनकर गंगदत्त ने कहा कि
-प्रिय! मेरे मित्र प्रियदर्शन सर्प से कह देना कि भूखे लोग कुछ भी पाप कर सकते हैं क्योंकि क्षीण यानि भूखे लोग निर्दयी हो जाते हैं अत: गंगदत्त पुन: कभी भी कुएँ में नहीं आयेगा।
ऐसा कहकर गंगदत्त ने गोह को अलविदा कह दिया।

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  1. Neha Devi
    Major History
    Sr no 62

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  2. Name Priyanka devi, Major History, Ser No 30...

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  3. Poonam devi sr no 23 major political

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  4. Mehak
    Sr.no.34
    Major Political science

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  5. Poonam devi sr no 23 major political science

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  6. Riya thakur
    Sr no. 22
    Major political science

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  7. Jagriti Sharma
    Serial no. 2
    Major-Hindi

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  8. Rishav sharma major pol science sr no 65

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  9. Taniya sharma
    Sr no. 21
    Pol. Science

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  10. Name Akshita Kumari Major Political Science Sr.No.70

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  11. Name palvinder kaur major history sr no 9

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  12. Sakshi
    Sr no 14
    Major Hindi
    Minor history

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  13. Pallvi choudhary
    Major- pol. Sc
    Minor- history
    Sr. No-72

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  14. VIVEk Kumar Pol science sr no 38 dehri

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  15. Sonali dhiman political science Sr. no. 19

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  16. Shivani Devi
    Sr no 46
    Major Hindi
    Minor history

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  17. Divya Kumari major political science sr.no 60

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  18. Anjli
    Major-Political science
    Minor-history
    sr.no-73

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  19. Chetna choudhary Major pol science minor Hindi sr no 13

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  20. Priyanka Devi
    Sr.no.23
    Major history

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  21. ektaekta982@gmail.com
    Varsha Devi Pol 24

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  22. Shivam choudhary
    Sr. No. -78
    Major -political science

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  23. Name jyotika Kumari Major hindi Sr no 5 minor history

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  24. Priyanka choudhary
    Major political science and minor Hindi sr no 12

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  25. Tanvi Kumari
    SR.no. 69
    Major. Pol. Science

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  26. Name Simran kour
    Sr no 36
    Major history

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  27. Name -riya
    Sr.no.49
    Major- political science
    Minor- history

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  28. Divya Kumari major political science sr.no (60)

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  29. Priyanka Devi
    Ser No 30
    Major History
    Minor Hindi

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  30. Name Priya major history Roll number 2001HS029

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  31. Monika
    Rollno2001HS014
    Major history

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  32. Tanu guleria
    Sr. No.32
    Major political science

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  33. Name damini Sr no 42 major hindi

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  34. Name damini Sr no 42 major hindi

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  35. Mehak
    Sr.no.34
    Major political science

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  36. Name rahul kumar
    Major history
    Minor hindi
    Sr no. 92

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  37. Name palvinder kour major history minor hindi srno 9

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  38. Sejal Kasav
    Major sub.-pol science
    Minor sub.-hindi
    Roll no.-2001PS001

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  39. Taniya sharma
    Pol. Science
    Sr no 21

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  40. Anuj Riyal
    Major __ Political Science
    Minor __ History
    Roll no. __ 2001PS025

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  41. Jagriti Sharma
    Roll no. 2001HI003
    Major-Hindi
    Minor-History

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  42. Priyanka choudhary major political science and minor Hindi sr no 12

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  43. Priyanka choudhary major political science and minor Hindi sr no 12

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  44. Shivani
    Sr no 46
    Major Hindi
    Minor History

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  45. Name jyotika Kumari Major hindi Sr no 5

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  46. Name jyotika Kumari Major hindi minnor history

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  47. Mamta devi major history sr no77

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  48. Name monikasharma sr no.26 major hindi

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  49. Name -Riya
    Major -History
    Sr. No. -76

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  50. Name -Riya
    Major -History
    Sr. No. -76

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  51. Sourabh singh major Hindi minor history Sr no 20

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  52. Anjli
    Major political science
    Minor history
    Roll.no 2001PS054

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  53. Swati kalia
    Major history Sr no68

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  54. Neha Devi major history Sr no 62

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  55. Shivam choudhary
    Roll no 200PS017
    Major political science

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  56. Pallvi choudhary
    Major-pol.sc
    Minor-history
    Sr.no-72

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  57. Name rahul kumar
    Major history
    Minor hindi
    Sr no. 92

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